राजा परीक्षित्ने कहा - भगवन् ! वृत्रासुरका स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओंको कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थितिमें भगवान् नारायणके चरणोंमें उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? ॥ 1 ॥ हम देखते हैं कि प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान्की परम प्रेममयी अनन्य भक्तिसे वञ्चित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान्की भक्ति बड़ी दुर्लभ है ॥ 2 ॥ भगवन्! इस जगत्के प्राणी पृथ्वीके धूलिकणोंके समान ही असंख्य हैं। उनमेंसे कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याणकी चेष्टा करते हैं ॥ 3 ॥ ब्रह्मन् ! उनमें भी संसारसे मुक्ति चाहनेवाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारोंमें मुक्ति या | सिद्धि लाभ तो कोई सा ही कर पाता है ॥ 4 ॥ महामुने ! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषोंमें भी वैसे शान्तचित्त महापुरुषका मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो ॥ 5 ॥
ऐसी अवस्थामें वह वृत्रासुर, जो सब लोगोंको सताता था और बड़ा पापी था, उस भयङ्कर युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीकृष्णमें अपनी वृत्तियोंको इस प्रकार दृढ़तासे लगा सका — इसका क्या कारण है ? ॥ 6 ॥ प्रभो ! इस विषय में हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुननेका बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुरका बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमिमें देवराज इन्द्रको भी सन्तुष्ट कर दिया ॥ 7 ॥
सूतजी कहते हैं. शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शुकदेवजीने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित्का यह श्रेष्ठ |प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ॥ 8 ॥श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम सावधान
होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यासजी देवर्षि नारद और महादेवलके मुँह भी विधिपूर्वक सुना है ॥ 9 ॥ प्राचीन कालकी बात है, शूरसेन देशमें चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्यमें पृथ्वी स्वयं ही प्रजाकी इच्छा अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी ॥ 10 ॥ उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करनेमें समर्थ भी थे। परन्तु उन्हें उनमेंसे किसीके भी गर्मसे कोई सन्तान न हुई ॥ 11 ॥ यों महाराज चित्रकेतुको किसी बातकी कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणोंसे वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी ॥ 12 ॥ वे सारी पृथ्वीके एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वशमें थी। सब प्रकारको सम्पत्तियाँ उनकी सेवामें उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं ॥ 13 ॥ एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अङ्गिरा ऋषि स्वच्छन्दरूपसे विभिन्न लोकोंमें विचरते हुए राजा चित्रकेतुके महलमें पहुँच गये 14 ॥ राजाने प्रत्युत्थान और अर्घ्य आदिसे | उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य सत्कार हो जानेके बाद जब अङ्गिरा ऋषि सुखपूर्वक आसनपर विराज गये, तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभावसे उनके पास ही बैठ गये ।। 15 ।। महाराज महर्षि अङ्गिराने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वीपर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतुको सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही ।। 16 ।।
अङ्गिरा ऋषिने कहा- राजन् ! तुम अपनी प्रकृतियों—गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्रके साथ सकुशल तो हो न ? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणोंसे घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियोंसे घिरा रहता है। उनके कुशलसे हो राजाकी कुशल है 17 ॥ नरेन्द्र जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियोंके अनुकूल रहनेपर ही राज्यसुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियां भी अपनी रक्षाका भार राजापर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर | सकती है ।। 18 ।।राजन् तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मत्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वशमें तो हैं न ? ॥ 19 ॥ सी बात तो यह है कि जिसका मन अपने वशमें है, उसके ये सभी वशमें होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानीसे उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं ॥ 20 ॥ परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सन्तुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँहपर किसी आन्तरिक चिन्ताके चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोषका कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो ? ॥ 21 ॥ परीक्षित् | महर्षि अङ्गिरा यह जानते थे कि राजाके मनमें किस बातकी चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ताके सम्बन्धमें अनेको प्रश्न पूछे चित्रकेतुको सन्तानकी कामना थी। अतः महर्षिक पूछनेपर उन्होंने विनयसे झुककर निवेदन किया ।। 22 ।।
सम्राट् चित्रकेतुने कहा- भगवन्! जिन योगियोंके तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं— उनके लिये प्राणियोंके बाहर या भीतरकी ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों | 23 | ऐसा होनेपर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर | मुझसे मेरे मनकी चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणासे अपनी चिन्ता आपके चरणोंमें निवेदन करता हूँ ॥ 24 ॥ मुझे पृथ्वीका साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। | परन्तु सन्तान न होनेके कारण मुझे इन सुखभोगोंसे उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणीको अन्न-जलके सिवा दूसरे भोगोंसे 25 ॥ महाभाग्यवान् महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न | मिलने की आशङ्कासे मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोकमें प्राप्त होनेवाले घोर नरकसे उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोकके सब दुःखोंसे छुटकारा पा लूँ ॥ 26 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जब राजा चित्रकेतुने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परम कृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अङ्गिराने त्वष्टा देवताके योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया ।। 27 ।। परीक्षित् राजा चित्रकेतुकी रानियोंमें सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अङ्गने उन्हींको यज्ञका अवशेष प्रसाद दिया ॥ 28 ॥और राजा चित्रकेतुसे कहा- 'राजन् तुम्हारी पत्नीके गर्भसे एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।' यो कहकर अङ्गिरा ऋषि चले गये ।। 29 । उस यज्ञावशेष प्रसादके खानेसे ही महारानी कृतद्युतिने महाराज चित्रकेतुके द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृतिकाने अपने गर्भमें अग्निकुमारको धारण किया था ॥ 30 ॥ राजन् ! शूरसेन देशके राजा चित्रकेतुके तेजसे कृतद्युतिका गर्भ शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान दिनोंदिन क्रमशः बढ़ने लगा ॥ 31 ॥
तदनन्तर समय आनेपर महारानी कृतद्युतिके गर्भसे एक सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। उसके जन्मका समाचार पाकर शूरसेन देशकी प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई ।। 32 ।। सम्राट् चित्रकेतुके आनन्दका तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो, ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्रका जातकर्म संस्कार करवाया ।। 33 ।। उन्होंने उन ब्राह्मणोंको सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं ॥ 34 ॥ उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतुने पुत्रके धन, यश और आयुकी वृद्धिके लिये दूसरे लोगोंको भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दो — ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवोंका मनोरथ पूर्ण करता है ॥ 35 ॥ परीक्षित्! जैसे यदि किसी कंगालको बड़ी कठिनाईसे कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाईसे प्राप्त हुए उस पुत्रमें राजर्षि चित्रकेतुका स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा 36 माता कृतद्युतिको भी अपने पुत्रपर मोहके कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियोंके मनमें पुत्रकी कामनासे और भी जलन होने लगी ।। 37 ।। प्रतिदिन बालकका लाड़-प्यार करते रहनेके कारण सम्राट् चित्रकेतुका जितना प्रेम बच्चेकी माँ कृतद्युतिमें था, उतना दूसरी रानियोंमें न रहा ।। 38 ।। इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होनेके कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतुने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः वे डाहसे अपनेको धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं ॥। 39 ।।वे आपसमें कहने लगीं—‘अरी बहिनो ! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्रवाली सौतें तो दासीके समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, यं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कारके योग्य है ॥ 40 ॥ भला, दासियोंको क्या दुःख है ? वे तो अपने स्वामीकी सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती है। परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही है और दासियोंकी दासीके समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं ॥ 41 ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौतकी गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओरसे उदासीन हो गये थे। फलतः उनके मनमें कृतद्युतिके प्रति बहुत अधिक द्वेष हो गया ॥ 42 ॥ द्वेषके कारण रानियोंकी बुद्धि मारी गयी। उनके चित्तमें क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतुका पुत्र स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने विकर नन्हेसे राजकुमारको विष दे दिया ।। 43 ।। महारानी कृतधुतिको सोतोंकी इस घोर पापमवी करतूतका कुछ भी पता न था। उन्होंने दूरसे देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महलमें इधर-उधर डोलती रहीं ॥ 44 ॥ बुद्धिमती रानीने यह देखकर कि बच्चा बहुत देरसे सो रहा है, घायसे कहा -कल्याण मेरे लालको ले आ' ॥ 45 ॥ घायने सोते हुए बालकके पास जाकर देखा कि उसकी पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्माने भी उसके शरीरसे विदा ले ली है। यह देखते ही 'हाय रे ! मैं मारी गयी!' इस प्रकार कहकर वह धरतीपर गिर पड़ी ॥ 46 ॥
अपने दोनों हाथोंसे छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वरमें जोर-जोरसे रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतयुति जल्दी-जल्दी अपने पुत्रके शयनगृहमें पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् | मर गया है ! 47 ॥ तब वे अत्यन्त शोकके कारण मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उनके सिरके बाल बिखर गये और शरीरपरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये ॥ 48 तदनन्तर महारानीका रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोनेका ढोंग करने लगीं ।। 49 ।।जब राजा चित्रकेतुको पता लगा कि मेरे पुत्रकी अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेहके कारण शोकके आवेंगसे उनकी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणोंके साथ मार्गमें गिरते पड़ते मृत बालकके पास पहुँचे और मूर्छित होकर उसके पैरोंके पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओंकी अधिकतासे उनका गला रुँध गया और वे कुछ भी बोल न सके ।। 50-51 पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतुको अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हे से बच्चेको मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये 52 ॥ महारानीके नेत्रोंसे इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखोका अंजन लेकर केसर और चन्दनसे चर्चित वक्षःस्थलको भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पुत्रके लिये कुररी पक्षीके समान उच्चस्वरमें विविध प्रकारसे विलाप कर रही थीं ll 53 ll
वे कहने लगीं- 'अरे विधाता! सचमुच तू बड़ा मूर्त है, जो अपनी सृष्टिके प्रतिकूल चेष्टा करता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायें। यदि वास्तवमें तेरे स्वभावमें ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवोंका अमर शत्रु है 54 ॥ यदि संसारमें प्राणियोके जीवन मरणका कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्धके अनुसार जन्मते मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियोंमें स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टिको बढ़ायें ? परन्तु तू इस प्रकार बच्चोंको मारकर अपने किये-करायेपर अपने हाथों पानी फेर रहा है' ॥ 55 फिर वे अपने मृत पुत्रकी ओर देखकर कहने लगीं- 'बेटा! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ। मुझे छोड़कर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोगमें कितने शोक सन्तप्त हो रहे हैं। बेटा! जिस घोर नरकको निःसन्तान पुरुष बड़ी कठिनाईसे पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अनायास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा ! तुम इस यमराजके साथ दूर मत जाओ। यह तो बड़ा ही निर्दयी है ।। 56 ।।मेरे प्यारे लल्ला ! ओ राजकुमार ! उठो ! बेटा ! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलनेके लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी । उठो, कुछ खा लो। और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हमलोगोंका शोक दूर | करो ॥ 57 ॥ प्यारे लाल ! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्दपर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्दभरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय ! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है। क्या सचमुच निठुर यमराज तुम्हें उस परलोकमें ले गया, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता? ॥ 58 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् ! जब सम्राट् चित्रकेतुने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पुत्रके लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब वे शोकसे अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे ॥ 59 ॥ राजा रानीके इस प्रकार विलाप करनेपर उनके अनुगामी स्त्री पुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर ही शोकसे अचेत-सा हो गया ॥ 60 ॥ राजन् ! महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारदने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोकके कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँतक कि उन्हें समझानेवाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ आये ।। 61 ।।