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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 1, अध्याय 18 - Skand 1, Adhyay 18

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राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप

सूतजी कहते हैं अद्भुत कर्मा भगवान् श्रीकृ कृपासे राजा परीक्षित् अपनी माताकी कोखमें अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल जानेपर भी मरे नहीं ।। 1 ।। जिस समय ब्राह्मणके शापसे उन्हें इसनेके लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशके महान् भयसे भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में समर्पित कर रखा था ॥ 2 ॥ उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातटपर जाकर श्रीशुकदेव नसे उपदेश महण किया और इस प्रकार भगवान्के स्वरूपको जानकर अपने शरीरको त्याग दिया ॥ जो लोग भगवान् श्रीकृष्णको लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृतका पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनोंके द्वारा उनके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकालमें भी मोह नहीं होता ॥ 4 ॥ जबतक पृथ्वीपर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित सम्राट् रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुगका कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ 5 ॥ वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ 6 ॥ भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि है पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते है, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्रसे नहीं ॥ 7 ॥ यह भेड़ियेके समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषोंके लिये बड़ा भी है। यह प्रमादी मनुष्यको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ 8 ॥ शैनकादि आपका युक्त राजा परीक्षित्का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगोंने यही पूछा था ॥ 9 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत -सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषोको उन सबका सेवन करना चाहिये ।। 10 ।।

ऋषियोंने कहा- सौम्यस्वभाव सूतजी आप युग-युग जीये, क्योंकि मृत्यु प्रवाह पड़े हुए हमलोगों को आप भगवान् श्रीकृष्णकी अमृतमयी उज्ज्वल कीर्तिका श्रवण कराते हैं ।। 11 ।।यश करते-करते उसके भूसे हमलोगोंका शरीर भूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्मका कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमानमें ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरण कमलोंका मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ 12 ॥ भगवत्-प्रेमी भक्तोंके लवमात्रके सत्सङ्गसे स्वर्ग एवं मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्योंके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ 13 ॥ ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषोंके एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्णकी लीला-कथाओंसे तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणांसे अतीत भगवान्‌के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणोंका पार तो ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ॥ 14 ॥ विद्वन्! आप भगवान्को ही अपने जीवनका ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्‌के उदार और विशुद्ध चरित्रोंका हम श्रद्धालु श्रोताओंके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ।। 15 ।। भगवान्के परम प्रेमी | महाबुद्धि परीक्षित्ने श्रीशुकदेवजीके उपदेश किये हुए जिस ज्ञानसे मोक्षस्वरूप भगवान्‌के चरणकमलोको प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित्के परम पवित्र उपाख्यानका वर्णन कीजिये, क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेमकी अद्भुत योगनिष्ठाका निरूपण किया गया होगा। उसमें पद-पदपर भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंका वर्णन हुआ होगा। भगवान्के प्यारे भक्तोंको वैसा प्रसङ्ग सुननेमें बड़ा रस मिलता है ।। 16-17 ।।

सूतजी कहते हैं— अहो विलोम जातिमें उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्र से ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ 18 फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्का नाम लेते हैं। भगवान्की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त है। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ 19 ॥भगवान्‌के गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रहादि देवताओंको छोड़कर भगवान्‌के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ॥ 20 ॥ ब्रह्माजीने भगवान्के चरणोंका प्रक्षालन करनेके लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखोंसे निकलकर गङ्गाजीके रूपमें प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत्‌को पवित्र करता है। ऐसी अवस्थामै त्रिभुवनमें श्रीकृष्णके अतिरिक्त 'भगवान्' शब्दका दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ 21 ॥ जिनके प्रेमको प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचकके | देह-गेह आदिकी दृढ़ आसक्तिको छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस आश्रमको स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओरसे उपशान्त हो जाना हो स्वधर्म होता है ॥ 22 ॥ सूर्यके समान प्रकाशमान महात्माओ ! आपलोगोंने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझके अनुसार सुनाता हूँ जैसे पक्षी अपनी शक्तिके अनुसार आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान्लोग भी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही श्रीकृष्णकी लीलाका वर्णन करते हैं॥ 23 ॥

एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी ॥ 24 ॥ जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके | ही एक ऋषिके आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ | आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ॥ 25 ॥ इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे ॥ 26 ॥ उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था। राजा परीक्षितूने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा रहा था ॥ 27 ॥ जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा-अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलती तब अपनेको - अपमानित सा मानकर वे क्रोधके वश हो गये ll28llशौनकजी! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलियें एकाएक -उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवनमें इस प्रकारका यह पहला ही अवसर था ॥ 29 ॥ वहाँसे लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप उठाकर -ऋषिके गलेमें डाल दिया और अपनी राजधानीमें चले. आये ॥ 30 ॥ उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधिका ढोंग रच रखा है ।। 31 ।।

उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारोंके साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा- ॥ 32 ॥ ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओंके समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं। ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्तेके समान अपने स्वामीका ही तिरस्कार करते हैं ।। 33 ।। ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घरमें घुसकर | स्वामीके बर्तनोंमें खानेका उसे अधिकार नहीं है ।। 34 ।। अतएव उन्मार्गगामियोंके शासक भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालोंको आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो' ।। 35 ।। अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमारने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्रका प्रयोग किया ।। 36 ।। कुलाङ्गार परीक्षितने मेरे पिताका अपमान | करके मर्यादाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा' ॥ 37 ॥

इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।। 38 ।। विप्रवर शौनकजी । शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ।। 39 ।। उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा - 'बेटा!

तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?' उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ll 40 llमहर्षि शमीकने राजाके शापकी बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शपके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा- 'ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया। खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ 41 ॥ तेरी बुद्धि अभी कधी है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।। 42 ।। जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान् पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ 43 ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते। हैं ॥ 44 ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचारयुक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ 45 ॥ सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर है। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान्‌के परम प्यारे भक्त है: वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य | कदापि नहीं है ।। 46 ।। इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान् कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ 47 ॥ भगवान्के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए हुए. अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते ॥ 48 महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षितने जो उनका अपमान किया था उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ।। 49 ।। महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्रोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्पित या व्यथित नहीं होते | आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ॥ 50 ॥

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन