अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



प्रभुकी पूजा करना ही सच्चा कर्तव्य है। उसकी खोज करना ही सच्चा रास्ता है, उस परमात्माका दर्शन होना ही एक सच्ची कथा है।


हे हरि, हे दीनजनतारक! तुम्हारा यह सुन्दर सगुणरूप मेरे लिये सब कुछ है। पतितपावन! तुमने बड़ी देर लगायी, क्या अपना वचन भूल गये ? घर-गिरस्ती जलाकर तुम्हारे आँगनमें आ बैठा हूँ। इसकी तुम्हें कुछ सुध ही नहीं है। हे मेरे जीवनसखा! रिस मत करो, अब उठो और मुझे दर्शन दो।


जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी है वह भक्त रामको प्यारा है, ऐसे भक्तको भगवान् एक पलके लिये भी अपने से अलग नहीं करते।


भगवान् जिसे कृपा करके अपनी शरणमें लेते हैं, सबसे पहले, धीरेसे उसका सर्व-'स्व' अपहरण कर लेते हैं। उसके पास ‘अपना' कहनेके लिये कुछ भी रहने नहीं देते।


भगवत्प्राप्तिका मुख्य साधन नामस्मरण है। नामस्मरणसे असंख्य भक्त तर गये।


बैठे-बैठे अँधेरेमें क्या टटोल रहे हो? प्रकाशकी खोज करो। वह प्रकाश है भगवत्-प्रेम, भगवत्-निष्ठा।


जो तृष्णाको त्यागते हैं, तृष्णासे नफरत करते हैं, उसे पास फटकने नहीं देते, उनसे तृष्णा भी दूर भागती है।


जहाँतक हो, विषयी धनिक पुरुषोंके अन्नसे तो बचना चाहिये।


भगवान्‌ने मनुष्योंको आँख और कान तो दो-दो दिये हैं, पर जीभ एक ही। इसलिये उचित है कि चार बातोंको देख-सुनकर एक बात बोलो।


धार्मिक अभ्यास जनसाधारणके सम्मुख नहीं करना चाहिये, उनका अभ्यास स्वच्छन्दतापूर्वक एकान्तमें घरहीपर होता है। उनके प्रदर्शनसे हानि ही हानि है।


साधु-महात्मा-संत तथा भगवद्भक्तोंके चरणों में अनुराग रखो। वे कैसे भी हों उनकी निन्दा कभी मत करो। सबको ईश्वर-बुद्धिसे नम्र होकर प्रणाम करो। तुम्हारा कल्याण होगा।


बड़ोंकी दुर्दशा देखकर छोटोंको अपनी विपत्तिपर रोना- कल्पना नहीं बल्कि संतोष करना चाहिये। संसारमें कोई सुखी नहीं है।


संसारमें जो नाना प्रकारके अच्छे-अच्छे मनभावन पदार्थ दिखायी देते हैं ये सभी नाशवान् हैं। ये सब वास्तवमें कुछ भी नहीं; केवल मनकी कल्पनासे इनकी सृष्टि की गयी है। मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं ज्ञानी नहीं।


गृहस्थको पाँच अशुभ प्रवृत्तियोंसे बचना चाहिये (1) हिंसा, (2) चोरी, (3) व्यभिचार, (4) असत्य और (5) व्यसन।


सबकी प्रीति झूठी है। प्रीति तो एकमात्र प्रभुमें ही सच्ची है।


वासनाका मूल काटे बिना यह कोई न कहे कि मेरा उद्धार हो गया।


जिस विद्यासे लोग जीवन-संग्राममें शक्तिमान् नहीं होते, जिस विद्यासे मनुष्यके चरित्रका विकास नहीं होता और जिस विद्यासे मनुष्य परोपकार प्रेमी और पराक्रमी नहीं बनता, उसका नाम विद्या नहीं है।


साधु-संग करनेसे जीवका मायारूपी नशा उतर जाता है।


गृहस्थीके लिये तीन ही बातें मुख्य हैं- श्रद्धापूर्वक भगवान्की सेवा-पूजा करता रहे, मुखसे सदा श्रीहरिके मधुर नामोंका संकीर्तन करता रहे और अपने द्वारपर जो आ जाय, उसकी यथाशक्ति सेवा करे तथा साधु-महात्माओंके चरणोंमें श्रद्धा रखे।


यदि माता खीझकर बच्चेको अपनी गोदसे उतार भी देती है तो भी बच्चा उसीमें अपनी लौ लगाये रहता है और उसीको याद करके रोता-चिल्लाता और छटपटाता है। उसी प्रकार हे नाथ! तुम चाहे मेरी कितनी उपेक्षा करो और मेरे दुःखोंकी ओर ध्यान न भी दो तो भी मैं तुम्हारे चरणोंको छोड़कर और कहीं नहीं जा सकता। तुम्हारे चरणोंके सिवा मेरे लिये कोई गति ही नहीं।


आग लगे उस बनावटी स्वाँगमें जिसके भीतर कालिमा भरी हुई है। वस्त्रोंको लपेटकर पेट बड़ा कर लेनेसे, गर्भवती होनेकी बात उड़ानेसे, दोहदका स्वाँग भरने से बच्चा थोड़े ही पैदा होता है, केवल हँसी होती है।


जिसके विचार और चिन्तन पवित्र हैं, उससे अपवित्र क्रिया बन ही नहीं सकती, उससे तो विशुद्ध कर्म ही होते हैं।


मनको स्वतन्त्र छोड़ देनेपर वह नाना प्रकारके संकल्प, विकल्प करने लगता है, परन्तु विचाररूपी अंकुशसे मारनेपर वह स्थिर हो जाता है।


भजन-पूजन यदि विशुद्ध निष्काम भावसे भगवान्‌के लिये ही किया जाय तो उससे भगवान्‌की प्राप्ति होती है।


जागो, उठो और लग जाओ। ऐसा अवसर फिर जल्दी नहीं आयेगा ईश्वरका भजन करो। अपने पास कुछ हो तो दान करो। भूलेको मार्ग बताओ। दुःखीकी सहायता करो तथा मन और इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर भगवान्‌में लगाओ।


स्वभावसे ही प्रत्येक मनुष्य ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा करता है; परंतु प्रभुमें श्रद्धा और भक्ति नहीं हुई तो कोरे ज्ञानसे क्या हो सकता है।


रूपको देखने मात्रसे ही जहर चढ़ जाता है। तू रूप-लालसा छोड़ दे।


जो आँखें ईश्वरकी ताबेदारीमें रहना भला नहीं मानतीं, उनका तो फूट जाना ही अच्छा है। जो जीभ ईश्वरकी चर्चा नहीं करती, वह गूँगी ही रहे तो अच्छा। जो कान सत्य नहीं सुनते वे बहरे ही रह जायँ तो अच्छा और जो तन ईश्वरकी सेवामें नहीं लगता, उसका न रहना ही अच्छा है।


जिस अन्तःकरणमें संसारी लालसाएँ भरी होती हैं। उसमें ये पाँच बातें नहीं रह सकतीं- (1) ईश्वरका भय, (2) ईश्वरकी आशा, (3) ईश्वरपर प्रेम, (4) ईश्वरसे लज्जा और (5) ईश्वरके मित्रता।


परमात्मा यह परखता है कि मनुष्यके हृदयमें कार्यके साथ-साथ प्रेमका अंश कितना है, न कि कितना कार्य उसने किया, वह वही कार्य अधिक करता है जिससे उसका अधिक प्रेम है।


साधक यदि ईश्वरमें ही शान्ति प्राप्त न कर सका तो समझना चाहिये कि उसमें सच्चा वैराग्य नहीं है।


ईश्वरके नाममें ऐसा विश्वास चाहिये कि मैंने उसका नाम लिया है, इससे अब मेरे पाप कहाँ? मेरे अब बन्धन कहाँ।


पत्तों और जलपर गुजर करनेवाले ऋषि भी जब स्त्रियोंपर मोहित हो गये, तब घी-दूध खानेवालोंकी क्या बात है।


जो कुछ सुन्दर दिखायी देता है वह श्रीकृष्णके ही अंशसे है, उससे आँखें ऐसी दीवानी हो गयीं कि भगवान्‌के मयूरपिच्छमें जा लगीं।


शक्ति, बुद्धि, स्वतन्त्रता रहते दूसरोंकी देखा-देखी कल्याणकारी धर्ममार्गकी उपेक्षा करके सर्वथा अहितकर अधर्मके मार्गपर चलना अपनी ही आन्तरिक दुर्बलताका द्योतक है।


मनुष्यके संगका क्या भरोसा? वह मर जाय तो फिर उसका संग कैसे मिलेगा ? तब भगवान्‌का ही संग करना होगा। इसलिये पहलेसे ही भगवान्‌का संग क्यों न किया जाय।


उस दुष्ट और नीचके साथ भी, जो तुम्हें दुःख देता है, तुम भलाई करो, क्योंकि सच्चा आनन्द दूसरोंको सुख देनेमें ही है।


लोग बड़ी प्रशंसा करते हैं, पर मुझसे वह सुनी नहीं जाती, जी छटपटाया करता है। तुम जिसमें मिलो, हे हरि ! ऐसी कोई कला बताओ, मृगजलके पीछे मत लगाओ। अब मेरा हित करो, इस जलती हुई आगसे निकालो।


