श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्। परिमाण और लक्षणोंके सहित इस भूमण्डलका कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया ॥ 1 ॥ इसीके अनुसार विद्वान्लोग द्युलोकका भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना मटर | आदिके दो दलोंमेंसे एकका स्वरूप जान लेनेसे दूसरेका भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोकके परिमाणसे ही द्युलोकका भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीचमें अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनोंका सन्धिस्थान है ॥ 2 ॥ | इसके मध्यभागमें स्थित ग्रह और नक्षत्रोंके अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाशसे तीनों लोकोंको तपाते | और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नामवाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियोंसे चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियोंमें ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन रातको बड़ा, छोटा या समान करते हैं || 3 || जब सूर्यभगवान् मेष या तुला राशिपर आतेहैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियोंमें चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियोंमें एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाबसे दिन बढ़ते जाते | हैं ॥ 4 ॥ जब वृश्चिकादि पाँच राशियोंमें चलते हैं, तब दिन और रात्रियोंमें इसके विपरीत परिवर्तन होता है ॥ 5 ॥ इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होनेतक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगनेतक रात्रियाँ ॥ 6 ॥
इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वतपर सूर्यको परिक्रमाका मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वतपर मेरुके पूर्व की ओर इन्द्रकी देवधानी, दक्षिणमें यमराजकी धनी पश्चिममे वरुणकी निम्लोचनी और उत्तरमें चन्द्रगाकी विभावरी नामको पुरियां हैं। इन पुरियो मेरुके चारों और समय-समयपर सूर्योदय, मध्याह्न, सायङ्काल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हींके कारण सम्पूर्ण जीवोकी प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है ॥ 7 ॥ राजन्। जो लोग सुमेरुपर रहते हैं उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्यकालीन रहकर ही पाते रहते हैं। वे अपनी गतिके अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी ओर जाते हुए यद्यपि मेरुको बायीं ओर रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डलको घुमानेवाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायुद्वारा घुमा दिये जानेसे वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं ॥ 8 ॥ जिस पुरीने सूर्यभगवानका उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओरकी पुरी ने अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगोंको पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होनेके कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगोंको मध्याह्नके समय वे स्पष्ट दीस रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशामें पहुँच जाये तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे ॥ 9 ॥
सूर्यदेव जब इन्द्रकी पुरोसे यमराजको पुरीको चलते हैं, तब पंद्रह घड़ीमें वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजनसे कुछ पचीस हजार योजन- अधिक चलते हैं ॥ 10 ॥ फिर इसी क्रमसे वे वरुण और चन्द्रमाकी पुरियोको पार करके पुनः इन्द्रकी पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्रमें अन्य नक्षत्रोंके साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं ॥ 11 ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्यका वेदमय रथ एक मुहूर्तमें चौतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियोंमें घूमता रहता है ॥ 12 ॥इसका संवत्सर नामका एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ (हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि (आँवन) हैं। इस रथकी धुरीका एक सिरा मेरुपर्वतकी चोटीपर है और दूसरा मानसोत्तर पर्वतपर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हूके पहियेके समान घूमता हुआ मानसोत्तर पर्वतके ऊपर चक्कर लगाता है ॥ 13 ॥ इस धुरीमें- जिसका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाईमें इससे चौथाई है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्तके धुरेके समान ध्रुवलोकसे लगा हुआ है ।। 14 ।।
इस रथ में बैठनेका स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसका जूआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नामके सारथिने | गायत्री आदि छन्दोंके से नामवाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथपर बैठे हुए भगवान् सूर्यको ले चलते हैं ॥ 15 ॥ सूर्यदेवके आगे उन्हींकी ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथिका कार्य करते हैं ॥ 16 ॥ भगवान् सूर्यके आगे अँगूठेके पोरुएके बराबर आकारवाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्तिवाचनके लिये नियुक्त हैं। वे उनकी स्तुति करते रहते हैं ।। 17 ।। इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी - जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़ेसे रहनेके कारण सात गण कहे जाते हैं—प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नामोंवाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मोंसे प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नाम धारण करनेवाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्यकी दो-दो मिलकर उपासना करते | हैं ॥ 18 ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डलके नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरेमेंसे प्रत्येक क्षणमें दो हजार दो योजनकी दूरी पार कर लेते हैं ॥ 19 ॥