श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी महाराज पृथुके निन्यानबे यज्ञोंसे यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुको भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्रके सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा ।। 1 ।।
श्रीभगवान् ने कहा- राजन्! (इन्द्रने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करनेके सङ्कल्पमें विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो ॥ 2 ॥ नरदेव। जो श्रेष्ठ मानव साधु और सदबुद्धिसम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवोंसे द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही | आत्मा नहीं है ॥ 3 ॥ यदि तुम जैसे लोग भी मेरी मायासे मोहित हो जायँ, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनोंतककी हुई ज्ञानीजनों की सेवासे केवल श्रम ही हाथ लगा ॥ 4 ॥ ज्ञानवान् पुरुष इस शरीरको अविद्या, वासना और कमका ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता ॥ 5 ॥ इस प्रकार जो इस शरीरमें ही आसक्त नहीं है, वह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदिमें भी किस प्रकार ममता रख सकता है ॥ 6 ॥
यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणोंका आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मासे रहित है; अतएव शरीरसे भिन्न है ॥ 7 ॥ जो पुरुष इस देहस्थित आत्माको इस प्रकार शरीरसे भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणोंसे लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मामें रहती है ॥ 8 ॥ राजन् । जो पुरुष किसी प्रकारकी कामना न रखकर अपने वर्णाश्रमके धर्मोद्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो • जाता है ॥ 9 ॥ चित्त शुद्ध होनेपर उसका विषयोंसे सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है ॥ 10 ॥ जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मनका साक्षी होनेपर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ll 11 llराजन् ! गुणप्रवाहरूप आवागमन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास-इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन लिङ्गशरीरका ही हुआ करता है, | इसका सर्वसाक्षी आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होनेपर कभी हर्ष-शोकादि विकारोंके वशीभूत नहीं होते ।। 12 ।। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषोंमें समानभाव रखकर सुख-दुःखको भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियोंको जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषोकी सहायतासे सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करो ।। 13 ।। राजाका कल्याण प्रजापालनमें ही है। इससे उसे परलोकमें प्रजाके पुण्यका छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजाकी रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदलेमें उसे प्रजाके पापका भागी होना पड़ता है ॥ 14 ॥ ऐसा विचारकर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सम्मति और पूर्व | परम्परासे प्राप्त हुए धर्मको ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वीका न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनोंमें तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धोंके दर्शन होंगे 15 राजन् तुम्हारे गुणने और स्वभावने मुझको वशमें कर लिया है। अतः तुम्हें जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणोंसे रहित यज्ञ, तप अथवा योगके द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्होंक हृदयमें रहता हूँ जिनके चित्तमें समता रहती है ।। 16 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी। सर्वलोकगुरु श्रीहरिके इस प्रकार कहनेपर जगद्विजयी महाराज पृथुने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की ।। 17 ।। देवराज इन्द्र अपने कर्मसे लक्षित होकर उनके चरणोंपर गिरना ही चाहते थे कि जाने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदयसे लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया ।। 18 ।। फिर महाराज पृथुने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान्का पूजन किया और क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव निम होकर प्रभुके चरणकमल पकड़ लिये ।। 19 ।। श्रीहरि वहाँसे जाना चाहते थे, किन्तु पृथुके प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदलके समान नेत्रोसे उनकी ओर देखते ही रह गये, बहाँसे जान सके ॥ 20 ॥आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रोंमें जल भर आनेके कारण न तो भगवान्का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जानेसे कुछ बोल हो सके उन्हें हृदयसे 1 आलिङ्गन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये ॥ 21 ॥ प्रभु अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीको स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुडजीके ऊंचे कंधेपर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रोंके आँसू पोछकर अतृप्त दृष्टिसे उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे ।। 22 ।।
महाराज पृथु बोले- मोक्षपति प्रभो! आप वर देनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको भी वर देनेमें समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियोंके भोगने योग्य विषयोंको कैसे माँग सकता है ? वे तो नारकी जीवोंको भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयोंको आपसे नहीं माँगता ।। 23 ।। मुझे तो उस मोक्षपदकी भी इच्छा नहीं है जिसमें महापुरुषोंके हृदयसे उनके मुखद्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलोंका मकरन्द नहीं है— जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुननेका सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलगुणों को सुनता ही रहूँ 24 ॥ पुण्यकीर्ति प्रभो। आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत को लेकर महापुरुषोंके मुखसे जो वायु निकलती है, उसीमें इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्वको भूले हुए हम कुयोगियोंको पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरोंकी कोई आवश्यकता नहीं है ॥ 25 ॥ उत्तम कीर्तिवाले प्रभो । सत्सङ्गमे आपके मङ्गलमय सुयशको दैववश एक बार भी सुन लेनेपर कोई पशुबुद्धि पुरुष भले ही तुम हो जाय गुणजी उसे कैसे छोड़ सकता है ? सब प्रकारके पुरुषार्थोंकी सिद्धिके लिये स्वयं लक्ष्मीजी भी आपके सुयशको सुनना चाहती है ।। 26 ।। अब लक्ष्मीजीके समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकतासे आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तमकी सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पतिकी सेवा प्राप्त करनेकी होड़ होनेके कारण आपके चरणोंमें ही मनको एकाग्र करनेवाले हम दोनोंमें कलह छिड़ जाय ॥ 27 ॥जगदीश्वर जगजननी लक्ष्मीजीके हृदयमें मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्यमें उनका अनुराग है, उसीके लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दोनोंपर दया करते हैं, उनके तुच्छ कमको भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे | झगड़े भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मीजीसे भी क्या लेना है ॥ 28 ॥ इसीसे निष्काम महात्मा ज्ञान हो जानेके बाद भी | आपका भजन करते हैं। आपमें मायाके कार्य अहङ्कारादिका सर्वथा अभाव है। भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलोका निरन्तर चिन्तन करनेके सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता ।। 29 ।। मैं भी बिना किसी इच्छाके आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि 'वर माँग' सो आपकी इस वाणीको तो मैं संसारको मोहमें डालनेवाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणीने भी तो जगत्को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सीसे लोग बंधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते ? ॥ 30 ॥ प्रभो ! आपकी मायासे ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादिकी इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्रकी प्रार्थनाकी अपेक्षा न रखकर अपने आप ही पुत्रका कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छाकी अपेक्षा न करके हमारे हितके लिये स्वयं ही प्रयत्न करें ।। 31 ।
श्रीमैत्रेजी कहते हैं- आदिराज पृथुके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वसाक्षी श्रीहरिने उनसे कहा, 'राजन् तुम्हारी मुझमें भक्ति हो। बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होनेपर तो पुरुष सहज ही मेरी उस मायाको पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानीसे मेरी आज्ञाका पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश ! जो पुरुष मेरी आज्ञाका | पालन करता है, उसका सर्वत्र मङ्गल होता है ॥ 32-33 ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी इस प्रकार | भगवान्ने राजर्षि पृथुके सारगर्भित वचनोंका आदर किया। फिर पृथुने उनकी पूजा की और प्रभु उनपर सब प्रकार कृपा | कर वहाँसे चलने को तैयार हुए ।। 34 ।। महाराज पृथुने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अपारा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकारके प्राणी एवं भगवान्के पार्षद आये थे, उन सभीका भगवदबुद्धिसेभक्तिपूर्वक वाणी और धनके द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।। 35-36 ॥ भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितोंका चित्त चुराते हुए अपने धामको सिधारे ॥ 37 ॥ तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान्को नमस्कार करके राजा | पृथु भी अपनी राजधानीमें चले आये ॥ 38॥