श्रीमैत्रेयजी कहते है- उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब | कृपालु कर्दम मुनिको भगवान् विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ॥ 1 ॥
कर्दमजी बोले- दोषरहित राजकुमारी तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमे अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ॥ 2 ॥ प्रिये ! | तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अतः | तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्का भजन करो ।। 3 ।। इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका | उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहङ्कारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे ll 4 ll
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी ॥ 5 ॥ इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान् मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ से अग्नि ॥ 6 ॥ उस समय आकाशमे मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर | नाचने लगीं ॥ 7 ॥ आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये ॥ 8 ॥ इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रम में मरोधि आदि मुनियोंके संहित श्रीब्रह्माजी आये ॥ 9 ॥ शत्रुदमन विदुरजी ! स्वतःसिद्ध ज्ञानसे सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध | सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ 10 ॥अतः भगवान् जिस कार्यको करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चितसे अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजीसे इस प्रकार कहा ।। 11 ।। श्रीब्रह्माजीने कहा—प्रिय कर्दम ! तुम दूसरोंको मान देनेवाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट भावसे मेरी पूजा सम्पन्न हुई है ॥ 12 ॥ पुत्रोंको अपने पिताकी सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेशको स्वीकार करें ॥ 13 ॥ बेटा ! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी | कन्याएँ अपने वंशद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी ।। 14 । अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरोंको इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ || 15 || मुने ! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं—उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमायासे कपिलके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ 16 ॥ [ फिर देवहूतिसे बोले- ] राजकुमारी सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलाङ्कित चरणकमलोंवाले शिशुके रूपमें कैटभासुरको मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोकी वासनाओंका मूलोच्छेदन करनेके लिये तेरे गर्भ प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियोंको काटकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरेंगे 17-18 ॥ ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचायोंकि भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और 'कपिल' नामसे विख्यात होंगे ।। 19 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरी जगत्को सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनोंको इस प्रकार आश्वासन | देकर नारद और सनकादिको साथ ले, हंसपर चढ़कर ब्रहालोकको चले गये ॥ 20 ॥ ब्रह्माजीके चले जानेपर कर्दमजीने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियोंके साथ अपनी कन्याओंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया ॥ 21 ॥ उन्होंने अपनी कला नामकी कन्या मरीचिको अनसूख अत्रिको, श्रद्धा अङ्गिराको और | रवि पुलस्त्यको समर्पित की ॥ 22 ॥पुलहको उनके अनुरूप गति नामकी कन्या दी, क्रतुके साथ परम साध्वी क्रियाका विवाह किया, भृगुजीको ख्याति और वसिष्ठजीको अरुन्धती समर्पित की ॥ 23 ॥ अथर्वा ऋषिको शान्ति नामकी कन्या दी, जिससे यज्ञकर्मका विस्तार किया जाता है। कर्दमजीने उन विवाहित ऋषियोंका उनकी पत्नियोंके सहित खूब सत्कार किया ।। 24 ।। विदुरजी ! इस प्रकार विवाह हो जानेपर वे सब ऋषि कर्दमजीकी आज्ञा ले अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमोंको चले गये ।। 25 ।।
कर्दमजीने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरिने ही अवतार लिया है, तो वे एकान्तमें उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे ॥ 26 ॥ 'अहो! अपने पापकर्मक कारण इस दुःखमय संसारमें नाना प्रकारसे पीडित होते हुए पुरुषोंपर देवगण तो बहुत काल बीतनेपर प्रसन्न होते हैं ॥ 27 ॥ किन्तु जिनके स्वरूपको योगिजन अनेकों जन्मकि साधनसे सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधिके द्वारा एकान्तमें देखनेका प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तोंकी रक्षा करनेवाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपोंके द्वारा होनेवाली अपनी अवज्ञाका कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं ।। 28-29 ।। आप वास्तवमें अपने भक्तोंका मान बढ़ानेवाले हैं। आपने अपने वचनोको सत्य करने और सांख्ययोगका उपदेश करनेके लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है ॥ 30 भगवन्। आप प्राकृतरूपसे रहित हैं, | आपके जो चतुर्भुज आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य है तथा जो मनुष्य सदृश रूप आपके भक्तोंको प्रिय लगते हैं, ये भी आपको रुचिकर प्रतीत होते है ॥ 31 ॥ आपका पाद पीठ तत्त्वज्ञानकी इच्छासे विद्वानोंद्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्री — इन छहों ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ।। 32 भगवन्! आप परब्रह्म है; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहङ्कार, समस्त लोक एवं लोकपालोके रूपमें आप ही प्रकट है तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपञ्चको चेतनशक्तिके द्वारा अपनेमें लीन कर लेते हैं। अतः इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान् कपिलकी शरण लेता हूँ ॥ 33 ॥ प्रभो ! आपकी कृपासे मैं तीनों ऋणोंसे मुक्त हो गया हूँ। और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्गको ग्रहणकर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूंगा। आप समस्त प्रजाओंके स्वामी हैं, अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ ।। 34 ।।
श्रीभगवान्ने कहा- मुने! वैदिक और लौकिक | सभी कर्मी संसारके लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि 'मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा', उसे सत्य करनेके लिये ही मैंने यह अवतार लिया है ।। 35 ।। इस लोकमें मेरा यह जन्म लिङ्गशरीरसे मुक्त होनेकी इच्छावाले मुनियोंके लिये आत्मदर्शनमें उपयोगी प्रकृति आदि तत्वका विवेचन करनेके लिये ही हुआ है ॥ 36 ॥ आत्मज्ञानका यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिरसे प्रवर्तित करनेके लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है ऐसा जानो ॥ 37 ॥ मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, इस जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्युको जीतकर मोक्षपद प्राप्त करनेके लिये मेरा भजन करो ।। 38 ।। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवोंके अन्तःकरणोंमें रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकारके शोकोंसे छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे ॥ 39 ॥ माता देवहूतिको भी मैं सम्पूर्ण कानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भवसे पार हो जायगी ।। 40 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवान् कपिलके इस प्रकार कहनेपर प्रजापति कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये ॥ 41 ॥ वहाँ अहिंसामय संन्यास धर्मका पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान्की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रमका त्याग करके निःसङ्गभावसे पृथ्वीपर विचरने लगे ।। 42 ।। जो कार्यकारणसे अतीत है, सत्त्वादि गुणोंका प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्तिसे ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्ममें उन्होंने अपना मन लगा दिया ।। 43 ।। वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे छूटकर समदर्शी (भेददृष्टिसे रहित) हो, सबमें अपने आत्माको हो देखने लगे। उनको बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दमजी शान्त लहरोंवाले समुद्रके समान जान पड़ने लगे ।। 44 ।।परम भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त स्थिर हो जानेसे वे सारे बन्धनोंसे मुक्त हो गये ॥ 45 ॥ सम्पूर्ण भूतोंमें अपने आत्मा श्रीभगवान्को और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मस्वरूप श्रीहरिमें स्थित देखने लगे ॥ 46 ॥ इस प्रकार इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्तिसे सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजीने भगवान्का परमपद प्राप्त कर लिया ।। 47 ।।