मेरे दुर्गुण मुझे जान पड़ते हैं, पर क्या करूँ ? मनपर बस नहीं चलता! अब आप ही हे नारायण! बीचमें आ जाइये और अपने दया-सिन्धु होनेको सत्य कर दिखाइये।
रास्ते दो हैं- एक लंबा, दूसरा छोटा। लंबा रास्ता भक्तके पाससे शुरू होकर भगवान् के पास जाता है और छोटा रास्ता भगवानके पाससे शुरू होकर भक्तके पास आता है।
श्रीकृष्ण लीलाविग्रह हैं, उनका शरीर लोकाभिराम और ध्यान-धारण मंगलप्रद हैं। वेदोंका जन्मस्थान, षट्शास्त्रोंका समाधान, षड्दर्शनोंकी पहेली-ऐसा यह श्रीकृष्णका पूर्णावतार है।
जो लोग सुखकी आशासे विषयोंके पीछे भटकते रहते हैं, उनकी दशा मणिको पानेकी आशासे उसकी परछाईंको पकड़नेके लिये व्यर्थ प्रयास करनेवाले मूढ़ मनुष्यकी-सी है।
जैसे भी हो सके दूसरोंके दुर्गुण और दुर्बलताको सहन करनेमें धीर होनेकी चेष्टा करो, क्योंकि तुममें भी बहुत सी दुर्बलताएँ ऐसी हैं जिन्हें दूसरोंको सहन करना पड़ता है।
तब वह अच्छी तरह देख सकता है कि पूर्ण स्वच्छन्दता और अक्षय शान्ति इस विश्वमें खोजे नहीं मिल सकती।
आवश्यकतासे अधिक शब्द बोलनेकी अपेक्षा कतई न बोलना कहीं अच्छा है।
तुम्हारे कोमल चरण चित्तमें धारण कर लिये, कण्ठमें नामकी एकावली डाल ली। काया शीतल हुई, चित्त पीछे फिरकर विश्रान्ति-स्थानमें पहुँच गया, अब आगे संसारकी ओर नहीं आता है। मेरे सब हौसले पूरे हुए। सब कामनाएँ श्रीगोपालने पूरी कर दीं।
संसारमें न तो कोई किसीका मित्र है, न शत्रु है । जो मनुष्य किसीको अपना शत्रु मानकर उसपर क्रोध करते हैं: वे वास्तवमें अपनी ही हानि करते हैं। संसार विष्णुमय है। शरीरका एक अंग दूसरे अंगका शत्रु कैसे हो सकता है।
चार चीजोंपर भरोसा रखो-भगवान्, सत्य, पुरुषार्थ और स्वार्थहीन मित्र।
अल्प आहारमें चित्तकी शान्तिमें, लोकसंसर्गके त्यागमें साधुता भरी है।
जो पीछे बीत चुका या आगे होनेवाला है, उसकी चिन्ता न करो। लेकिन जो समय तुम्हारे हाथमें है, उसे अच्छे से-अच्छे कार्यमें लगाओ।
जो वस्तु तुम्हारे मनको अच्छी लगती है, उसे छोड़ दो और जो चीज अच्छी नहीं लगती, उसपर प्रेम करो। यह तप हमेशा चालू रखो।
कुमार्गपर चलनेवाला बिना जीता हुआ मन ही परम शत्रु है। मनको जीतकर समत्वको प्राप्त होना ही भगवान्की मुख्य आराधना है।
जो मनुष्य प्रभु और प्रभुके प्रेमियोंका गुण गानेके बदले अपना ही गुण गाना और गवाना शुरू कर देता है, वह बेचारा दयाका पात्र है।
सत्यसे बढ़कर संसारमें कोई अन्य धर्म नहीं है और मिथ्याभाषणसे बढ़कर कोई दूसरा पाप नहीं है, अतः ऐसी दशामें सत्यकी सदा अर्चना करो; उसे कभी मत छोड़ो।
तुम्हारा प्रेम-सुख छोड़कर हम जीवन्मुक्त किसलिये हो ? कौन ऐसा अभागा होगा जो इसे लात मार दे।
जिस तरह सरायको भरी हुई देखकर उसमें कोठरियाँ खाली न पाकर, मुसाफिर लौट जाते हैं, उसी तरह नयनोंमें मनमोहनकी बाँकी छवि देखकर संसारी मिथ्या खूबसूरतें आँखोंके पास भी नहीं फटकतीं।
सब तीर्थोंकी मुकुटमणि यह हरिकथा है- यह ऊर्ध्व-वाहिनी परमामृतकी धारा भगवान् के सामने बहती रहती है । भगवान्पर इस सुधाधाराका अभिषेक होता रहता है।
गाँठमें जो द्रव्य नहीं बाँधता, कामवासनामें जिसका प्रेम नहीं, जिसके हृदयमें केवल हरिका वास है, वही साधु है, वही सिद्ध हैं, वही सबमें सिरमौर है।
जिस प्रकार दर्पण स्वच्छ होनेपर उसमें मुँह दिखलायी देने लगता है, उसी प्रकार हृदयके स्वच्छ होते ही उसमें भगवान्का रूप दिखायी देने लगता है।
जब विवेकके द्वारा मनकी सारी उपाधियाँ छूट जाती हैं और वैराग्यके उत्पन्न हो जानेसे गृहस्थीका बखेड़ा छूट जाता है, तब मनुष्य अंदर और बाहर दोनों ओरसे मुक्त होकर योगी हो जाता है।
शरीर खेत है, मनुष्य किसान है, पाप-पुण्य दो बीज हैं। जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल होता है।
नाम - मन्त्र - जपसे कोटि पाप नष्ट होगा। कृष्णनामका संकल्प पकड़े रह।
बच्चेकी अटपटी बातें माताको अच्छी लगती हैं। चट उसे वह अपनी छातीसे लगा लेती और मुँह चूम लेती है। इसी प्रकार भगवान्का जो प्रेमी है, उसका सभी कुछ भगवान्को प्यारा लगता है और भगवान् उसकी सब मन:कामनाएँ पूर्ण करते हैं।
विभूति चंचल है, यौवन क्षणभंगुर है; तो भी लोग परलोक-साधनकी परवा नहीं करते। मनुष्योंकी यही चेष्टा विस्मयकारक है।
भगवान्के रूपका ध्यान करो, भगवन्नामसंकीर्तन करो, भगवान्के गुणानुवादका गायन करो, भगवान्की लीलाओंका परस्पर कथन और श्रवण करो।
तुम्हारे बिना हे प्राणेश्वर! मुझपर ममत्व रखनेवाला इस विश्वमें और कौन है? किससे हम अपना सुख-दुःख कहें, कौन हमारी भूख-प्यास बुझायेगा।
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उनका ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य सभी अनन्त है, अपार है। जिसे उसका एक कण भी मिल गया वह धन्य-धन्य गया।
इस जीवनमें सभी पूर्णतामें अपूर्णता मिली हुई है और हमारा कोई भी ज्ञान अज्ञानके बिना नहीं है।
संतके लक्षण हैं- (1) दूसरेकी निन्दाको झूठा समझना और उसकी कहीं चर्चा भी नहीं करना, (2) अपनी प्रशंसाका न सुहाना और दूसरेकी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होना, (3) दूसरेको सुख पहुँचाना और उसको अपने सुखसे भी अधिक समझना, (4) छोटोंके प्रति कोमलता और दयाका तथा बड़ोंके प्रति आदरका बर्ताव करना और (5) खेलमें भी किसीके साथ चालाकी न करना।
जो वस्तु अनादि और अनन्त है, उसीमें सुख है; अन्तवान् वस्तुमें सुख नहीं है। अन्तवान् वस्तुका एक दिन अवश्य नाश होगा, इसलिये जो उसपर आसक्त होगा उसको दुःखी होना ही पड़ेगा।
लोग भला कहें या बुरा, उनकी बातोंपर ध्यान नहीं देना चाहिये। संसारके यश और निन्दाकी कोई परवा न करके ईश्वर - पथमें चलना चाहिये।
इस सत्यको धारण करो कि भगवान् न पराये हैं, न तुमसे दूर हैं और न दुर्लभ ही हैं।
उसे कोई सुख नहीं जिसकी इच्छाएँ बड़ी हैं।
मैं जिस समय इन्द्रियोंका निग्रह करने में असमर्थ हो जाता हूँ तो परमेश्वरका स्मरण करता हूँ और जब मैं उसकी याद करता हूँ तो वह जरूर ही मेरी खबर लेता है।
फिर चलो, फिर चलो रे जीव ! नहीं तो गोते खाओगे। मायानदीकी इस बाढ़में बह जाओगे। भवनदीका पानी, प्यारे ! बड़े वेगसे खींचता है और बड़े-बड़े तैराकोंको उठाकर नीचे गिराता है। संसार क्षणभंगुर है, इसका कोई भरोसा नहीं । यह दुर्लभ नरतन छूट जायगा तब पीछे पछताओगे।
जो सच्ची निवृत्ति चाहता है, उसे चाहिये कि वह तमाम पापको और उलटी समझको छोड़ दे।
एक नामका ही तत्त्व मनसे दृढ़ धर ले। हरि तुझपर करुणा करेंगे।
जो वस्तु प्रभुसे दूर रखे, उसके छोड़ देनेका नाम ही वैराग्य है। चाहे वह कितनी ही मूल्यवान् और आवश्यक हो।
जगत् में ईश्वर व्याप्त हैं, पर उनके पानेके लिये साधना करनी पड़ती है।
भगवान्की भक्तिसे ही भगवान्का रूप दिखायी देता है।
धनिकोंकी खुशामद न करो, बड़े आदमियोंके सम्मुख स्वेच्छासे न जाओ।
आत्म-विसर्जन ही प्रेमका मूल मन्त्र है। प्रेमास्पदका हित और सुख ही प्रेमीका परम सुख है। प्रेमास्पद उसके प्रेमका तिरस्कार करे, उसे ठुकरा दे; पर प्रेमीके पास इन सब बातों की ओर देखनेके लिये चित्त ही नहीं है, उसका चित्त तो सहज ही अपने प्रेमास्पदमें लगा है।
ईश्वर जिसपर खुश होता है, उसे नदीकी-सी दानशीलता, सूर्यकी-सी उदारता और पृथ्वीकी-सी सहनशीलता प्रदान करता है।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सदा बड़ोंका संग करे, इससे अनेक सुख मिलते हैं, जैसे जो पक्षी बड़े वृक्षके आश्रित रहते हैं, उन्हें खानेको फल भी खूब मिलते हैं और वे छायासे भी सदा सुखी रहते हैं।
समाधि अवस्थामें मनको उतना ही आनन्द मिलता है, जितना जीती मछलीको तालाबमें छोड़ देनेसे।
जो मनुष्य लड़ाईमें दूसरोंको जीतना चाहता है, उसको छत्तीसों हथियारोंके प्राप्त करने और चलानेकी जरूरत पड़ती है, परंतु अपने मरनेके लिये एक छोटी-सी छुरी काफी है, इसी प्रकार दूसरोंको जीतकर पण्डिताई फैलाने और मान प्राप्त करनेके लिये बहुत-सी विद्याओंकी जरूरत है, परंतु भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये तो आचरणका सुधार करके उनके नाम जपनेकी विद्या सीख लेना ही काफी है।
जो ईश्वरमें नित्य डूबा रहता है, उसकी प्रेमाभक्ति कभी नहीं सूखती। परंतु दो-एक दिनकी भक्तिसे ही जो संतुष्ट तथा निश्चिन्त रहता है, सीकेपर रखे हुए रिसते घड़ेके जलके समान वह भक्ति दो दिन बाद ही सूख जाती है।
जो सच्चे हृदयके साधु होते हैं, वे मनको पीसकर चाले हुए मैदेकी भाँति कर देते हैं, जिनमें मान या गर्वकी किरकिरी नहीं रह जाती।
जो मनुष्य परमेश्वरको छोड़कर दूसरी बातोंकी चर्चा और चिन्ता करता है, वह अपने कौल-करारको भूला हुआ है।
जो मनुष्य भजन न करके दोषरहित होनेकी चेष्टा करता है और दोषोंके रहते अपनेको भगवत्कृपाका अनधिकारी मानता है, वह तार्किकोंकी दृष्टिमें बुद्धिमान् होनेपर भी वस्तुतः भगवान्की अनन्त शक्तिमयी सहज कृपाकी अवहेलना करनेका अपराध ही करता है।
जो मनुष्य ईश्वरपर विश्वास रखकर उसकी प्रीतिके लिये धर्माचरण करता है, वही निर्भय है और उसे ही प्रभु अपनी सेवामें लेता है।
परद्रव्य और परदाराको छूत मानें। इससे बढ़कर निर्मल कोई तप है नहीं।
धनकी प्यास जलकी प्याससे कहीं बढ़कर दुःखदायिनी है। जलकी प्यास जल मिल जानेपर शान्त हो जाती है परंतु धनकी तृष्णा धन मिलनेपर और भी बढ़ती है।
ईश्वरका साक्षात्कार तब होगा जब संसारकी दृष्टिसे प्रतीत होनेवाले बड़े-से-बड़े वैरियोंको भी क्षमा करनेका तुम्हारा स्वभाव बन जायगा।
ईश्वरके दर्शनकी इच्छा रखनेवालोंको नाममें विश्वास तथा सत्यासत्यका विचार करते रहना चाहिये।
अज्ञानका नाश हो जाने पर राग-द्वेष, चिन्ता, शोक-भय आदिका अत्यन्ताभाव हो जाता है और अज्ञानका नाश होता है— परमात्माके यथार्थ ज्ञानसे।
नेत्रोंमें अश्रु-बिन्दु नहीं, हृदयमें छटपटाहट नहीं तो भक्ति काहेकी ? वह तो भक्तिकी विडम्बना है, व्यर्थका जन मन-रंजन है। जबतक दृष्टिसे दृष्टि नहीं मिली तबतक मिलन नहीं होता।
मनुष्य कब ईश्वरार्पण हो सकता है ? जब कि वह अपने-आपको, अपने हरेक कामको बिलकुल भूल जाय, सर्वभावसे उसका आसरा ले ले और उसके सिवा किसी दूसरेकी न आशा रखे, न किसीसे सम्बन्ध ही रखे।