श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! भगवान् सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियोंकी वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराजके बिना हथिनियोंकी होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वालासे जलने लगा ॥ 1 ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी मदोन्मत्त गजराजकी-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकारको लीलाओं तथा शृङ्गार रसकी भाव-भङ्गियोंने उनके चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गया | और फिर श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगी || 2 || अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल ढाल, हास-विलास और चितवन- बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भङ्गी उतर आयी। वे अपनेको सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण स्वरूप हो गयीं और उन्होंके लीला-विलासका अनुकरण करतीहुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ इस प्रकार कहने लगीं ॥ 3 वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगी और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे वनमें, एक झाड़ीसे दूसरी झाड़ीमें जा-जाकर श्रीकृष्णको ढूंढने लगीं। परीक्षित् । भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाशके समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हींमें थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से पेड़-पौधोंसे उनका पता पूछने लगीं ॥ 4 ॥ (गोपियोंने पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा ) हे
पीपल, पाकर और बरगद ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे हमारा मन चुराकर चले गये. हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है ? ॥ 5 ॥ कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा ! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी मुसकानमात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर आये थे क्या ?' ।। 6 ।। (अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा) 'बहिन तुलसी ! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवान्के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौरोंके मैडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है ? ॥ 7 ॥ प्यारी मालती ! मल्लिके ! जाती और जूही ! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करोंसे स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधर गये हैं?' ॥ 8 ॥ रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो ! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही है। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो' ॥ 9 ॥ भगवान्की प्रेयसी पृथ्वीदेवी! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे भर रही हो और तृण-लता आदिके रूपमें अपना रोमाञ्च प्रकट कर रही हो ? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्शके कारण है। अथवा वामनावतारमें विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है? कहीं उनसे भी पहले वराह भगवान् के अङ्गसङ्गके कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही हे ?' ।। 10 ।। 'अरी सखी हरिनियो हमारे श्यामसुन्दरके अङ्ग सङ्गसे सुषमा सौन्दर्यकी धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रियाके साथ तुम्हारे नयनोको परमानन्दका दान करते हुए इधरसे ही तो नहीं गये है? देखो, देखो, यहाँकुलपति श्रीकष्णकी कुन्दकलीकी मालाकी मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रयेसीके अङ्ग-सङ्गसे लगे। कुङ्कमसे अनुरञ्जित रहती है' ॥ 11 ॥ 'तरुवरो! उनकी मालाकी तुलसीमें ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्धके लोभी मतवाले भौरे प्रत्येक क्षण उसपर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथमें लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसीके कंधेपर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी वन्दनाका अभिनन्दन किया है या नहीं ?' ॥ 12 ॥ 'अरी सखी ! इन लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको भुजपाशमें बाँधकर आलिङ्गन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ ? इनके शरीरमें जो पुलक है, रोमाञ्च है, वह तो भगवान्के नखोंके स्पर्शसे ही है। अहो ! इनका कैसा सौभाग्य है ?' ॥ 13 ॥
परीक्षित् ! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान् की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगी ॥ 14 ॥ एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर | उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयी, तो किसीने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैरकी ठोकर मारकर उलट | दिया 15 ॥ कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनोंके बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन रुनझुन बोलने लगे ॥ 16 ॥ एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालोंके रूपमें हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियोंने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको मारनेकी लीला की ॥ 17 ॥ जैसे श्रीकृष्ण वनमें करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ 'वाह-वाह' करके उसकी प्रशंसा करने लगीं ॥ 18 ॥ एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखीके गलेमें बाँह डालकर चलती और गोपियोंसे कहने लगती – 'मित्रो! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो' ॥ 19 ॥ कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती- 'अरे व्रजवासियो ! तुम आँधी-पानीसे मत डरो। मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है।' ऐसा कहकर गोवर्धन-धारणका अनुकरण हुई वह अपनी ओढ़नी उठाकर ऊपर तान लेती ॥ 20 ॥परीक्षित्! एक गोपी बनी कालिय नाग तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिरपर पैर रखकर बड़ी-बड़ी बोलने लगी — रे दुष्ट साँप ! तू यहाँसे चला जा। मैं दुष्टोंका दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ 21 ॥ इतनेमें ही एक गोपी बोली- 'अरे ग्वालो! देखो, वनमें बड़ी भयङ्कर | आग लगी है। तुमलोग जल्दी से जल्दी अपनी आंखे मूंद लो, मैं अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर लूंगा' ॥ 22 ॥ | एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण यशोदाने फूलोंकी मालासे श्रीकृष्णको ऊखलमें बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथोंसे मुँह ढँककर भयकी नकल करने लगी ll 23 ll
