राजा परीक्षित्ने पूछा—गुरुदेव । स्वायम्भुव मनुका वंश विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंशमें उनकी कन्याओंक द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तरमें महामहिम भगवान्के जिन-जिन अवतारों और लीलाओंका वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धासे उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ 2 ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान् बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ 3 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- इस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ॥ 4 ॥ स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूति से कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था 5 ॥ परीक्षित्! भगवान् कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान् यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ।। 6 ।।
परीक्षित् ! भगवान् स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये ॥ 7 ॥परीक्षित्! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते थे॥ 8 ॥ मनुजी कहा करते थे जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं-वही परमात्मा हैं ॥ 9 ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी - सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन निर्वाहमात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी है ? ॥ 10 ॥ भगवान् सबके साक्षी है। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञान शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदयमें रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्माकी शरण ग्रहण करो ॥ 11 जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-परावे, बाहर और भीतर सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। यही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ।। 12 । वही परमात्मा विश्वरूप है। उनके अनन्या नाम है। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ 13 ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कर्म्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ 14 ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ॥ 15 ॥ भगवान् ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिनाकिसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोक द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता है मैं उन्हीं प्रभुकी शरण में हूँ ।। 16 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत् स्वरूप श्रुतिका पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस सा डालने के लिये उनपर टूट पड़े ॥ 17 ॥ यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे ।। 18 ।।
परीक्षित् | दूसरे मनु हुए स्वारोचिप वे अधिके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे-घुमान, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ।। 19 ।। उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ॥ 20 ॥ उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भसे भगवान्ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ 21 ॥ वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हों आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया ll 22 ll
तीसरे मनु थे उत्तम वे वितके पुत्र थे। उनके प्रियव्रतके पुत्रोंके नाम थे— पवन, सृञ्जय, यज्ञहोत्र आदि ॥ 23 ॥ उस मन्वन्तरमे वसिहजी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित् ॥ 24 ॥ उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तम भगवान्ने सत्यसेनके नामसे अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नामके देवगण भी थे ।। 25 ।।उस समयके इन्द्र सत्यजितके सखा बनकर भगवान्ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणोंका संहार किया ।। 26 ।।
चौथे मनुका नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे ॥ 27 ॥ सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओंके प्रधान गण थे। इन्द्रका नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तरमें ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे ॥ 28 ॥ परीक्षित्! उस तामस नामके मन्वन्तरमे विभूतिके पुत्र वैधृति नामके और भी देवता हुए। उन्होंने समयके फेरसे नष्टप्राय वेदों को अपनी शक्तिसे बचाया था, इसीलिये ये 'वैभूति' कहलाये ॥ 29 ॥ इस मन्यन्तरमें हरिमेधा ऋषिकी पत्नी हरिणीके गर्भसे हरिके रूपमें भगवान्ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतारमें उन्होंने ग्राहसे गजेन्द्रकी रक्षा की थी ॥ 30 ॥
राजा परीक्षितने पूछा- मुनिवर। हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान्ने गजेन्द्रको ग्राहके फंदेसे कैसे छुड़ाया था ।। 31 । सब कथाओंमें वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मङ्गलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओंके द्वारा गान किये हुए भगवान् श्रीहरिके पवित्र यशका वर्णन रहता है ॥ 32 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित् आमरण अनशन करके कथा सुननेके लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेवजी महाराजको इस | प्रकार कथा कहनेके लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेमसे परीक्षित्का अभिनन्दन करके मुनियोंकी भरी सभामें कहने लगे ॥ 33 ॥