श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! राजा विदर्भकी भोज्या नामक पत्नीसे तीन पुत्र हुए — कुश, क्रथ और रोमपाद रोमपाद विदर्भवंशमें बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए ॥ 1 ॥रोमपादका पुत्र बभ्रु, बभ्रुका कृति, कृतिका उशिक और उशिकका चेदि । राजन्! इस चेदिके वंशमे ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए ॥ 2 ॥ क्रथका पुत्र हुआ कुन्ति कुन्तिका धृष्टि, धृष्टिका निर्वृति, निर्वृतिका दशाह और. दशार्हका व्योम ॥ 3 ॥
व्योमका जीमूत, जीमूतका विकृति, विकृतिका भीमरथ, भीमरथका नवरथ और नवरथका दशरथ हुआ ॥ 4 ॥ दशरथसे शकुनि, शकुनिसे करम्भ, करम्भि देवरात, देवरातसे देवक्षत्र, देवक्षत्रसे मधु, मधुसे कुरुवश और कुरुवशसे अनु हुए5॥ अनुसे पुरुहोत्र, लोक्सो आयु और आयुसे सात्वतका जन्म हुआ। परीक्षित्! सात्वतके सात पुत्र हुए— भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज । भजमानकी दो पत्त्रियाँ यो एकसे तीन पुत्र हुए निम्लोपि किङ्किण और भृष्टि दूसरी पत्नीसे भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्राजित् और अयुताजित् 6-8 ॥
देवावृधके पुत्रका नाम था व देवावृध और बभ्रुके सम्बन्धमें यह बात कही जाती है— 'हमने दूरसे जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकटसे देखते भी है ॥ 9 ॥
वधु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओके समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृधसे | उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पदको प्राप्त कर चुके हैं।' सात्वतके पुत्रोंमें महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसीके वंशमें भोजवंशी यादव हुए ।। 10-11 ॥
परीक्षित् वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजितके शिनि और अनमित्र – ये दो पुत्र थे। अनमित्रसे निनका जन्म हुआ ॥ 12 ॥सत्राजित् और प्रसेन नामसे प्रसिद्ध यदुवंशी निनके ही पुत्र थे। अनमित्रका एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि ।
शिनिसे ही सत्यकका जन्म हुआ ।। 13 ।।
इसी के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकिके नामसे प्रसिद्ध हुए। सात्यकिका जय, जयका कुणि और कुणिका पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्रके तीसरे पुत्रका नाम वृष्णि था। वृष्णिके दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ । श्वफल्ककी पत्नीका नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूरके अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए आसङ्ग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु । इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा । अकूर के दो पुत्र थे देववान् और उपदेव फल्कके भाई चित्ररथके पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र -से हुए जो वृष्णिवंशियोंमे श्रेष्ठ माने जाते हैं ।। 14-18 ।।
सालत के पुत्र अन्धकके चार पुत्र हुए कुकुर भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुरका पुत्र वह्नि, वहिका विलोमा, विलोमाका कपोतरोमा और | कपोतरोमाका अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्वके साथ अनुकी बड़ी मित्रता थी। अनुका पुत्र अन्धक, अन्धकका दुन्दुभि, दुन्दुभिका अरिद्योत अरिद्योतका पुनर्वसु और पुनर्वसुके आहुक नामका एक पुत्र तथा आहुकी नामकी एक कन्या हुई। आहुकके दो पुत्र हुए— देवक और उग्रसेन । | देवकके चार पुत्र हुए। 19-21 ।।
देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं—धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा,
देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेवजीने इन सबके
साथ विवाह किया था ।। 22-23 ।।उग्रसेनके नौ लड़के थे कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कडू, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ॥ 24 ॥ कङ्का, उपसेनके पाँच कन्याएँ भी थीं कंसा, कंसवती, कहा शूरभू और राष्ट्रपालिका इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजीके छोटे भाइयोंसे हुआ था ॥ 25 ॥
चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान, भजमानसे शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए ।। 26 ।। हृदीकसे तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा देवमीढके पुत्र शूरकी पत्रीका नाम था मारिया ।। 27 ।। उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये - वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे अतः वे 'आनकदुन्दुभि' भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदिको पाँच बहने भी थीं— पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे कुन्तिभोज कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ।। 28-31 ॥ |
पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे | देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या प्रभावको परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया ।। 32 ।। उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा- 'भगवन्! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्या प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं' ॥ 33 ॥ सूर्यदेवने कहा- 'देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी। अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हां, अवश्य ही तुम्हारी योनि दुषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूंगा ॥ 34 ॥यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखनेमें दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था ॥ 35 ॥ पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःखसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित् । उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ।। 36 ।।
परीक्षित् । पृथाकी छोटी बहिन श्रुतदेवाका विवाह करूप देशके अधिपति वृद्धशर्मासे हुआ था। उसके गर्भसे दन्तवक्त्रका जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्ममें सनकादि ऋषियोंके शापसे हिरण्याक्ष हुआ था ॥ 37 ॥ केकय देशके राजा धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिसे विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए ।। 38 ।। राजाधिदेवीका विवाह जयसेनसे हुआ था। उसके दो पुत्र हुए -विन्द और अनुविन्द । वे दोनों ही अवन्तीके राजा हुए। चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया ।। 39 ।। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चुका हूँ। वसुदेवजीके भाइयोंमेंसे देवभागकी पत्नी कंसाके गर्भसे दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और — बृहद्वल ॥ 40 ॥ | देवश्रवाकी पत्नी कंसवतीसे सुवीर और इषुमान् नामके दो पुत्र हुए। आनककी पत्नी कङ्काके गर्भसे भी दो पुत्र हुए सत्यजित् और पुरुजित् ॥ 41 ॥ सृञ्जयने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिकाके गर्भसे वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामकने शूरभूमि (शूरभू) नामकी पत्नीसे हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ।। 42 ।। मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे वत्सकके भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृकने दुर्वाक्षीके गर्भसे तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ 43 ॥ शमीककी पत्नी सुदामिनीने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कङ्ककी पत्नी कर्णिकाके गर्भसे दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय ॥ 44 ll
आनकदुन्दुभि वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पलियाँ थीं ।। 45 ।। रोहिणीके गर्भसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ।। 46 ।।पौरवीके गर्भसे उनके बारह पुत्र हुए—भूत, सुखद, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि ।। 47 ।। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिराके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कौसल्याने एक ही वंश उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी ॥ 48 ॥ उसने रोचनासे हस्त और | हेमाङ्गद आदि तथा इलासे उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रोंको जन्म दिया ॥ 49 ॥ परीक्षित्! वसुदेवजीके धृतदेवाके गर्भसे विपृष्ठ नामका एक ही पुत्र | हुआ और शान्तिदेवासे श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए ॥ 50 ॥ उपदेवाके पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए ॥ 51 ॥ देवरक्षिता गर्भसे गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्मने आठ वसुओंको उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजीने सहदेवाके गर्भसे पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेवजीने देवकीके गर्भसे भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सातके नाम हैं— कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ॥ 52 - 54 ॥ उन दोनोंके आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित् ! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजीकी ही कन्या थीं ॥ 55 ॥
जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ॥ 56 ॥ परीक्षित्! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तवमें असङ्ग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है ॥ 57 ॥ उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त है ॥ 58 ॥ जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े बड़े देवता मनसे अनुमान भी नहीं कर सकते - शरीरसे करनेकी बात तो अलग रही ।। 59-60 ॥पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवान्ने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे ।। 61 ।। उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कानकी अञ्जलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मको वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ।। 62 ।। परीक्षित्! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सुजय और पण्टुवेशी बीर निरन्तर भगवानकी लीलाओ आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ।। 63 ।। उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्गसुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ।। 64 ।। भगवान्के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे उनको आभासे कपोलोका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़ सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दिता तो होते ही, परन्तु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ॥ 65 ॥ लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरामै वसुदेवजीके घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन – जो ग्वाल, गोपी और गौओको सुखी करना था पूरा करके मथुरा लौट आये जमें, मधुरा तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी बियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ॥ 66 ॥ कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपस के कलहसे उन्होंने पृथ्वी बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अशीतिषियोंको ध्वंस करके संसार अर्जुनको जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्भवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धामको सिधार गये || 67 ||