भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्भव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्रका निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन कालके बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धिमूलक सुख-दुःखादिरूप भ्रमका तत्काल त्याग कर देता है ॥ 1 ॥ युगोंसे पूर्व प्रलयकालमें आदिसत्ययुगमें और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओंमें यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकारके भेदभावसे रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ 2 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्ममें किसी प्रकारका विकल्प नहीं है, वह केवल — अद्वितीय सत्य है; मन और वाणीकी उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीवके रूपमें— दृश्य और द्रष्टाके रूपमें दो भागोंमें विभक्त-सा हो गया ॥ 3 ॥ उनमेंसे एक वस्तुको प्रकृति कहते हैं। उसीने जगत्में कार्य और कारणका रूप धारण किया है। दूसरी वस्तुको, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ 4 ॥ उद्धवजी! मैंने ही जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मो के अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ 5 ॥उनसे क्रिया शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्वमें विकार होनेपर अहङ्कार व्यक्त हुआ । यह अहङ्कार ही जीवोंको मोहमें डालनेवाला है ॥ 6 ॥ वह तीन प्रकारका है— सात्त्विक, राजस और तामस अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मनका कारण है; इसलिये वह जड-चेतन उभयात्मक है ॥ 7 ॥ तामस अहङ्कारसे पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पांच भूतोकी उत्पत्ति हुई तथा राजस अहङ्कारसे इन्द्रियाँ और सात्विक अहङ्कारसे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता * प्रकट हुए ॥ 8 ॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणासे एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ।। 9 ।। जब वह अण्ड जलमें स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूपसे इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभिसे विश्वकमलको उत्पत्ति हुई। उसपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ ॥ 10 ॥ विश्वसमष्टिके अन्तःकरण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भूः भुवः स्वः अर्थात् पृथ्वी अन्तरिक्ष और स्वर्ग-इन तीन लोकोंकी और इनके लोकपालोंकी रचना की ।। 11 ।। देवताओंके निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादिके लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदिके लिये भूलोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकोंसे ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धों के निवासस्थान हुए । 12 ॥ सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिये पृथ्वीके नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकोंमें त्रिगुणात्मक कमौके अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ 13 ॥ योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महलोंक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परम धाम मिलता। है || 14 | यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारोंसे युक्त है। मैं ही कालरूपसे कर्मोंक अनुसार उनके फलका विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्चगति प्राप्त हो जाती है ।। 15 ।। जगत्में छोटे-बड़े, मोटे-पतले- जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनोंके संयोग ही सिद्ध होते है ।। 16 ।।जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वहीं सत्य है। विकार तो केवल व्यवहारके लिये की कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोनेके विकार और पड़े सकोरे आदि मिट्टीके विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बादमें भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अतः बीचमें भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारणको उपादान बनाकर अपर ( अहंकार आदि) कार्य वर्गको सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी | परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्यक आदि और अन्तमें विद्यमान रहता है, वही सत्य है ॥ 17-18 ॥ इस प्रपञ्चका उपादान कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला काल है। व्यवहार-कालकी यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ ॥ 19 ॥ जबतक परमात्माकी ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जबतक उनकी पालन- प्रवृत्ति बनी रहती है, तबतक जीवोंके कर्मभोगके लिये कारण-कार्यरूपसे अथवा पिता-पुत्रादिके रूपसे यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ 20 ॥
यह विराट् ही विविध लोकोंकी सृष्टि, स्थिति और संहारको लीलाभूमि है। जब मैं कालरूपसे इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलयका संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनोंके साथ विनाशरूप विभागके योग्य हो जाता है ।। 21 ।। उसके लीन होनेकी प्रक्रिया यह है कि प्राणियोंके शरीर अनमें, अन बीजमें, बीज भूमिमें और भूमि गन्ध तन्मात्रामें लीन हो जाती है ।। 22 ।। गन्ध जलमें, जल अपने गुण रसमें, रस तेजमें और तेज रूपमें लीन हो जाता है ॥ 23 ॥ रूप वायुमें, वायु स्पर्शम, स्पर्श आकाशमें तथा आकाश शब्दतमात्रामें लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओंगे और अन्ततः 1 | राजस अहङ्कारमें समा जाती हैं ॥ 24 ॥ हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मनमें, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतोंके कारण तामस अहङ्कारमें और सारे जगत्को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्वमें | लीन हो जाता है ।। 25 ।। ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणोंमें लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी कालमें लीन हो जाती है ।। 26 ।। काल मायामय जीवमें और जीव मुझ अजन्मा आत्मामें लीन हो जाता है। आत्मा किसीमें लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है। वह जगत्को सृष्टि और लयका अधिष्ठान एवं अवधि है ॥ 27 ॥उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टिसे देखता है, उसके चित्तमें यह प्रपञ्चका भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय तो वह अधिक कालतक हृदयमें ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होनेपर भी आकाशमें अन्धकार ठहर सकता है ॥ 28 ॥ उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनोंका ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टिसे प्रलय और प्रलयसे सृष्टितककी सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देहकी गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है ॥ 29 ॥