परीक्षित्! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावनके वृक्ष और लता आदि फिर भी श्रीकृष्णका पता पूछने लगी। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्के चरणचिह्न देखे ॥ 24 ॥ वे आपसमें कहने लगी 'अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन | श्यामसुन्दरके है; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, य, अदा और जो आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं ॥ 25 ॥ उन चरणचिह्नोंके द्वारा व्रजवल्लभ भगवान्को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं, तब उन्हें श्रीकृष्णके साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपसमें कहने लगीं- ॥ 26 ॥ 'जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलनेवाली किस बड़भागिनीके ये चरणचिह्न हैं ? ॥ 27 ॥ अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी यह 'आराधिका' होगी। | इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दरने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्तमें ले गये हैं॥ 28 ॥ प्यारी सखियो ! भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं। क्योंकि ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं' ॥ 29 ॥ 'अरी सखी! चाहे कुछ भी हो-यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्णको एकान्तमें ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधाका रस पी रही है, इस गोपीके उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदयमें बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे है' ।। 30 ।। यहाँ उस गोपीके पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दरने देखा होगा कि मेरी प्रेयसीके सुकुमार चरणकमलोंमें घासकी नोक गड़ती होगी इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधेपर चढ़ा लिया होगा ||31||सखियो। यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्णके चरणचिह्न अधिक गहरे बालूमें धंसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि वहाँ वे किसी भारी वस्तुको उठाकर चले हैं, उसीके बोझसे उनके फै जमीनमें धंस गये हैं। हो न हो यहाँ उस कामीने अपनी प्रियतमाको अवश्य कंधेपर चढ़ाया होगा ।। 32 ।। देखो-देखो यहाँ परमप्रेमी व्रजवल्लभने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसीको नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसीके लिये फूल चुने हैं। उचक-उचककर फूल तोड़नेके कारण यहाँ उनके पंजे तो धरतीमें गड़े हुए हैं और एड़ीका पता ही नहीं है ॥ 33 ॥ परम प्रेमी श्रीकृष्णने कामी पुरुषके समान यहाँ अपनी प्रेयसीके केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलोंको प्रेयसीकी चोटीमें गूंथनेके लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे 34 ॥ परीक्षित् । भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें कामकी कल्पना कैसे हो सकती है? फिर भी उन्होंने कामियोंकी दीनता- स्त्रीपरवशता और स्त्रियोंकी कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपीके साथ एकान्तमें क्रीडा की थी— एक खेल रचा था ॥ 35 ॥
इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध लोकर एक दूसरेको भगवान् श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं। इधर भगवान् श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको वनमें छोड़कर जिस भाग्यवती गोपीको एकान्तमें ले गये थे, उसने समझा कि मैं ही समस्त गोपियोंमें श्रेष्ठ है। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती है, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं 36-37 भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शङ्करके भी शासक हैं। वह गोपी वनमें जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मदसे मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्णसे कहने लगीं— 'प्यारे ! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधेपर चढ़ाकर ले चलो' ॥ 38 ॥ अपनी प्रियतमाकी यह बात सुनकर श्यामसुन्दरने कहा- 'अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधेपर चढ़ लो।' यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंथेपर चढ़ने चली, त्यो हो श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह 'सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी ॥ 39 ॥ हा नाथ! हा रमण ! हा प्रेष्ठ हा महाभुज ! तुम कहाँ हो ! कहाँ हो !! मेरे सखा मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो' ॥ 40 परीक्षित् गोपियाँ भगवान्के चरणचिह्नों के सहारे उनके जानेका मार्ग ढूँढ़ती ढूँढ़ती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूरसे ही उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग दुखी होकर अचेतहो गयी है ॥ 41 ॥ जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान् श्रीकृष्णसे उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि 'मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसीसे वे अन्तर्धान हो गये।' उसकी बात सुनकर गोपियोंके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ 42 ॥
इसके बाद वनमें जहाँतक चन्द्रदेवकी चाँदनी छिटक रही थी, वहाँतक वे उन्हें ढूँढ़ती हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है—घोर जंगल है— हम ढूँढ़ती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अंदर घुस जायँगे, तब वे उधरसे लौट आयीं ॥ 43 ॥ परीक्षित् ! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता ? ॥ 44 ॥ गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकाङ्क्षा कर रहा था कि जल्दी-से जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावनामें डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजीके पावन पुलिनपर - रमणरेतीमें लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्णके गुणोंका गान करने लगीं ॥ 45 ॥