सारा प्रपंच प्रारब्धके सिर पटको और श्रीहरिको ढूँढ़ने में लगो।
इस जमानेमें चुपचाप भगवान्का स्मरण करना और उनकी कृपापर विश्वास करके अपने जीवनको उन्हींपर न्योछावर कर देना उचित है। दयामय आप ही सँभालेंगे।
जो मूर्ख वासनाके रहते गेरुआ वस्त्र धारण करता है उसका यह लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।
साधुओंका संग करो। संत-संगसे प्रेम सुख लाभ करो।
हरिनामरूपी गोलीके साथ प्रेम, भक्ति, निष्ठा, एकाग्रता और निष्ठारूप अनुपान रहनेसे इन्द्रियरूप रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
साधक जब गद्गद हो पुकारता है, तब प्रभु विलम्ब नहीं कर सकते।
प्रभुप्रेमी मनुष्य जब अपने शरीरके प्रति स्नेहरहित हो जाता है, तभी उसकी साधना और उसका जीवन सुखरूप बनता है।
श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे हैं। वह सम्पूर्ण विश्वके अंदर और बाहर व्याप्त हैं। जहाँ हो वहीं देखो, वहीं तुम्हें वह दर्शन देंगे।
हरि, हरि, हरि जिसकी वाणी यह मन्त्र जपती है। उसे मोक्ष मिलता है।
करुणामय श्रीहरि सबका भला करते हैं। जो उनकी शरणमें पहुँच जाता है, उसके पाप रहते ही नहीं। रूईके ढेरमें जैसे अग्नि पड़नेसे रूई भस्म हो जाती है, उसी प्रकार सारे पाप भस्म हो जाते हैं।
हे प्रभो! तेरे सिवा मेरा कोई नहीं, तू मेरा है तो फिर सब कुछ मेरा है।
हृदयमें प्रभुका नित्य ध्यान हो, मुखसे उनका नामकीर्तन हो, कानोंमें सदा उनकी ही कथा गूँजती हो, प्रेमानन्दसे उनकी ही पूजा हो, नेत्रोंमें हरिकी मूर्ति विराज रही हो, चरणोंसे उनके ही स्थानकी यात्रा हो, रसनामें प्रभुके तीर्थका रस हो, भोजन हो तो वह प्रभुका प्रसाद ही हो। साष्टांग नमन हो उनके ही प्रति, आलिंगन हो आह्लादसे उनके ही भक्तोंका और एक क्या आधा पल भी उनकी सेवाके बिना व्यर्थ न जाय। सब धर्मोंमें यही श्रेष्ठ धर्म है।
जो मनुष्य जीवन-निर्वाहके लिये नीतिपूर्वक व्यवहार करता है वह भी ईश्वरकी महिमाको समझता है; परंतु जो मनुष्य ईश्वरके लिये ही जीवन-निर्वाह करता है, वह तो ईश्वरको प्राप्त करता है।
सद्विचारोंके परायण होना ईश्वरकी कृपाका चिह्न है। भगवत्कृपा बिना किसीका परम कल्याण नहीं हो सकता।
जिसकी भेदबुद्धि नहीं रही, जिसे समत्वका बोध हो गया, उसीको सर्वत्र भगवत्स्वरूपके अनुभवका परमानन्द प्राप्त होता है।
जो अपनेको भुलाकर ब्रह्माण्ड-संचालनकी प्रक्रियाको समझनेमें व्यस्त है ऐसे अभिमानी तत्त्ववेत्ताकी अपेक्षा परमात्माकी सेवा करनेवाला गृहस्थ ही लाख दर्जे अच्छा।
वास्तविक साक्षात्कारमें एक ईश्वरमें ही स्थिति होनेके कारण अहंता और ममताका नाश हो जाता है। ऐसी हालतमें तुम अपने शरीर और जीवको नहीं देख पाओगे।
जिसने तुम्हें यहाँ भेजा है, उसने तुम्हारे भोजनका प्रबन्ध पहलेसे कर रखा है।
अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शान्तिघन परमात्मा दुःख का ध्यान करो। जो उस ब्रह्मानन्दकी जरा-सी भी झाँकी देख पाते हैं; उनकी दृष्टिमें संसारके राजाओंका आनन्द तुच्छ हो जाता है।
व्यर्थ वस्तुओंको पाखण्डियोंके लिये छोड़ दो, परंतु भगवान्की आज्ञा-पालन करनेके लिये तत्पर रहो।
