श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! यहाँतक मैंने आपको भगवान्की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजीने जगत्की रचना की, वह सुनिये ॥ 1 ॥ सबसे पहले उन्होंने अज्ञानकी पाँच वृत्तियाँ — तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं ॥ 2 ॥ किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टिको देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मनको भगवान्के | ध्यानसे पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची ॥ 3 ॥इस बार ब्रह्माजीने सनक, सनन्दन, सनातन और | सनत्कुमार- ये चार निवृत्तिपरायण ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किये ॥ 4 ॥ अपने इन पुत्रोंसे ब्रह्माजीने कहा, 'पुत्रो ! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।' किंतु वे जन्मसे हैं। मोक्षमार्ग (निवृत्तिमार्ग ) का अनुसरण करनेवाले और भगवान्के ध्यानमें तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा ॥ 5 ॥ जब ब्रह्माजीने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकनेका प्रयत्न किया ॥ 6 ॥ किंतु बुद्धिद्वारा उनके बहुत रोकनेपर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापतिकी भौंहोंके बीचमेंसे एक नीललोहित (नीले और लाल रंगके) बालकके रूपमें प्रकट हो गया ॥ 7 ॥ वे देवताओंके पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे- 'जगत्पिता ! विधाता! मेरे नाम और रहनेके स्थान बतलाइये ॥ 8 ॥
तब कमलयोनि भगवान् ब्रह्माने उस बालककी प्रार्थना पूर्ण करनेके लिये मधुर वाणीमें कहा, 'रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ ॥ 9 ॥ देवश्रेष्ठ ! तुम जन्म लेते ही बालकके समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें 'रुद्र' नामसे पुकारेगी 10॥ तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप ये स्थान रच दिये हैं ॥ 11 ॥ तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे ॥ 12 तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्प, इला, अम्बिका इरावती सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी ।। 13 ।। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो ।। 14 ।।
लोकपिता ब्रह्माजीसे ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नीललोहित बल आकार और स्वभावमे अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे ॥ 15 ॥ भगवान् रुद्रके द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रोंको असंख्य यूथ बनाकर सारे संसारको भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शङ्का हुई ।। 16 ।। तब उन्होंने रुद्रसे कहा, 'सुरश्रेष्ठ !तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टिसे मुझे और सारी दिशाओंको भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि और न रचो ॥ 17 ॥ तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना ॥ 18 ॥ पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है' ॥ 19 ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— जब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने 'बहुत अच्छा' कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये ॥ 20 ॥
इसके पश्चात् जब भगवान्की शक्तिसे सम्पन्न ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोककी बहुत वृद्धि हुई ।। 21 ।। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ॥ 22 ॥ इनमें नारदजी प्रजापति ब्रह्माजीकी गोदसे, दक्ष अंगूठेसे, वसिष्ठ प्राणसे, भृगु त्वचासे, ऋतु हाथसे, पुलह नाभिसे, पुलस्यापि कानोसे अद्वरा मुख, आने और मरीचि मनसे उत्पन्न हुए ।। 23-24 । फिर उनके दायें स्तनसे धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्तिसे स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठसे अधर्मका जन्म हुआ उससे संसारको भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ॥ 25 ॥ इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भाँहाँसे क्रोध, नीचेके होठसे लोभ, मुखसे वाणीकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्गसे समुद्र, गुदासे पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति ॥ 26 ॥ छायासे देवहूतिके पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्माजीके शरीर और मनसे उत्पन्न हुआ ॥ 27 ॥ और विदुरजी! भगवान् ब्रह्माकी कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी। हमने सुना है एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी ॥ 