श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- महादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दशसे अपमानित होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसको यज्ञवेदीसे प्रकट हुए ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ ॥ 1 ॥ उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोधके मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली - जो बिजली और आगकी लपटके समान दीप्त हो रही थी और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहासके साथ उसे पृथ्वीपर पटक दिया ॥ 2 ॥ उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्गको स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघके समान श्यामवर्ण था, सूर्यके समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्निको ज्वालाओंके समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डों की माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र थे ॥ 3 ॥ जब उसने हाथ जोड़कर पूछा, 'भगवन् ! मैं क्या करूँ ?' तो भगवान् भूतनाथने कहा- 'वीर रुद्र ! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदोंका अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञको नष्ट कर दे 4 ॥
प्यारे विदुरजी जब देवाधिदेव भगवान् शङ्कर क्रोधमें भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलनेको तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेगका सामना करनेवाला संसारमे कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीरका भी वेग सहन कर सकता हूँ ॥ 5 वे भयङ्कर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथमें लेकर दक्षके यज्ञमण्डपकी ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसारसंहारक मृत्युका भी संहार करनेमें समर्थ था। भगवान् रुद्रके और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्रके पैरोंके नूपुरादि आभूषण झनन झनन बजते जाते थे ॥ 6 ॥
इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियोंने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- 'अरे यह अंधेरा-सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँसे छा गयी ? ॥ 7 ॥इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियोंको कठोर दण्ड देनेवाला राजा प्राचीनवर्हि अभी जीवित है। अभी गौओके | आनेका समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँसे आयो ? क्या इसी समय संसारका प्रलय तो नहीं होनेवाला है ?' ॥ 8 ॥ तव दक्षपत्त्री प्रसूति एवं अन्य स्त्रियोंने व्याकुल होकर कहा-प्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने बेचारी निरपराधा सतीका तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पापका फल, है ॥ 9 ॥ (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्रके अनादरका ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जिस समय वे अपने जटाजूटको बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित अपनी भुजाओंको ध्वजाओंके | समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूलके फलोंसे दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जनके समान भयङ्कर अट्टहासे दिशाएँ विदीर्ण हो | जाती हैं ॥ 10 ॥ उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौहें टेडी करनेके कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ोंसे तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोधमें भरे हुए भगवान् शङ्करको बार-बार कुपित करनेवाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है ? ॥ 11 ॥ जो लोग महात्मा दक्षके यज्ञमें बैठे थे, वे भयके कारण
एक-दूसरेकी और कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह तरहकी बातें कर रहे थे कि इतने ही आकाश और पृथ्वीमें सब ओर सहलो भयङ्कर उत्पात होने लगे ॥ 12 ॥ विदुरजी ! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डपको सब ओरसे घेर लिया। वे सब तरह | तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंगके, कोई पीले और कोई मगरके समान पेट और मुखवाले थे ।। 13 ।। उनमेंसे किन्होंने प्राग्वंश (यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिम के बीच में आड़े रखे हुए डे) को तोड़ डाला, किन्होंने यज्ञशाला पश्चिमकी ओर स्थित पीशालाको नष्ट कर दिया, किन्होंने यज्ञशालाके सामनेका सभामण्डप और मण्डपके आगे उत्तरकी ओर स्थित आग्नीधशालाको तोड़ दिया, किन्होंने यजमानगृह और पाकशालाको तहस-नहस कर डाला ।। 14 ।।किन्होंने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्होंने अशियोंको बुझा दिया, किन्होंने यज्ञकुण्डोंमें पेशाब कर दिया और किन्होंने बेटीकी सीमाके सूत्रों को तोड़ डाला ॥ 15॥ कोई-कोई मुनियोंको तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्होंने अपने पास होकर भागते हुए देवताओंको पकड़ लिया 16 ॥ मणिमान्ने भृगु ऋषिको बाँध लिया, वीरभइने प्रजापति दक्षको कैद कर लिया तथा चण्डीशने पुषाको और नन्दीश्वरने भग देवताको पकड़ लिया ॥ 17 ॥
भगवान् शङ्करके पार्षदोंकी यह भयङ्कर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरोंकी मारसे बहुत तंग आकर वहाँ जितने | ऋत्विज्, सदस्य और देवतालोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये ॥ 18 ॥ भृगुजी हाथमें स्स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दादी-नोच लीं क्योंकि इन्होंने प्रजापतियोंकी सभामें छे ऐसे हर महादेवजीका उपहास किया था । 19 । उन्होंने क्रोध भरकर भगदेवताको पृथ्वीस पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभामें श्रीमहादेवजीको बुरा भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्षको सैन देकर उकसाया था ॥ 20 ॥ इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धके विवाहके समय बलरामजी कलिके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषाके दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने महादेवजीको गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे ॥ 21 ॥ फिर वे दक्षको छातीपर बैठकर एक तेज तलवारसे उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रसन्न करनेपर भी वे उस समय उसे घड़ अलग न कर सके 22 || जब किसी भी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दक्षकी त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देरतक विचार करते रहे ।। 23 ।। तब उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओंको जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशुका सिर धड़से अलग कर दिया ॥ 24 ॥ यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्मको प्रशंसा करते हुए 'वाह-वाह करने लगे और दक्षके दलवालोंमें हाहाकार मच गया ॥ 25 ॥ वीरभद्रने अत्यन्त कुपित होकर दक्षके सिरको यज्ञकी दक्षिणाग्निमें डाल दिया और उस यज्ञशालामें आग लगाकर | यज्ञको विध्वंस करके वे कैलासपर्वतको लौट गये ॥ 26 ॥