श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित् एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगों में इस विषयपर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है ? ॥ 1 ॥ परीक्षित् ! उन लोगोंने यह बात जानने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके | उद्देश्यसे ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी सभामे गये ॥ 2 ॥ उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ॥ 3 ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर ही भीतर विवेकबुद्धिसे दबा लिया; ठीक वैसे हो, जैसे कोई अरणि मन्थनसे उत्पन्न अग्निको जलसे बुझा दे ॥ 4 ॥
वहाँ से महर्षि भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान् शङ्करने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिङ्गन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं ॥ 5 ॥ परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा- 'तुम लोक और वेदको मर्यादाका उल्लङ्घन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।' भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान् शङ्कर क्रोधके मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको मारना चाहा ॥ 6 ॥ परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षिभृगुजी भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठमे गये ॥ 7 ॥ उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीकी गोद में | अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्षःस्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान्ने कहा- 'ब्रह्मन्। आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो। मुझे आपके शुभागमनका पता न था । इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ 8-9 ॥ महामुने! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।' यों कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान् अपने हाथोंसे सहलाने लगे ॥ 10 ॥ और बोले- 'महर्षे! आपके चरणोंका जल तीर्थोको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोको पवित्र कीजिये ।। 11 ।। भगवन्! आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्षःस्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी' ॥ 12 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते है जब भगवान् पन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेक्से उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ 13 ॥ परीक्षित् भृगुजी वहांसे लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्सङ्गमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णु भगवान् के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ।। 14 ।। भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋषि मुनियोंको बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान् विष्णुको ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे क्योंकि वे ही शान्ति और अभयके उद्गमस्थान हैं ।। 15 । भगवान् विष्णुसे ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ।। 16 ।। शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सबको है। अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति | हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ।। 17 ।।उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शन्त और निपुणबुद्धि ( विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं॥ 18 ॥ भगवान्की गुणमयी गायाने राक्षस, असुर और देवता उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्यमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राधिका साधन है। | वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थस्वरूप हैं ॥ 19 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । सरस्वती तटके ऋषियोंने अपने लिये नहीं, मनुष्योंका संशय मिटानेके लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान्के चरणकमलोंकी सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ 20 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो। भगवान् पुरुषोत्तमको यह कमनीय कीर्ति कथा जन्म-मृत्युरूप संसारके भयको मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके मुखारविन्दसे निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो | बटोही अपने कानोंके दोनोंसे इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत्में इधर-उधर भटकनेसे होती है, दूर हो जाती है ॥ 21 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया ॥ 22 ॥ ब्राह्मण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुखी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा- ।। 23 ।। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है ।। 24 ।। जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा | करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती है और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ।। 255 परीक्षित् इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ब्राह्मण लड़केकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और | वही बात कह गया ॥ 26 ॥ नवें बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान् श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससेकहा- ॥ 27 ॥ ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी यज्ञमें बैठे हुए हैं !॥ 28 ॥ जिनके राज्यमें धन, स्त्री अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दुखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं है, क्षत्रियके में पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है ।। 29 ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपको सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका, तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा ॥ 30 ॥
ब्राह्मणने कहा- अर्जुन यहाँ बलरामजी भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्धा | अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते ।। 31-32 ।।
अर्जुनने कहा- ब्रह्मन् ! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ 33 ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुषका तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रमसे भगवान् शङ्करको सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन्! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ।। 34 ।।
परीक्षित्! जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया ।। 35 ।। प्रसवका समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा 'इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो' ॥ 36 ॥ यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा भगवान् शङ्करको नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया ।। 37 ॥अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके अब मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणोंका एक पिंजड़ा-सा बना दिया ।। 38 ।। इसके बाद ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया ।। 39 ।। अब वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला- 'मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास कर लिया ॥ 40 ॥ भला जिसे प्रद्युम्र, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान् श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है ? ॥ 41 ॥ मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है !! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो। यह मूढतावश उस बालकको लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है' ॥ 42 ॥
जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरीमें गये, जहाँ भगवान् यमराज निवास करते हैं ॥ 43 ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मणका बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमशः इन्द्र अनि निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें, अतलादि नीचेके लोकोंमें, स्वर्गसे ऊपर के महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये ॥ 44 ॥ परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्रिमें प्रवेश करनेका विचार किया परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा ॥ 45 ॥ 'भाई अर्जुन ! तुम अपने (आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे' ।। 46 ।।
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया ॥ 47 ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वतको लॉकर घोर अन्धकारमें प्रवेश किया ॥ 48 ॥परीक्षित् ! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैव्य, सुधीर, मेघपुष्प और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था ।। 49 ।। योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्यकि समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी ।। 50 ।। सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान् के द्वारा उत्पन्न उस धने एवं महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान् रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसोंकी सेनामें प्रवेश कर रहा हो ।। 51 ।। इस प्रकार सुदर्शन चक्रके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे चलकर रथ अन्धकारको अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकारके पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ।। 52 ।। इसके बाद भगवान्के रथने दिव्य जलराशिमें प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरङ्गे उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था । उसमें मणियोंके सहस्र सहस्र खंभे चमक चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ॥ 53 ॥ उसी महलमे भगवान् शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिरमें दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलासके समान श्वेतवर्णका था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी ॥ 54 ॥ परीक्षित् अर्जुनने देखा कि शेषभगवान्की सुखमयी शव्यापर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान् विराजमान हैं। उनके शरीरको कान्ति वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने | लगते हैं ॥ 55 ॥ बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ है; गलेमें कौस्तुभमणि है; वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनों क वनमाला लटक रही है ॥ 56 ॥ अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद चक्र सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा-ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान्की सेवा कर रही हैं ॥ 57 ॥ परीक्षित् | भगवान् श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्री अनन्त भगवान्को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा- ॥ 58 ॥ 'श्रीकृष्ण और ! अर्जुन! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके | बालक अपने पास मैगा लिये थे तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके शीघ्र-से शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ 59 ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो ॥ 60 ॥
जब भगवान् भूमा पुरुषने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ ब्राह्मण बालकोंको लेकर जिस रास्तेसे, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मणके बालक अपनी आयुके अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्मके समय थी। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप | दिया ।। 61-62 ।। भगवान् विष्णुके उस परमधामको देखकर अर्जुनके आश्चर्यकी सीमा न रहीं। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवोंमें जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान् श्रीकृष्णकी ही कृपाका फल है ॥ 63 ॥ परीक्षित् भगवान्ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरतासे परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टिमें साधारण लोगोंके समान सांसारिक विषयोंका भोग किया और बड़े बड़े महाराजाओंके समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ।। 64 ।।भगवान् श्रीकृष्णने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गोंके सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ 65 ॥ उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओंसे उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें धर्ममर्यादाकी स्थापना करा दी ॥ 66 ॥