लोभ, दीनता, भय और धन आदि किसी भी कारणसे मैं अपना धर्म नहीं छोड़ सकता - यह मेरा दृढ़ निश्चय है।
ईश्वरके सिवा तुम जो कुछ जानते हो उसे भूल जाओ और इधर-उधरकी बातें जाननेके लिये माथा मत मारो। केवल ईश्वरमें लीन रहो- उसीके रंगमें रंग जाओ।
जो पाप प्रकट हो जाते हैं वे बदनामी देकर नष्ट हो जाते हैं, इसलिये हिम्मत करके अपने पापको प्रकट कर दो और बदनामीको सिर चढ़ाकर सुखी हो जाओ।
भगवान् भक्तिके वश हैं, वे अपनी ओर ममता और प्रेम चाहते हैं।
अंगारोंकी सेजपर सुखकी नींद ? इस दुःखभरे जगत् सुखकी खोज।
जो ईश्वरके नजदीक आ गया उसे किस बातकी कमी? सभी पदार्थ और सारी सम्पत्ति उसीकी है? क्योंकि उसका वह परम प्रिय सखा सर्वव्यापी और सारी सम्पत्तिका स्वामी है।
अपनेको दूसरोंसे बड़ा न समझो, अन्यथा परमात्माकी दृष्टिमें, जो मनुष्यकी सच्ची परख रखता है, तुम उनसे भी नीच समझे जाओगे।
मर्यादासे चलो। कभी सीमाके बाहर मत जाओ। अपनी हानि करनेवालेको जहाँतक बन पड़े, क्षमा करो।
रे मन ! यह कह कि मैं ‘राम कृष्ण हरि’ कहूँगा, उल्लासके साथ हरि-कथा सुनूँगा, संतोंके पैर पकडूंगा। तू इतना जरूर कर कि मैं जब हरि-प्रेमसे रंगशालामें नाचूँ, तब तू भी अंदरका मैल धोकर तैयार रह और तालपर ताली बजाता चल।
जब दृश्य नहीं है, तब दृष्टि भी कुछ नहीं है, दृश्यके बिना देखना कहाँ, दृश्यके कारण ही द्रष्टा और दर्शन हैं।
इस असार संसारके उलट-फेरके फेरमें न पड़कर सर्वत्र समताका पवित्र भाव हृदयमें रखो; सर्वभूत-प्राणियों में समता रखना ही भगवान्की सबसे बड़ी भक्ति है।
विशेष जरूरतकी भी कोई चीज तुम्हारे पास न हो तो यह विश्वास करो कि तुम्हारे भलेके लिये ही प्रभुने ऐसा किया है। इसीका नाम प्रभुपर निर्भरता है।
इस संसारमें दो ही अमूल्य रत्न हैं-एक भगवान् और दूसरा संत। इन दोनोंका कोई मोल-तौल नहीं हो सकता।
अगर मन एक ही ठिकाने ठहर जावे तो सहजमें ही हीरा पैदा हो जावे।
प्रत्येक मनुष्य अपने मतको सच्चा और अपने बच्चेको सुन्दर समझता है, इससे सिद्ध है कि सबके मतों और सबके बच्चोंका समान आदर करना और समान प्रेम रखना अपना कर्तव्य है।
तुम अपनेको साधनाके समुद्रमें फेंक दो। सुख दुःखकी कोई परवा न करो, हिम्मत और धीरज रखना, प्रभु अपने दयाके जहाजको लेकर सदा तुम्हारे साथ हैं।
ईश्वरसे डरनेवालेका मन ईश्वरको नहीं छोड़ता। उसके मनमें प्रभु प्रेम दृढ़ रहता है और उसकी बुद्धि पूर्णताको प्राप्त होती है।
शास्त्र जिस चीजको छोड़ देनेको कहे, उसे, चाहे वह राज्य ही क्यों न हो, तृणवत् त्याग दे। शास्त्र जिसे ग्रहण करनेको कहे, चाहे वह विष ही क्यों न हो, उसे जरूर ग्रहण करे।
जो ईश्वरकी ओर जाता है उसे वह कुछ ऐसी वस्तु दे देता है जिससे उसका अपना सब कुछ चला जाता है और उसके बदलेमें भजन, भाव, उपासना, प्रार्थना आदि दैवी पदार्थ प्रभुकी ओरसे मिलते रहते हैं।
लालच बुरी बला है। जिन्होंने धन पैदा करके उसे अच्छे कामोंमें लगाना नहीं सीखा, उनकी बुरी दशा होती है, इससे तो धन न होना ही अच्छा है, जो व्यर्थकी चिन्ता तो न हो।
पहली डुबकीमें रत्न नहीं मिला, इससे रत्नाकरको रत्नहीन मत समझ। धीरजके साथ साधन करते रहो, समयपर भगवत्कृपा होगी ही।
स्त्रियोंका शरीर दीप-शिखाके समान है। रे मन! तू उसमें पतंग होकर जल मत। फिर तुझे लोक या परलोकमें कहीं भी ठौर-ठिकाना न मिलेगा।
गंगाकी धाराकी तरह मनकी गति श्रीहरिकी ही ओर बहती रहे। फिर श्रीकृष्ण दूर नहीं रहते। वे तो आकर भक्तसे लिपट जाते हैं। यहीं तो उनकी भक्तवत्सलता है।
क्रोध चार तरहका होता है- (1) लोहेमें लकीर सा, (2) पत्थरमें लकीर-सा, (3) बालूमें लकीर-सा और (4) पानीमें लकीर-सा। लोहेमें लकीर-सा तामसी मनुष्योंका होता है, जो जन्म-जन्मान्तरतक चलता है। पत्थरमें लकीर-सा राजसी पुरुषोंका होता है, जो कुछ दिनोंमें मिट जाता है। बालूमें लकीर-सा सात्त्विक सज्जनोंका होता है जो हवाके झोंकेसे बालूके लकीरकी भाँति तुरंत नष्ट हो जाता है और पानीमें लकीर-सा संतोंका होता है, जो आता-सा दीखता है पर वास्तवमें होता नहीं।
भगवत्प्रेमकी प्राप्ति किसी भी साधनासे नहीं हो सकती। यह तभी मिलता है जब भगवान् स्वयं कृपा करके देते हैं।
भगवान्के द्वारपर पलभर तो खड़े रहो।
सांसारिक पुरुष धन, मान, विषयादि असार वस्तुओंका संग्रह कर सुखकी आशा करते हैं। परंतु वह सब किसी प्रकार भी सुख नहीं दे सकते।
जो मनुष्य भगवान्को छोड़कर दूसरी बातों में फँसा रहता है, वह अपने ही हाथों अपना गला काटता है।
सच्चिदानन्दघनविग्रह श्रीकृष्ण हम सबके 'मोहन' हैं। परंतु उनको केवल मोहन रूपसे ही नहीं जानना चाहिये। ये 'मदन मोहन' हैं यह भी जान लेना चाहिये।
जिस वाणीमें हरिकथा-प्रेम है, वही वाणी सरस है।
तीन चीजें हैं, जिनको जितना बढ़ाओगे, उतनी ही बढ़ती रहेंगी, इनसे सावधान रहो- भूख, नींद और भय।
भगवन्! तुम भरमाने-भटकानेमें बड़े कुशल हो तो मैं भी बड़ा अड़ियल हूँ। तुम्हें मौन साधे बैठे रहना ही अच्छा लगता है तो क्या इतनेसे ही मैं तुम्हारा पल्ला छोड़ दूँगा।
ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होगी, इसमें कोई संदेह नहीं, परंतु उस ज्ञानकी कद्र करनेवाला शुद्ध मन भी तो होना चाहिये। वैराग्यके बिना ज्ञान कभी नहीं ठहर सकता।
संतोंके घर-द्वार, अंदर-बाहर, कर्ममें, वाणीमें और मनमें भगवद्भक्तिके सिवा और कुछ भी नहीं मिल सकता।
विद्या व्यर्थ गयी, व्रत बुरे सिद्ध हुए और बहुज्ञता घातक हुई यदि भगवान् श्रीकृष्णके सुभग-शीतल त्रिविध ज्वालाहरण चरणोंमें प्रीति न हुई।
हमें अपने अमूल्य समयको अमूल्यकार्यमें ही लगाना चाहिये। भगवान्की स्मृति ही अमूल्य कार्य है।
वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता-पिता, भाई बन्धु आदि जल जायँ जो श्रीहरिके चरणोंके सम्मुख होनेमें सहर्ष सहायक नहीं होते।
जिस देहको, जिस नामको और जिस नाम तथा देहके सम्बन्धको सच्चा मानकर तुम विपत्तिसे घबड़ाते हो, वह देह, नाम और सम्बन्ध-सब आरोपमात्र है, इस जन्मसे पहले भी तुम्हारा नाम, रूप और सम्बन्ध था, परंतु आज उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, यही हाल इसका भी है, फिर विपत्तिमें घबड़ाना तो मूर्खता ही है, क्योंकि विपत्तिका अनुभव देह, नाम और इनके सम्बन्धको लेकर ही होता है।
धन जिनका गुलाम है। वे बड़भागी हैं और जो धनके गुलाम हैं वे बड़े अभागे हैं।
उस काम-कल्पनाको त्यागनेका मुख्य साधन केवल सत्संग है। संतोंके श्रीचरणोंको वन्दन करनेसे काम मारा जाता है।