सूतजी कहते हैं - इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोहसे
हुए भयभीत हो गये। फिर सब धर्मोका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने कुरुक्षेत्रकी यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्यापर पड़े हुए थे ॥ 1 ॥ शौनकादि ऋषियो ! उस समय उन सब भाइयोंने स्वर्णजटित रथोंपर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिरका अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ॥ 2 ॥ शौनकजी ! अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण भी रथपर चढ़कर चले। उन सब भाइयोंके साथ महाराज युधिष्ठिरकी ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षोंसे घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ।। 3 ॥ अपने अनुचरों और भगवान् श्रीकृष्णके साथ वहाँ जाकर पाण्डवोंने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्गसे गिरे हुए देवताके समान पृथ्वीपर पड़े हुए हैं। उन लोगोंने उन्हें प्रणाम किया || 4 || शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियोंके गौरवरूप भीष्मपितामहको देखनेके लिये सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ॥ 5 ॥ पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान् व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्योंके साथ परशुरामजी,वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान् गौतम, अत्रि विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अङ्गिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ॥ 6-8 ॥ भीष्मपितामह धर्मको और देश-कालके विभागको–कहाँ | किस समय क्या करना चाहिये, इस बातको जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियोंको सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ 9 ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीलासे मनुष्यका वेष धारण करके यहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वरके रूपमें हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णकी बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ।। 10 ।।
पाण्डव बड़े विनय और प्रेमके साथ भीष्मपितामहके पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा- ॥ 11 ॥ 'धर्मपुत्रो ! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको ब्राह्मण, धर्म और भगवान्के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ 12 ॥ अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगोंके लिये कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट | झेलने पड़े ॥ 13 ॥ जिस प्रकार बादल वायुके वशमें रहते हैं, वैसे ही लोकपालोंके सहित सारा संसार कालभगवान्के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगोंके जीवनमें ये जो अप्रिय घटनाएं घटित हुई है, वे सब उन्होंकी लीला हैं ।। 14 ।। नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, | गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षाका काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हो—भला, वहाँ भी विपत्तिकी सम्भावना है ? 15 ये कालरूप श्रीकृष्ण कल क्या करना चाहते हैं, इस बातको कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।। 16 ।। युधिष्ठिर । संसारकी वे सब घटनाएँ ईश्वरेच्छाके अधीन है। उसीका अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजाका पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करनेमें समर्थ हो 17 ॥ ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् है। ये सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी मायासे लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला कर रहे हैं।। 18 ।।इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर । उसे भगवान् शङ्कर, देव नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं ।। 19 । जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हि मानते हो तथा तुमने प्रेमव अपना मन्त्री, दूत और सारथितक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा है॥ 20 ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहसहित और पत्न ऊँचे-नीचे कार्यक कारण कभी किसी प्रकार की विपमता नहीं होती ॥ 21 ॥ युधिष्ठिर। इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी, देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ।। 22 ।। भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं ॥ 23 ॥ ये ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगोंको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जबतक में इस शरीरका त्याग न कर दूँ ।। 24 ।।
सूतजी कहते हैं- युधिष्ठिरने उनकी यह बात सुनकर शर-शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामहसे बहुत से ऋषियोंके सामने ही नाना प्रकारके धर्मकि सम्बन्धमें अनेकों रहस्य पूछे ।। 25 ।। तब तत्त्ववेत्ता भीष्मपितामहने वर्ण और आश्रमके अनुसार पुरुषके स्वाभाविक धर्म और | वैराग्य तथा रागके कारण विभिन्नरूपसे बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्मइन सबका अलग अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया। शौनकजी । इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थका तथा इनकी प्राप्तिके साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया ।। 26-28 ॥ भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुंचा, जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ॥ 29 ॥उस समय हजारों रथियोंके नेता भीष्मपितामहने वाणीका संयम करके मनको सब ओरसे हटाकर अपने सामने | स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया। भगवान् श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं ॥ 30 ॥ उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी, | वह तो भगवान् के दर्शनमात्रसे ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान्की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़नेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्ति-विलासको रोक दिया और | बड़े प्रेमसे भगवान्की स्तुति की ।। 31 ।।
भीष्मजी ने कहा- अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी बिहार करनेकी लीला करने की इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ 32 ॥ जिनका शरीर त्रिभुवन सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्य-रश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन ससा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो । 33 ॥ मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छवि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुंघराले बाल घोड़ोंकी टापको धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जाये ।। 34 ।। अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव सेना और कौरव सेना के बीचमें अपना रथ से आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसला भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो । 35 ॥ अर्जुनने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोको देखा, तब पाप | समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमे मेरी प्रीति बनी रहे ।। 36 ।।मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ेगा, उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे | इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी | काँपने लगी ।। 37 ।। मुझे आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी और दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हो— आश्रय हों ॥ 38 ॥ अर्जुनके रथकी रक्षामें सावधान जिन श्रीकृष्णके बायें हाथमें घोड़ो की रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनों की शोभासे उस समय जिनको अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्णमें मुझे मरणासन्नकी परम प्रीति हो ।। 39 ।। जिनकी लटकोली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्मादसे मतवाली होकर जिनकी लीलाओंका अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा परम प्रेम हो ॥ 40 ॥ जिस समय युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामं सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं ।। 41 ।। जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूप से जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं। ही उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्णको में भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया है ।। 42 ।
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामहने मन, वाणी और दृष्टिकी वृत्तियोंसे आतास्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में अपने आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ।। 43 । उन्हें अनन्त ब्रामें लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है ।। 44 ।।उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे । साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ।। 45 ।। शौनकजी ! युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये ॥ 46 ॥ उस समय | मुनियोंने बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णकी उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयोंको श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये ॥ 47 ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर | हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारीको ढाढस बँधाया ॥ 48 ॥ फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ 49 ॥