श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इसके बाद ब्राह्मणोंने पुत्रहीन राजा वेनकी भुजाओंका मन्थन किया, तब उनसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ ॥ 1 ॥ ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़ेको उत्पन्न हुआ देख और उसे भगवान्का अंश जान बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ 2 ॥
है वह ऋषियोंने कहा- यह पुरुष भगवान् विष्णुकी विश्वपालिनी कलासे प्रकट हुआ है और यह स्त्री उन परम पुरुषकी अनपायिनी (कभी अलग न होनेवाली) शक्ति लक्ष्मीजीका अवतार है ।। 3 ।। इनमेंसे जो पुरुष अपने सुयशका प्रथन- विस्तार करनेके कारण परम यशस्वी 'पृथु' नामक सम्राट् होगा। राजाओंमें यही सबसे पहला होगा ॥ 4 ॥ यह सुन्दर दाँतोंवाली एवं गुण और आभूषणोंको भी विभूषित करनेवाली सुन्दरी इन पृथुको ही अपना पति बनायेगी। इसका नाम अर्चि होगा ॥ 5 ॥पृथुके रूपमें साक्षात् श्रीहरिके अंशने ही संसारकी | रक्षाके लिये अवतार लिया है और अर्चिके रूपमें, निरन्तर भगवान्की सेवामें रहनेवाली उनकी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मीजी ही प्रकट हुई हैं ॥ 6 ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उस समय ब्राह्मणलोग पृथुकी स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्वोने गुणगान किया, सिद्धोंने पुष्पोंकी वर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ 7 ॥ आकाशमें शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और | दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे। समस्त देवता, ऋषि और पितर अपने-अपने लोकोंसे वहाँ आये ॥ 8 ॥ जगद्गुरु ब्रह्माजी देवता और देवेश्वरोंके साथ पधारे। उन्होंने वेनकुमार पृथुके दाहिने हाथमें भगवान् विष्णुकी हस्तरेखाएँ और चरणोंमें कमलका चिह्न देखकर उन्हें श्रीहरिका ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथमें दूसरी | रेखाओंसे बिना कटा हुआ चक्रका चिह्न होता है, वह भगवान्का ही अंश होता है ।। 9-10 ।।
वेदवादी ब्राह्मणोंने महाराज पृथुके अभिषेकका आयोजन किया। सब लोग उसकी सामग्री जुटाने में लग गये ॥ 11 ॥ उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सब प्राणियोंने भी उन्हें तरह-तरहके उपहार भेंट किये ।। 12 ।। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे अलङ्कृत महाराज पृथुका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। उस समय अनेकों अलङ्कारोंसे सजी हुई महारानी अर्चिके साथ वे दूसरे अग्निदेवके सदृश जान पड़ते थे ॥ 13 ॥
वीर विदुरजी । उन्हें कुबेरने बड़ा हो सुन्दर सोनेका सिंहासन दिया तथा वरुणने चन्द्रमाके समान श्वेत और प्रकाशमय छत्र दिया, जिससे निरन्तर जलकी फुहियाँ | झरती रहती थीं ॥ 14 ॥ वायुने दो चँवर, धर्मने कीर्तिमयी माला, इन्द्रने मनोहर मुकुट, यमने दमन करनेवाला दण्ड, ब्रह्माने वेदमय कवच, सरस्वतीने सुन्दर हार, विष्णुभगवान्ने सुदर्शनचक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मीजीने अविचल सम्पत्ति, रुद्रने दस चन्द्राकार चिह्नोंसे युक्तकोपवाली तलवार, अम्बिकाजीने सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल, चन्द्रमाने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा) ने सुन्दर रथ, अग्निने बकरे और गौके सींगोंका बना हुआ सुदृढ धनुष, सूर्यने तेजोमय बाण, पृथ्वीने चरणस्पर्श मात्र से अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देनेवाली योगमयी पादुकाएं, आकाशके अभिमानी द्यौ देवताने नित्य नूतन पुष्पोंकी माला, आकाशविहारी सिद्ध गन्धर्वादिने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जानेकी शक्तियाँ, ऋषियोंने अमोघ आशीर्वाद, | समुद्रने अपनेसे उत्पन्न हुआ शङ्ख तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियोंने उनके रथके लिये बेरोक-टोक मार्ग उपहारमें दिये। इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दोजन उनकी स्तुति करनेके लिये उपस्थित हुए । 15 - 20 ॥ तब उन स्तुति करनेवालोंका अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परम प्रतापी महाराज पृथुने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणी में कहा ll 21 ll
पृथुने कहा- -सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन ! अभी तो लोकमें मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणोको लेकर मेरी स्तुति करोगे ? मेरे विषयमें तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी औरकी स्तुति करो ।। 22 ।। मृदुभाषियों ! कालान्तरमे जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायें, तब भरपेट अपनी मधुर वाणीसे मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्ट पुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणानुवादके रहते हुए तुच्छ मनुष्योंकी स्तुति नहीं किया करते ।। 23 । महान् गुणोको धारण करनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उनके न रहनेपर भी केवल सम्भावनामात्रसे स्तुति करनेवालोंद्वारा अपनी स्तुति करायेगा ? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते- इस प्रकारकी स्तुतिसे तो मनुष्यकी वञ्चना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग हैं उसका उपहास ही कर रहे हैं ।। 24 ।। जिस प्रकार लज्जाशील उदार पुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रमकी चर्चा होनी बुरी समझते हैं, उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुतिको भी निन्दित मानते हैं ॥ 25 ॥ सूतगण ! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मो के द्वारा लोकमें अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अबतक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगोंसे बच्चोंके समान अपनी कीर्तिका किस प्रकार गान करावें ? ।। 26 ।।