श्रीभगवान् कहते हैं- माताजी । जब जीवको मनुष्यशरीरमें जन्म लेना होता है, तो वह भगवान्की प्रेरणासे अपने पूर्वकर्मानुसार | देहप्राप्ति के लिये पुरुषके वीर्यकणके द्वारा स्त्रीके उदरमें प्रवेश करता है ॥ 1 ॥ वहाँ वह एक रात्रिमें स्त्रीके रजमें मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रिमें बुदबुदरूप हो जाता है, दस दिनमें ब्रेरके समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियोंमें अण्डेके रूपमें परिणत हो जाता है ॥ 2 ॥ एक महीनेमें उसके सिर निकल आता है, दो मासमें हाथ-पाँव आदि अङ्गोका विभाग हो जाता है और तीन मासमें नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुषके चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ॥ 3 ॥ चार मासमें उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लगने लगती हैं और छठे मासमें झिल्लीसे लिपटकर वह दाहिनी कोखमें घूमने लगता है ॥ 4 ॥ उस समय माताके खाये हुए अन्न-जल आदिसे उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जन्तुओंके उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्रके गढ़में पड़ा रहता है ॥ 5 ॥ वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँके भूखे कीड़े उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग नोचते हैं, तब अत्यन्त फ्रेशके कारण वह क्षण-क्षणमें अचेत हो जाता है || 6 || माताके खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उम्र पदार्थोंका स्पर्श होने से उसके सारे शरीरमें पीड़ा होने लगती है ॥ 7 ॥वह जीव माताके गर्भाशयमें झिल्लीसे लिपटा और आंतों से घिरा | रहता है। उसका सिर पेटकी और तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ॥ 8 ॥
वह पिंजड़े में बंद पक्षीके समान पराधीन एवं अङ्गोको हिलाने इत्यनेमें भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्टकी प्रेरणये से स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैकड़ों जन्मोंके कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्थामें उसे क्या शान्ति मिल सकती है ? ॥ 9 ॥ सातवाँ महीना आरम्भ होनेपर उसमें ज्ञानशक्तिका भी उन्मेष हो जाता है परन्तु प्रसूतिवायुसे चलायमान रहनेके कारण वह उसी उदरमें उत्पन्न हुए विष्ठाके कीड़ोंके समान एक स्थानपर नहीं रह सकता ॥ 10 ॥ समयमय स्थूलशरीरये वंधा हुआ वह देहात्मदर्शी | अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणीसे कृपा-याचना करता हुआ, हाथ | जोड़कर उस प्रभुकी स्तुति करता है, जिसने उसे माताके गर्भमें डाला है ।। 11 ।।
जीव कहता है— मैं बड़ा अधम हूँ ; भगवान् ने मुझे जो इस प्रकारकी गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत्की रक्षाके लिये ही अनेक प्रकारके रूप धारण करते हैं; अतः मैं भी भूतलपर विचरण करनेवाले उन्होंके निर्भय चरणारविन्दोंकी शरण लेता हूँ ॥ 12 ॥ जो मैं (जीव) इस माताके उदरमें देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा मायाका आश्रय कर पुण्य पापरूप कर्मोंसे आच्छादित रहनेके कारण बद्धकी तरह हूँ, वहीं मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदयमें प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्माको नमस्कार करता हूँ ।। 13 ।। मैं वस्तुतः शरीरादिसे रहित (असङ्ग) होनेपर भी देखने में पाइभौतिक शरीरसे सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहङ्कार) रूप जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादिके आवरण से जिनको महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुषके नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुषकी मैं वन्दना करता हूँ ।। 14 ।। उन्होंकी मायासे अपने स्वरूपकी स्मृति नष्ट हो जानेके कारण यह जीव अनेक प्रकारके सत्त्वादि गुण और कर्मके बन्धनसे युक्त इस | संसारमार्ग में तरह-तरहके कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्तिसे इसे अपने स्वरूपका ज्ञान हो सकता है ॥ 15 ॥ मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, वह भी उनके सिवा और किसने दिया है क्योंकि जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंशसे विद्यमान है। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवीका अनुवर्तन | करनेवाले हम अपने त्रिविध तापोको शान्तिके लिये उन्हींका भजनकरते हैं ॥ 16 ॥
भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देहके उदरके भीतर मल, मूत्र और रुधिरके कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्निसे इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलनेकी इच्छा करता हुआ यह अपने महोने गिन रहा है। भगवन्! अब इस दीनको यहाँसे कब निकाला) जायगा ? ॥ 17 ॥ स्वामिन्! आप बड़े दयालु हैं, आप जैसे उदार प्रभुने ही इस दस मासके जीवको ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकारसे ही आप प्रसन्न हो, क्योंकि आपको हाथ जोड़नेके सिवा आपके उस उपकारका बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ll 18 ll
प्रभो संसारके ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धिके अनुसार अपने शरीर होनेवाले सुखदुखादिका हो अनुभव करते हैं, किन्तु मैं तो आपकी कृपासे शमदमादि साधनसम्पन्न शरीरसे युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धिसे आप पुराणपुरुषको अपने शरीरके बाहर और भीतर अहङ्कारके आश्रयभूत आत्माकी भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ।। 19 ॥ भगवन्! इस अत्यन्त दुःखसे भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्टसे रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूपमें गिरनेको मुझे बिलकुल इन्सा नहीं है क्योंकि उसमें जानेवाले जीवको आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीरमें अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाममें उसे फिर इस संसारचक्रमें ही पड़ना होता है ॥ 20 ॥ अतः मैं व्याकुलताको छोड़कर हृदयमें श्रीविष्णुभगवान्के चरणको स्थापितकर अपनी बुद्धिकी सहायतासे ही अपनेको बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्रके पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकारके दोषोसे युक्त यह संसार दुःख फिर न प्राप्त हो ॥ 21 ॥
कपिलदेवजी कहते हैं-माता! वह दस महीनेका जीव गर्भमे ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान्को स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालकको प्रसवकालको वायु तत्काल बाहर आनेके लिये ढकेलती है॥ 22 ॥ उसके सहसा ठेलनेपर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्टसे बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वासको गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ।। 23 ।। पृथ्वीपर माताके रुधिर और मूत्रमें पड़ा हुआ यह बालक विष्ठाके कीड़ेके समान छटपटाता है। उसका गर्भवासका सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति ( देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है ।। 24 ॥फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करनेकी शक्ति भी उसमें नहीं | होती ॥ 25 ॥ जब उस जीवको शिशु अवस्थामें मैली-कुचैली | खाटपर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीरको खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलने की भी सामर्थ्य न होनेके कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ 26 ॥ उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीहेको छोटे कोड़े। इस समय उसका गर्भावस्थाका सारा शान जाता रहता है, सिवा रोनेके वह कुछ नहीं कर सकता ।। 27 ।।
इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड अवस्था ओके | दुःख भोगकर वह बालक युवावस्थामें पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उदीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है॥ 28 देहके साथ ही साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जानेके कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करनेके लिये दूसरे कामी पुरुषोंके साथ वैर ठानता है ।। 29 ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतोंसे रचे हुए इस देशमें मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं मेरेपनका अभिमान करने लगता है ॥ 30 ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह-तरहके कर्म करता रहता है— जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसार-चक्रमें पड़ना होता है ॥ 31 ॥ सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्होंका अनुगमन करने लगता है, तो पहले सम्मान ही फिर कारको योनियोंमें पड़ता है। 32 ।। जिनके सबसे इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, वाणीका संयम, बुद्ध, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शेचनीय स्त्रियोंके क्रीडामुग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ देशमदर्शी असत्पुरुषोंका सङ्ग कभी नहीं करना और | चहिये 33-34 क्योंकि इस जीवको किसी औरका सङ्ग करनेसे ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के सङ्गियोंका सङ्ग करनेसे होता है ।। 35 । एक बार अपनी पुत्री | सरस्वतीको देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप लावण्यसे मोहित होगये थे और उसके मृगरूप होकर भागनेपर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे || 36 | उन्हीं ब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंकी तथा मरीचि आदिने कश्यपादिकी और कश्यपादिने देवमनुष्यादि प्राणियोंकी सृष्टि की। अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायणको छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी मायासे मोहित न हो ॥ 37 ॥ अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी मायाका बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि विलासमात्रसे बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरोंको पैरोंसे कुचल देती है ॥ 38 ॥
जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका सङ्ग कभी न करें; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ॥ 39 ॥ भगवान्की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदिके मिससे पास आती है, इसे तिनकोंसे ढके हुए कुएँके समान अपनी मृत्यु ही समझे ॥ 40 ॥
स्त्री आसक्त रहनेके कारण तथा अन्त समयमें स्त्रीका ही ध्यान रहनेसे जीवको स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनिको प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूपमें प्रतीत होनेवाली मेरी माया ही धन् पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधेका गान कानोंको प्रिय लगनेपर भी बेचारे भोले-भाले पशु-प -पक्षियोंको फँसाकर उनके नाशका ही कारण होता है— उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदिको विधाताकी निति की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ।। 41-42 देखि जीवके उपाधिभूत लिङ्गदेश के द्वारा पुरुष एक लोकसे दूसरे लोकमे जाता है और अपने प्रारब्धकर्मो को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहोंकी प्राप्तिके लिये दूसरे कर्म करता रहता है ।। 43 ।। जीवका उपाधिरूप लिङ्गशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मनका कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनोंका परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणीको 'मृत्यु' है और दोनोंका साथ-साथ प्रकट होना 'जन्म' कहलाता है ।। 44 ।। पदार्थोंकी उपलब्धिके स्थानरूप इस स्थूलशरीरमें जब उनको ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं इस अभिमानके साथ उसे देखना उसका जन्म है ।। 45 ।। नेत्रोंमें जब किसी दोषके कारण रूपादिको | देखनेकी योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखनेमें असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखनेमें असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनोंके सभी जीव भी वह योग्यता नहीं रहती ।। 46 ।।अतः मुमुक्ष पुरुषको मरणादिसे भय, दीनता अथवा मोह नहीं होना चाहिये। उसे जीवके स्वरूपको जानकर धैर्यपूर्वक निःसङ्गभावसे विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसारमें योग-वैराग्य-युक्त सम्यक् ज्ञानमयी बुद्धिसे शरीरको निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ।। 47-48 ।।