जडभरतने कहा- राजन्। तुम अज्ञानी होनेपर भी पण्डितोंके समान ऊपर-ऊपरकी तर्क-वितर्कयुक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियोंमें तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी सेवक आदि व्यवहारको तत्त्वविचारके समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते ॥ 1 ॥ लौकिक व्यवहारके समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञविधिके विस्तारमें ही व्यस्त हैं, राग द्वेषादि दोषोंसे रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानकी पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है ॥ 2 ॥ जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्रके समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है ॥ 3 ॥ जबतक मनुष्यका मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुणके वशीभूत रहता है, तबतक वह बिना किसी अङ्कुशके उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंसे शुभाशुभ कर्म कराता रहता है ॥ 4 ॥ यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणोंसे प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओंमें मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामोंसे देवता और मनुष्यादिरूप धारण करके शरीररूप उपाधियोंके भेदसे जीवकी उत्तमता और अधमताका कारण होता है ॥ 5 ॥ यह मायामय मन संसारचक्रमे छलनेवाला है, यही अपनी देहके अभिमानी जीवसे मिलकर उसे कालक्रमसे प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलोकी अभिव्यक्ति करता है ॥ 6 ॥ जबतक यह मन रहता है, तभीतक जाग्रत् और स्वप्नावस्थाका व्यवहार | प्रकाशित होकर जीवका दृश्य बनता है। इसलिये | पण्डितजन मनको ही त्रिगुणमय अधम संसारका और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्षपदका कारण बताते हैं ॥ 7 ॥विषयासक्त मन जीवको संसार-सङ्कटमें डाल देता है, विषवहीन होनेपर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है। जिस | प्रकार पीसे भीगी हुई बलीको खानेवाले दीपकसे तो धुवाल शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नितत्त्वमें लीन हो जाता है उसी प्रकार विषय और कर्मोंसे आसक्त हुआ मन तरह-तरहकी वृत्तियोंका आश्रय | लिये रहता है और इनसे मुक्त होनेपर वह अपने तत्वमें लीन हो जाता है ॥ 8 ॥
वीरवर । पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहङ्कार—ये ग्यारह मनकी वृत्तियाँ है तथा पाँच प्रकारके कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं।। 9 ॥ गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय हैं, मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार-ये पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषय हैं तथा शरीरको 'यह मेरा है' इस प्रकार स्वीकार करना अहङ्कारका विषय है। कुछ लोग अहङ्कारको | मनकी बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीरको बारहवाँ विषय मानते हैं ॥ 10 ये मनकी ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), | स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और कालके द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदोंमें परिणत हो जाती है किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्माकी सत्तासे ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है ॥ 11 ऐसा होनेपर भी मनसे क्षेत्रज्ञका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीवको ही मायानिर्मित उपाधि है। यह प्रायः संसारबन्धनमें डालनेवाले अविशुद्ध कम हो प्रवृत रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूपसे नित्य हो रहती है, और स्वप्रके समय वे प्रकट हो जाती है और सुषुप्तिमें छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओंमें क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मनकी इन वृत्तियोको साक्षीरूपसे देखता रहता है।। 12॥
यह क्षेत्र परमात्मा सर्वव्यापक जगत्का आदि कारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष स्वयंप्रकाश, अजमा, ब्रह्मादिका भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली मायाके द्वारा सबके अन्तःकरणोंमें रहकर जोनोको प्रेरित करनेवाला समस्त भूतोंका आश्रयरूप भगवान् वासुदेव है ॥ 13 ॥ जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम] प्राणियो प्राणरूपसे प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी प्रकार | आत्मस्वरूपसे इस सम्पूर्ण पणे ओतप्रोत है ॥ 14 ॥राजन् ! जबतक मनुष्य ज्ञानोदयकें द्वारा इस मायाका तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम क्रोधादि छः शत्रुओंको जीतकर आत्मतत्त्वको नहीं जान लेता और जबतक वह आत्माके उपाधिरूप मनको संसार दुःखका क्षेत्र नहीं समझता, तबतक वह इस लोकमें यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदिके संस्कार तथा ममताकी वृद्धि करता रहता है । 15-16 ॥ यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करनेसे इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूपको आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरिके चरणोंकी उपासनाके अस्त्रसे इसे मार डालो || 17 ॥