जो मनुष्य अपनी शान्तिको अपनी इच्छासे अपने भीतर रख सकता है, वही निर्भयतापूर्वक बोल भी सकता है। जो मनुष्य इच्छापूर्वक अनुशासित होता है, वही सच्चा अनुशासन भी कर सकता है।


यह अक्षर (कभी नाश न होनेवाला) ही ब्रह्म है; पुरुष अक्षर ही परम है, इस अक्षरको ही जानकर जो करता है, उसको वही प्राप्त होता है। इस अक्षर परमात्माका आश्रय ही श्रेष्ठ है। यह आश्रय सबसे उत्तम है। इस आश्रयका रहस्य जानकर जीव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।


पहले ईश्वर-प्राप्तिका यत्न करो, पीछे जो इच्छा हो कर सकते हो।


ऐसे चंचल जीवनके लिये अज्ञानी मनुष्य नीच से-नीच कर्म करनेमें संकोच नहीं करता- यह बड़ी ही लज्जाकी बात है। अगर मनुष्योंको हजारों, लाखों बरसकी उम्र मिलती अथवा सभी काकभुसुण्डि होते, तो न जाने मनुष्य क्या-क्या पापकर्म न करता।


इस जगत् में प्रभुके समान कोई भी सच्चा सहायक नहीं है और प्रभुके भेजे हुए महापुरुषोंके समान अच्छे मार्गको कोई दिखानेवाला नहीं है।


जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतोष और श्रीहरि चरणोंमें प्रीति। बस, इसके आगे सुख है क्या वस्तु।


शूरवीर वही है जिसका हृदय हरिसे भरपूर है।


संसारमें रहकर जो साधन कर सकते हैं, यथार्थमें वे ही वीर पुरुष हैं।


जैसा भाव वैसा फल । भगवान्‌के सामने और कोई बल नहीं चलता।


जिस तरह देखते-देखते हौजका पानी मोरीकी राहसे निकलकर बिला जाता है, उसी तरह यह जीवात्मा देहसे निकल जायगा, दस-पाँच दिनकी देर समझिये।


एक भंगी भी अपने झाड़ने- बुहारनेके कार्यको भगवान्का कार्य समझकर उनकी प्रसन्नताके लिये आवश्यक समझकर करता है, तो उसके कर्मको भगवान् सादर ग्रहण करते हैं और उसे अपनी सेवा समझते हैं। वह भगवान्‌का परमप्रिय होता है।


कौन किसको बाँधता है, कौन किसको छुड़ाता है ? यह सब संकल्पकी माया है।


प्रेम चित्तका अनुभव है, इसे चित्त ही जान सकता है।


ईश्वरके गुणोंका अपनेमें आरोप करनेवाला योगी अधम है।


अपने सम्बन्धकी किसी भी वस्तुकी बड़ाई न करना और सदा दूसरोंका हित सोचना तथा उनके सम्बन्ध ऊँचा विचार रखना ही बुद्धिमानी और पूर्णताका परिचायक है।


किसी भी सिद्धान्तको मानकर चलिये, परिणाम एक ही होगा; क्योंकि श्रीभगवान् एक ही हैं।


संसारमें तीन बातें बड़ी उपकार करनेवाली हैं, परंतु धारण करनेमें कठिन हैं- (1) निर्धनतामें उदारता, (2) एकान्तमें इन्द्रियनिग्रह और (3) भयमें सत्य।


भगवान् ऐसे दयालु हैं कि भक्तिसे दिये हुए एक चुल्लू जल तथा एक तुलसीपत्रके द्वारा ही अपनी आत्माको भक्तोंके लिये दे देते हैं।


जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि विकार नहीं हैं; जो सुख-दुःख और मान-अपमानको नहीं जानता; जिसे न खुशी होती है न रंज, जो अपने शरीरसे अलग है; जो न किसीकी तारीफ करता है और न किसीकी बुराई करता है; जिसे न किसीसे प्रेम है और न किसीसे वैर है; जिसका न किसीसे लेना है और न किसीको देना है; न और ही किसी तरहका व्यवहार है; ऐसा ही महापुरुष भगवान्‌को प्यारा है।


सरलता, कर्तव्यपरायणता, प्रसन्नता और जितेन्द्रियता तथा वृद्ध पुरुषोंकी सेवा - इनसे मनुष्यको मोक्षकी प्राप्ति होती है।


चराचर सभी दृश्य केवल मनके कारण हैं। जब यह मन अमन हो जाता है, तब द्वैतका कोई अनुभव ही नहीं रहता।


सूर्यकी किरणें सब जगह समान पड़नेपर भी जल और दर्पणमें प्रकाश अधिक दिखायी देता है, वैसे ही भगवान्का विकास सबके हृदयोंमें समानरूपसे होनेपर भी साधुके हृदय में उसका विशेष प्रकाश होता है।