श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- इस प्रकार जब वन्दीजनने महाराज पृथुके गुण और कर्मोंका बखान करके उनकी प्रशंसा की, तब उन्होंने भी उनकी बड़ाई करके तथा उन्हें मनचाही वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया ॥ 1 ॥उन्होंने ब्राह्मणादि चारों वर्णों, सेवकों, मन्त्रियों, पुरोहितों, पुरवासियों, देशवासियों, भिन्न-भिन्न व्यवसायियों तथा अन्यान्य आज्ञानुवर्तियोंका भी सत्कार किया ॥ 2 ॥
विदुरजीने पूछा- ब्रहान् पृथ्वी तो अनेक रूप धारण कर सकती है, उसने गौका रूप ही क्यों धारण किया ? और जब महाराज पृथुने उसे दुहा, तब बछड़ा कौन बना? और दुहनेका पात्र क्या हुआ ? ॥ 3 ॥ पृथ्वी देवी तो पहले स्वभावसे ही ऊँची-नीची थी। उसे उन्होंने समतल किस प्रकार किया और इन्द्र उनके यज्ञसम्बन्धी धोडेको क्यों हर ले गये ? ॥ 4 ॥ ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमारजीसे ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करके वे | राजर्षि किस गतिको प्राप्त हुए ? ॥ 5 ॥ पृथुरूपसे सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ही अवतार ग्रहण किया था; अतः पुण्यकीर्ति श्रीहरिके उस पृथु अवतारसे सम्बन्ध रखनेवाले जो और भी पवित्र चरित्र हो, वे सभी आप मुझसे कहिये। मैं आपका और श्रीकृष्णचन्द्रका बड़ा अनुरक्त भक्त हूँ ।। 6-7 ।।
श्रीसूतजी कहते हैं-जब विदुरजीने भगवान् वासुदेवकी कथा कहनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, तब श्रीमैत्रयजी प्रसन्नचित्तसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ 8 ॥
श्रीमैत्रेवजीने कहा- विदुरजी ! ब्राह्मणोंने | महाराज पृथुका राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजाका रक्षक उद्घोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, | इसलिये भूखके कारण प्रजाजनोंके शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। उन्होंने अपने स्वामी पृथुके पास आकर कहा ॥ 9 ॥ राजन् जिस प्रकार कोटरमें सुलगती हुई आगसे पेड़ जल जाता है, उसी प्रकार हम पेटकी भीषण ज्वालासे जले जा रहे हैं। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं और हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, इसलिये हम आपकी शरणमें आये हैं ll 10 ll आप समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाले हैं, आप ही हमारी जीविकाके भी स्वामी हैं। अतः राजराजेश्वर ! आप हम क्षुधापीड़ितोंको शीघ्र ही अन्न देनेका प्रबन्ध कोजिये, ऐसा न हो कि अन्न मिलनेसे पहले ही हमारा अन्त हो जाय' ॥ 11 ॥श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— कुरुवर !
