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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 12, अध्याय 8 - Skand 12, Adhyay 8

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मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति

शौनकजीने कहा – साधुशिरोमणि सूतजी ! आप आयुष्मान् हो। सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्नका उत्तर दीजिये ॥ 1 ॥ लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलयने सारे जगत्‌को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ॥ 2 ॥ परन्तु सूतजी ! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है || 3 || ऐसी स्थितिमें यह बात कैसे सत्य हो सकती हैं कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्रमें डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका दर्शन किया ॥ 4 ॥सूतजी ! हमारे मनमें बड़ा सन्देह है और इस बातको | जाननेकी बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकोंमें सम्मानित हैं। आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये ॥ 5 ॥

सूतजीने कहा -शौनकजी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान् नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ॥ 6 ॥ शौनकजी ! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे ॥ 7 ॥ उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था। शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ॥ 8 ॥ काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश -यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतकी पूर्तिके लिये ही ग्रहण किया था । वे सायङ्काल और प्रातः काल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस पूजा और 'मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ' इस प्रकारकी भावना आदिके द्वारा भगवान्‌की आराधना करते ॥ 9 ॥ सायं प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेवके चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते ॥ 10 ॥ मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियोंके | लिये भी कठिन है ॥ 11 ॥ मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा, भृगु, शङ्कर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ 12 ॥ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्रेशोंको मिटाकर शुद्ध अन्तःकरणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे ॥ 13 ॥ योगी मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्‌के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय — छः 8 मन्वन्तर व्यतीत हो गये ।। 14 ।।ब्रह्मन् ! इस सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना आरम्भ कर दिया ।। 15 ।।

शौनकजी ! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विन डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मदको भेजा ॥ 16 ॥ भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है ॥ 17 ॥ शौनकजी ! | मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते है ॥ 18 ॥ कहीं मतवाले भौरे अपनी सङ्गीतमयी गुंजारसे लोगोंका मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पञ्चम स्वरमें 'कुहू कुहू' कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियोंका झुंड खेलता | रहता है । 19 ॥ मार्कण्डेय मुनिके ऐसे पवित्र आश्रममें इन्द्रके भेजे हुए वायुने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनोंकी नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पोंका आलिङ्गन किया और फिर कामभावको उत्तेजित करते हुए धरि-धरि बहने लगा ॥ 20 ॥ कामदेवके प्यारे सखा वसन्तने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्याका समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणोंका विस्तार कर रहे थे। सहस्र - सहस्र | डालियोंवाले वृक्ष लताओंका आलिङ्गन पाकर घरतीतक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलोंके गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे ।। 21 । वसन्तका साम्राज्य देखकर कामदेवने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड के झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएं चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथमें पुष्पोंका धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे ।। 22 ।।उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान्‌की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों उनको देखनेसे ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा ॥ 23 ॥ अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदङ्ग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वरमें बजाने लगे ॥ 24 ॥ शौनकजी! अब कामदेवने अपने पुष्पनिर्मित धनुषपर पञ्चमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख हैं— शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगानेकी ताक में था, उस समय इन्द्रके सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनिका मन विचलित करनेके लिये प्रयत्नशील थे ॥ 25 ॥ उनके सामने ही पुञ्जिकस्थली नामकी सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनोंके भारसे बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियोंमें गुथे हुए सुन्दर सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर भरतीपर गिरती जा रही थीं ।। 26 ।। कभी-कभी वह तिरछी चितवनसे इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंदके साथ आकाशकी ओर जाते, कभी धरतीकी ओर और कभी हथेलियोंकी ओर वह बड़े हाव-भाव के साथ गेंदकी ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वागुने उसकी झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दिया ॥ 27 ॥ कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषों के प्रयत्न विफल हो जाते हैं ।। 28 शौनकजी मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते है ।। 29 ।। शौनकजी । इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रतीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहङ्कारका भाव न हुआ। सच है, | महापुरुषोंके लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ 30 ॥जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी सेनाके साथ निस्तेज - हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रह्मर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ll 31 ll

शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवानमें चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान् नारायण प्रकट हुए ॥ 32 ॥ उन दोनों में एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्षकी छाल । हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ॥ 33 ॥ कमलगट्टे की माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान् नर-नारायण कुछ ऊंचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीर से चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो 34 जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ 35 ॥ भगवान्‌के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियों एवं अन्तःकरण शान्तिके समुद्र में गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। आंसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ।। 36 ।। तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनका अङ्ग अङ्ग भगवान् के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी मानो वे भगवान्‌का आलिङ्गन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा— 'नमस्कार ! नमस्कार || 37 || इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे ll 38 ll भगवान् नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की ॥ 39 ॥ मार्कण्डेय मुनिने कहा-भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों - ब्रह्मा, शङ्कर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका संचार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं ॥ 40 ॥ प्रभो ! आपने केवल विश्वको रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य कर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दुःख निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं ।। 41 ।। आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ॥ 42 प्रभो! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित - केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्थामे आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख शान्तिका उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं 43 भगवन्! आप समस्त जीवोंके परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप है। इसलिये आत्मस्वरूपको ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थोंको त्याग कर मैं आपके चरणकमलोकी ही शरण ग्रहण करता हूँ। | कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है ।। 44 ।।जीवोंके परम सुहृद् प्रभो! यद्यपि सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं— इन्हींके द्वारा आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवोंको शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियोंसे जीवोंको शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दुःख, मोह और भयकी वृद्धि ही होती है ।। 45 ।। भगवन्! इसलिये बुद्धिमान् पुरुष आपकी और आपके भक्तोंकी परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर नारायणकी ही उपासना करते हैं। पाञ्चरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते 46 ॥ भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ ॥ 47 ॥ आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान है तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकी लक्षित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्‌के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है ॥ 48 ॥ प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यल करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध नही है। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ।। 49 ।।

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा