सच्चे प्रभु प्रेमीके दो लक्षण हैं-स्तुति-निन्दामें समभाव रहना और भगवान्से कोई भी लौकिक कामना न रखना।
चार चीजें जाकर फिर नहीं लौटतीं-मुँहसे निकली हुई बात, छूटा हुआ तीर, बीती हुई उम्र और मिटा हुआ अज्ञान।
तुम बड़े खराब जमानेमें आ पड़े हो। इस जमाने के आदमी काम नहीं करते, पर बोलते रहते हैं और धर्मका पालन करनेके बदले सूखे ज्ञानके पढ़ने-पढ़ानेमें ही डूबे रहते हैं।
सत्ययुगमें भगवान्के ध्यानसे, त्रेतामें यज्ञसे, द्वापर में सेवासे जो फल मिलता है, वही कलियुगमें केवल श्रीहरिकीर्तनसे मिलता है। अतएव जो दिन-रात श्रीहरिका प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए ही घरका सारा काम करते हैं, वे भक्तगण धन्य हैं।
असली बात तो यह है कि विधान और विधाता एक ही हैं, विपत्तिके रूपमें सचमुच भगवान् ही तुम्हारे सामने आते हैं।
अगर तेरे घटमें प्रेम है तो उसका ढिंढोरा न पीट। तेरे हृदयके भावको अन्तर्यामी जानते ही हैं।
ईश्वराज्ञाका पालन करनेपर ही सच्चा आनन्द मिलेगा।
जहाँतक हो सके, मित्रोंमें लेन-देन मत रखो।
हे गोपाल ! हे हरि ! हे जगत्त्रयजीवन ! यह मन तेरे ही ध्यानमें लग जाय, एक क्षण भी खाली न जाय।
जिस तरह रातके स्वप्नको मिथ्या समझते हो उसी तरह दिनके दृश्योंको भी मिथ्या समझो।
आवेग आकर कोई काम मत करो। जो मनुष्य अपने आवेगोंका दास है वह अपनेको संयममें नहीं रख सकता। उसका जीवन अस्त-व्यस्त रहता है।
शरणागतिके द्वारा भगवान्से उपदिष्ट साधनमें लग जानेपर शरणागत साधकको भगवान् स्वयं अपने स्वरूपका तत्त्व समझा देते हैं।
महर्षियोंने प्रतिष्ठाको शूकरी- विष्ठाके समान अत्यन्त हेय बतलाया है। अतएव त्यागीको सदा कीटकी तरह प्रतिष्ठाहीन होकर विचरण करना चाहिये।
यदि मैं स्तुति करूँ तो वेदोंसे भी जो काम नहीं बना वह मैं कर सकता हूँ ! परन्तु क्या किया जाय रसनाको तो दूसरे ही सुखका चसका लग गया है।
सांसारिक वस्तुएँ ऐसी अनिष्टकारक हैं कि उनकी । इच्छामात्र ईश्वरसे दूर ले जाती है, यदि कोई उन्हें पा ले तब तो उसकी | क्या हालत होगी।
यह राज्य और धन-दौलत क्या सदा आपके कुलमें रहेंगे या आपके साथ जायँगे ? विचारिये तो सही।
तुमसे कोई वैर रखता हो तो तुम केवल इतना देखो कि तुम्हारी किसी क्रियासे उसकी हानि तो नहीं हुई, उसे दुःख तो नहीं पहुँचा। यदि ऐसा नहीं है तो अपने मनको दुःखी मत करो और उसपर प्रेम तथा दया बनाये रखो।
दीन बनते रहो, दुःख भगवान् ही भेजते हैं, ऐसा मानकर दुःखका स्वागत करो, तिरस्कारमें आनन्द मानो, सुख आराम और रक्षाका आधार एक भगवान्को ही बना लो।
भगवान्के दर्शनके लिये जिसके मनमें अत्यन्त तीव्र आकर्षण होता है, वह विषयोंकी क्षणभंगुरता और अनित्यताको देखकर विषयोंकी और कभी ताकता ही नहीं।
- दुर्लभ मनुष्य-चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसारमें फँसा रहे तो फिर संसार-बन्धनसे छूटेगा कौन।
ऐसा वैराग्य दृढ़ करना चाहिये कि मन विषयोंसे ऊब जाय और दूसरी ओरसे उसे परमार्थका चसका लगाते हुए हरिभजनमें समाधि देनी चाहिये।
रूपकी लालसा काली नागिन है। केवल ईश्वरका नाम जपनेवाले ही उससे बचे।
हे नारायण ! तुम्हें उन गोपालोंने अपने पुण्यवान् नेत्रोंसे कैसा देखा होगा। उनके उस सुखके लोभसे मेरा मन ललचाया है। मुझे वह आनन्द कब मिलेगा ? तुम्हारे श्रीमुखकी ओर टकटकी लगाये रहनेका आनन्द कैसा होगा ? अनुभवके बिना मैं उसे कैसे जानूँ ? तुम्हारा रूप इन आँखोंसे कब देखूँगा ? तुम्हारे आलिंगनका आनन्द कब लाभ करूँगा, चित्त प्रतिक्षण यही सोचता है।
लौकिक भोगोंसे विमुखता, ईश्वरकी आज्ञाका पालन और ईश्वरेच्छासे जो कुछ हो जाय उसीमें प्रसन्नता मानना सच्ची प्रभु-भक्तिके लक्षण हैं।
बदला लेनेका खयाल छोड़कर क्षमा करना, अन्धकारसे प्रकाशमें आना और नरककी जगह सदेह ही स्वर्गका सुख भोगना है।
जो संग्रहका त्याग करके अपरिग्रहमें रत है, ऐसे चित्तके मलसे रहित हुए ज्ञानवान् पुरुष ही निर्वाणको प्राप्त होते हैं।
दीपक हाथमें ले लेनेसे घरमें सब जगह उजाला हो जाता है। वैसे ही प्रभुकी मूर्ति जब ध्यानमें बैठ जाती है, तब समग्र चैतन्य दृष्टिमें समा जाता है।
पिता-माताका सम्मान करो, व्यभिचार मत करो। चोरी मत करो, झूठी गवाही न दो, दूसरेकी चीजपर मन न चलाओ।
वर्तमान जीवनको भूलकर भावनामय भावी जीवनपर विश्वास न करो चाहे वह कितना ही आनन्दमय प्रतीत क्यों न होता हो।
आर्य स्त्री पतिके द्वारा परित्यक्ता होनेपर भी पतिकी मंगलकामना ही करती है और इसीमें अपना सौभाग्य समझती है। इसी प्रकार भक्तको भी अपने भगवान्से ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये।
वह पुरुष धन्य है जो बनने और बिगड़नेवाले अंकों और अक्षरोंसे नहीं, स्वयं सत्यसे शिक्षा लेता है, जो स्वतः आत्मस्वरूप है।
तुम्हारा कोई पूर्वकर्म जबतक कारण नहीं होगा, तबतक तुम्हें कोई दुःख नहीं पहुँचा सकता। अगर किसीके द्वारा दुःख मिलता है तो यह समझो कि वह बेचारा तो केवल निमित्त बना है और दयाका पात्र है।
भले और पुण्यात्मा पुरुषको जो कुछ करना होता है वह स्वयं अपने ही भीतर तय कर लेता है।
यह अच्छा है कि कभी-कभी हम कठिनाई और कष्टोंमें पड़ जाते हैं; क्योंकि उनसे प्रायः हम अपने अन्तरमें प्रवेश करते हैं और यह सोचते हैं कि हमारा यहाँका जीवन निर्वासनका है और ऐसी दशामें हमें किसी भी सांसारिक वस्तुमें विश्वास नहीं रखना चाहिये।
जो लोग शक्ति-सामर्थ्य रहते विषयोंको छोड़ते हैं, वे ही प्रशंसाके भाजन होते हैं।
उस विश्वासको लाओ जो ध्रुवमें, प्रह्लादमें और नामदेवमें आया था। इसी विश्वासकी बदौलत सम्पूर्ण शंका, संदेह और झगड़े दूर हो जाते हैं।
भय कई तरहके हैं; इसलिये जो भय तुमको पापोंसे दूर रखे उस भयकी भी इच्छा करनी चाहिये।
भगवान्को जो पसंद हो वही शुभ है, वही बन्ध है और वही उत्तम है। भगवान्की मुहर जिसपर लगेगी वही सिक्का दुनियामें चलेगा।
ईश्वर महान् होनेपर भी अपने भक्तका तुच्छ उपहार प्रेमपूर्वक प्रसन्न होकर ग्रहण करते हैं।
प्राणिमात्रको न सताना ही उत्तम दान है, कामनाका त्याग ही उत्तम तप है, वासनाओंको जीतनेमें ही वीरता है और सत्य ही समदर्शन है।
काम, क्रोध बड़े ही क्रूर हैं, इनमें दयाका नाम नहीं, इन्हें काल ही समझो। ये ज्ञाननिधिके साँप, विषयकन्दराके बाघ, भजनमार्गके घातक हैं। ये जलमें नहीं बिना ही जलके डुबो देते हैं, बिना ही आगके जला देते हैं और बिना ही शस्त्रके मार डालते हैं।
जिससे भगवान् मिलें वह लोकदृष्टिमें हेय-कर्म हो तो भी करें, जिससे भगवान् छूट जायँ वह शुभ दीखनेवाला कर्म भी न करें।
जिसके हृदयमें दया और धर्म बसते हैं, जो अमृत-वाणी बोलते हैं और जिनके नेत्र नम्रतावश नीचे रहते हैं, असलमें वे ही ऊँचे हैं।
अन्तःकरणमें उपजा हुआ ईश्वर-दर्शनका एक कण जितना उत्साह भी स्वर्गके लाखों मन्दिरोंमें जानेकी मिठाससे भी अधिक मीठा है।
भगवान्का नाम ही भव-रोगकी दवा है। अच्छा न लगनेपर भी नाम-कीर्तन करते रहना चाहिये, करते-करते क्रमशः नाममें रुचि हो जायगी।
प्रभुके ही प्रेमपात्र बननेकी ही कोशिश करो। याद रखो, संसारके प्रेमपात्र बनने जाओगे तो नरक और अधोगति तैयार है। यह सार-की-सार बात है।
जिसको भगवत्की प्राप्ति हो गयी है, वह पुरुष ईश्वर-भजनको छोड़कर दूसरोंका मार्गदर्शक या उपदेशक नहीं बनता, क्योंकि उसकी दृष्टिमें एक प्रभुके सिवा कोई भी दूसरा रक्षक- शिक्षक या मार्गदर्शक है ही नहीं।
मिलो उन्हींमें जो सर्वतोभावसे समरसमें हों, वे ही तुम्हारे कुल-परिवार हैं। वाद-विवादमें पड़ोगे तो फन्देमें फँसोगे।
जो एक प्रभु अपनी नियामक शक्तिके द्वारा सबको नियममें रखते हैं, जो एक अहेतु होते हुए ही सब लोकोंकी उत्पत्ति और लय करनेमें समर्थ हैं, उस देवको जो लोग पहचान लेते हैं वे अमृतरूप हो जाते हैं।
तुममें- हममें तथा सब प्राणियोंमें सर्वत्र एकमात्र भगवान् विष्णु ही व्याप्त हैं, फिर असहिष्णु होकर क्यों वृथा कोप करते हो ? सबके अंदर एकमात्र आत्माको देखो और भेदज्ञानको कर दो।
जिस पापके आरम्भमें ईश्वरका भय और अन्तमें ईश्वरसे याचना होती है, वह पाप भी साधकको ईश्वरके समीप ले जाता है; किंतु जिस तपश्चर्याके आरम्भमें अहंभाव और अन्तमें अभिमान होता है, वह तप भी तपस्वीको ईश्वरसे दूर ले जाता है।
अगर उस करुणासागरकी करुणाकी एक बूँद भी तुमपर गिर जाय, तो दुनियामें किसीसे कुछ भी माँगनेकी तुम्हें। जरूरत नहीं रह जायगी।
चार चीजोंका सदा सेवन करना चाहिये - सत्संग, संतोष, दान और दया।
इन चार बातोंका पालन करोगे तो तुमसे शुद्ध साधना हो सकेगी - 1 - भूखसे कम खाना, 2-लोकप्रतिष्ठाका त्याग, 3 - निर्धनताका स्वीकार और 4-ईश्वरकी इच्छामें संतोष।
दृढ़ निश्चय करके भगवान्की खूब भक्ति करनी और शरीर छूटनेसे पहले ही भगवान्को प्राप्त करनेका प्रयत्न करना-यही जीवनका कर्तव्य है।
मस्तक नीचा करो, संतोंके चरणोंमें लगो औरोंके गुण-दोष न सुनो, न मनमें लाओ। शक्तिभर उपकार भी किये चलो। यह सुलभ उपाय है।
मनुष्य- देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धारका उपाय कर सकता है, क्योंकि इसी जन्ममें भले-बुरेके विचारकी शक्ति होती है। अतः मनुष्य-जन्मको मामूली समझकर यों ही दुनियाके सुख-भोगों में मत गँवाओ।
उस प्राणारामको प्राण समर्पण कर देनेपर जैसा निश्चित हुआ जाता है, वैसा और किसीको भी अर्पण करनेपर नहीं; क्योंकि अन्य किसीमें इतनी सामर्थ्य ही नहीं है।
यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि कोई मनुष्य भला-बुरा नहीं कर सकता, जो कुछ होता है, ईश्वरहीका किया होता है।
प्राण जाय तो भी एकान्तमें या लोकान्तमें कभी स्त्रियोंसे सम्भाषण न करे।