प्रजाका करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देरतक विचार करते रहे। अन्तमें उन्हें अन्नाभावका कारण मालूम हो गया ॥ 12 ॥ 'पृथ्वीने स्वयं ही अत्र एवं औषधादिको अपने भीतर छिपा लिया है अपनी बुद्धिसे इस बातका निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और त्रिपुरविनाशक भगवान् शङ्करके समान अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वीको लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया ॥ 13 ॥ उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याधके पीछा करनेपर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौका रूप धारण करके भागने लगी ।। 14 ।।
यह देखकर महाराज पृथुकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे जहाँ-जहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुषपर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे ।। 15 ।। दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जहाँ-जहाँ भी वह दौड़कर जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते ।। 16 ।। जिस प्रकार मनुष्यको मृत्युसे कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकीमें वेनपुत्र पृथुसे बचानेवाला कोई भी न मिला। तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्तसे पीछेकी ओर लौटी ॥ 17 ॥ और महाभाग पृथुजीसे कहने लगी- 'धर्मके तत्त्वको | जाननेवाले शरणागतवत्सल राजन्! आप तो सभी प्राणियोंकी रक्षा करनेमें तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये || 18 मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्रीका वध आप कैसे कर सकेंगे ? ॥ 19 ॥ स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उनपर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ 20 ॥ मैं तो एक सुदृढ़ नौकाके समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधारपर स्थित हैं। मुझे तोड़कर आप अपनेको और अपनी प्राको जलके ऊपर कैसे रखेंगे ?' ॥ 21 ॥
महाराज पृथुने कहा- पृथ्वी! तू मेरी आशका उल्लङ्घन करनेवाली है। तू यज्ञमें देवतारूपसे भाग तो लेती है, 'किन्तु उसके बदले में हमें अन्न नहीं देती इसलिये आज मैं तुझे -मार डालूँगा ॥ 22 ॥ तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने धनका दूध नहीं देती-ऐसी दुष्टता करनेपर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता ॥ 23 ॥तू नासमझ है, तूने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके उत्पन्न किये हुए अन्नादिके बीजोंको अपनेमें लीन कर लिया है और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भसे निकालती नहीं ।। 24 ।। अब मैं अपने बाणोंसे तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदेसे इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनोंका करुण क्रन्दन शान्त करूंगा ॥ 25 ॥ जो दुष्ट अपना ही पोषण करनेवाला तथा अन्य प्राणियोंके प्रति निर्दय हो वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो—उसका मारना राजाओंके लिये न | मारनेके ही समान है ॥ 26 ॥ तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय मायासे ही यह गौका रूप बनाये हुए है। मैं बाणोंसे तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबलसे प्रजाको धारण करूँगा ॥ 27 ॥
इस समय महाराज पृथु कालकी भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभावसे हाथ जोड़कर कहा ।। 28 ।।
पृथ्वीने कहा -आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा - अपनी मायासे अनेक प्रकारके शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते है; वास्तव आत्मानुभव के द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादिसे सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ 29 ॥ आप सम्पूर्ण जगत्के विधाता है; अपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवोंका आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो! जब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारनेको तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरणमें जाऊँ ? ॥ 30 ॥ कल्पके आरम्भमें आपने अपने आश्रित रहनेवाली अनिर्वचनीया मायासे ही इस चराचर जगत्की रचना की थी और उस मायाके ही द्वारा आप इसका पालन करनेके लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूपधारिणीको किस प्रकार मारना चाहते हैं ? ।। 31 ।। आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्माको रचकर उनसे विश्वकी रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओंको अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं ? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय मायासे विक्षिप्त हो रही है।। 32 ।।आप ही पशभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहङ्काररूप अपनी शक्तियोंके द्वारा क्रमशः जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये समय-समयपर आपकी शक्तियोंका आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परमपुरुष और जगद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ 33 ॥ अजन्मा प्रभो! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप जगत्की स्थितिके लिये आदिवराहरूप होकर मुझे रसातलसे जलके बाहर लाये थे ।। 34 ।। इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने धराधर नाम पाया था, आज वही आप | वीरमूर्तिसे जलके ऊपर नौकाके समान स्थित मेरे ही आश्रय रहनेवाली प्रजाकी रक्षा करनेके अभिप्रायसे पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देनेके अपराधमें मुझे मारना चाहते हैं ॥ 35 ॥ इस त्रिगुणात्मक सृष्टिकी रचना करनेवाली आपकी मायासे मेरे-जैसे साधारण जीवोंके चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ जैसे लोग तो आपके भक्तोंकी लीलाओंका भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रियाका उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अतः जो इन्द्रिय-संयमादिके द्वारा वीरोचित यज्ञका विस्तार करते हैं, । ऐसे आपके भक्तोंको भी नमस्कार है ॥ 36 ॥