श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है— "कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ॥ 1 ॥ राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक न एक दिन मर जायेंगे, फिर भी वे र्व्यथमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। | सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ।। 2 ।। वे सोचते हैं कि 'हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे - अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रुके मन्त्रियों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे विजय मार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे || 3 || इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्यकी खाईंका काम करेगा।' इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है 4 यहाँतक नहीं, जब एक द्वीप उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको इन्द्रियोंको वश करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं. परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है ॥ 5 ॥ परीक्षित् पृथ्वी कहती है कि 'बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं ।। 6 ।। जिनके चित्तमे यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़ बैठते हैं ॥ 7 ॥वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि 'ओ मूढ़ ! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं, इस प्रकार राजा लोग एक दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्द्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरेको मारते है और स्वयं मर मिटते हैं ॥ 8 ॥ पृथु, पुरुरवा, गाधि नहुष, भरत, सहस्त्रबाहु अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर और बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन् ! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरणसे मुझसे ममता की और समझा कि 'यह पृथ्वी मेरी है'। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ।। 9-13 ॥
परीक्षित् संसारमे बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ॥ 14 ॥ भगवान् श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमङ्गलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य निरन्तर भगवान्के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ।। 15 ।
राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! मुझे तो कलियुगमें राशि राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म, कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये 16-17 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! सत्ययुगमें
धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है ॥ 18 ॥ सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दुःख आदि इन्द्रोको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप स्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ॥ 19 ॥ परीक्षित्! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं-असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थीश क्षीण हो जाता है ॥ 20 ॥ राजन् ! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते है। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं ॥ 21 ॥ द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष- अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारों चरण–तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ॥ 22 ॥ उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगों के कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है ॥ 23 ॥ कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थीशका भी लोग हो जाता है ।। 24 ।। कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा तृष्णाकी तरङ्गमें बहते रहते हैं। उस समय अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ॥ 25 ॥
सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ॥ 26 ॥ जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती है, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्यज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ॥ 27 ॥ है जिस समय मनुष्योकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती है बुद्धिमान् परीक्षित् । समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है॥ 28 ॥ जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ।। 29 ।। जिस समय झूठ कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण प्रधान कलियुग समझना चाहिये ॥ 30 ॥ जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ॥ 31 ॥ सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं। और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं ॥ 32 ॥ ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी - अर्थपिशाच हो जाते हैं ।। 33 ।। स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल मर्यादाका उल्लङ्घन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है— छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी है बहुत बढ़ जाता है ॥ 34 ॥ व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ीसे लिपटे रहते और छदाम | छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या आपत्तिकाल न होनेपर तथा धनी होनेपर भी वे निम्नश्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं ॥ 35 ॥स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवकलोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं, । और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ।। 36 ॥
प्रिय परीक्षित् ! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं ॥ 37 ॥ शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊंचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते है ।। 38 ।। प्रिय परीक्षित् कलियुगकी प्रजा सूखा पड़नेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकोंकी कर वृद्धि प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपञ्जर और मनमें केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण रक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ॥ 39 ॥ कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटको ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी, पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वञ्चित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती है 40 कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियोंके लिये | आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके सद्भाव तथा मित्रताको तिलाञ्जलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं 41 ॥ परीक्षित् कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरनेकी थुनमें ही लगे रहते हैं । पुत्र अपने बूढ़े मा-बापकी भी रक्षा नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने -पालन-पोषण निपुण से निपुण, सब कामोंमें योग्य पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ।। 42 ।।जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये । प्यारे परीक्षित् ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ॥ 50 ॥ परीक्षित् ! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है । वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका सङ्कीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 51 ॥ सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ॥ 52 ॥