28 ॥उन्हें ऐसा अथर्ममय सङ्कल्प करते देख उनके पुत्र मरोधि आदि यो उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया-29॥ पिताजी आप समर्थ है, फिर भी अपने मनमें उत्पन्न हुए कामके वेगको न रोककर पुत्रीगमन जैसा दुस्तर पाप करनेका सल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्माने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा ॥ 30 ॥ जगद्गुरो ! आप जैसे तेजस्वी पुरुषोंको भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आपलोगोंके आचरणोंका अनुसरण करनेसे ही तो संसारका कल्याण होता है ॥ 31 ॥ जिन श्रीभगवान्ने अपने स्वरूपमें स्थित इस जगत्को अपने ही तेजसे प्रकट किया है, उन्हें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्मकी रक्षा कर सकते हैं ॥ 32 ॥ अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंको अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीरको उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीरको दिशाओंने ले लिया। वहीं कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते हैं ।। 33 ।।
एक बार ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि 'मैं पहलेकी तरह सुव्यवस्थित रूपसे सब लोकोंकी रचना किस प्रकार करूँ ?' इसी समय उनके चार मुखोंसे चार वेद प्रकट हुए ।। 34 ।। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा-इन चार ऋत्विजोंके कर्म, यज्ञोंका विस्तार, धर्मके चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ – ये सब भी ब्रह्माजीके से ही उत्पन्न हुए ।। 35 ।।
विदुरजीने पूछा- तपोधन। विश्वरचयिताओंके स्वामी श्रीब्रह्माजीने जब अपने मुसोंसे इन वेदादिको रचा, तो उन्होंने अपने किस मुखसे कौन वस्तु उत्पन्न की यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये ll 36 ll
श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! ब्रह्माने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरके मुखसे क्रमशः ऋक्, यजुः साम और अथर्ववेदोंको रचा तथा इसी क्रमसे शस्त्र (होताका कर्म), इज्या (अध्वर्युका कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाताका कर्म) और प्रायश्चित्त (ब्रह्माका कर्म) – इन चारोंकी रचना की ।। 37 । इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्रविद्या), गान्धर्ववेद (सङ्गीतशास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्पविद्या) इन चार उपवेदोंको भी क्रमशः उन पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न किया ।। 38 ।। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रह्माने अपने चारों मुखोंसे इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया ॥ 39 ॥इसी क्रमसे षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव-ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न हुए ॥ 40 ॥ विद्या, दान, तप और सत्य-ये धर्मके चार | पाद और वृत्तियोंके सहित चार आश्रम भी इसी क्रमसे प्रकट हुए ॥ 41 ॥ सावित्र, प्राजापत्य, ब्राह्म3 और बृहत् - ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारीकी हैं तथा वार्ता', सञ्चय6, शालीन और शिलोञ्छ' – ये चार वृत्तियाँ गृहस्थकी हैं ॥ 42 ॥ इसी प्रकार वृत्तिभेदसे वैखानस 9, वालखिल्य 10, औदुम्बर 11 और फेनप12 - ये चार भेद वानप्रस्थोंके तथा कुटीचक 1, बहूदक और निष्क्रिय (परमहंस 16) -ये चार भेद संन्यासियोंके हैं ॥ 43 ॥ इसी क्रमसे आन्वीक्षिकी 17. त्रयी 18, वार्ता 19 और दण्डनीति 2 - ये चार विद्याएँ | तथा चार व्याहृतियाँ 21 भी ब्रह्माजीके चार मुखोंसे उत्पन्न | हुईं तथा उनके हृदयाकाशसे ॐकार प्रकट हुआ ॥ 44 ॥ उनके रोमोंसे उष्णिक्, त्वचासे गायत्री, मांससे त्रिष्टुप् स्नायुसे अनुष्टुप् अस्थियोंसे जगती, मज्जासे पंक्ति और प्राणोंसे बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पञ्चवर्ग) और देह स्वरवर्ण (अकारादि) कहलाया ।। 45-46 ।। उनकी इन्द्रियोंको ऊष्मवर्ण (श ष स ह) और बलको अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडासे निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पञ्चम—ये सात स्वर हुए ॥ 47 ॥ हे तात ! ब्रह्माजी शब्दब्रह्मस्वरूप हैं। वे वैखरीरूपसे व्यक्त और ओङ्काररूपसे अव्यक्त हैं। तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकारकी शक्तियोंसे विकसित होकर इन्द्रादि रूपोंमें भास रहा है ।। 48 ।।