कमलके पत्तेपर ठहरी हुई जलकी बूँदके समान क्षणभंगुर प्राणोंके लिये, मूर्खतावश धनमदसे निःशंक धनी मनुष्योंके सामने बेहया होकर अपनी तारीफ आप करनेका घोर पाप करनेवाले हमलोगोंने कौन-सा पाप नहीं किया।
परमात्मा निश्चय ही हमें सुख देते हैं। यदि हमारे पीछे पाप न लगे तो हमारे सामने सदा कल्याण ही होता रहे।
भगवान्के दास कहलाकर जगत्की आशा मत रखो। जब समर्थ स्वामीको प्राप्त कर लिया तब किसीके सामने दीन क्यों होते हो।
प्रच्छन्न और अन्धकारगत वस्तुओंके सम्बन्धमें वाद-विवाद करने और झगड़नेसे तुम्हें क्या लाभ? आँख खोलकर भगवान्की इस रहस्यपूर्ण रचनाको तो देखो, फिर तुम्हें और कुछ देखना ही नहीं रहेगा।
जीवनमें पाँच बातें अमूल्य रत्न हैं- (1) ऐसी फकीरी जो अपार आन्तरिक सम्पत्तिका दर्शन करा दे, (2) ऐसा त्याग जो अखण्ड तृप्तिके दर्शन करा दे, (3) ऐसा दुःख जो नित्य प्रसन्नताके दर्शन करा दे, (4) ऐसी वीरता जो शत्रुके प्रति भी मित्रताके दर्शन करा दे और (5) ऐसी साधना तथा ऐसा भगवान्का स्मरण जो भगवान् के दर्शन करा दे।
मनुष्य ज्यों ही यह मानने लगता है कि मैं कुछ तो जानने लगा, तभीसे उसके ज्ञानके द्वार बन्द हो जाते हैं।
दौड़ी आओ, मेरी मैया! अब क्या देखती हो ? अब धीरज नहीं रहा। वियोगसे व्याकुल हो रहा हूँ अब जीको ठंडा करो, अबतक रोते ही बीता है। कब यह मस्तक तुम्हारे चरणोंमें रखूँगा, यही एक ध्यान है।
बिरले ही मनुष्य अपनी इच्छा और मनके विरुद्ध बर्ताव कर सकते हैं। ऐसा उपदेश तो बहुत लोग दिया करते हैं, परंतु इसका पालन बहुत थोड़े कर सकते हैं।
मनुष्य ज्यों-ज्यों संसारी परदोंसे ढकता जाता है, त्यों-ही-त्यों वह प्रभुकी पूजा और साधना छोड़ता जाता है।
अग्नि लोहेकी परीक्षा करता है और प्रलोभन एक सच्चे मनुष्यकी।
संसारी माया जालमें सुख नहीं है। संसारमें जो सुखी दीखते हैं, वे वास्तवमें दुःखी हैं। उनका सुख दिखावटी सुख है, सच्चा सुख नहीं।
एक ओर भोग हैं, जिनसे जन्म-मरण, सुख-दुःख आदिका चक्र चालू रहता है और दूसरी ओर भोग-त्याग है, जिससे मोक्ष मिलता है। यह मोक्ष भोग-त्याग और सच्चे ज्ञानके बिना नहीं मिलता।
सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि घरका पूर्ण रीतिसे परित्याग ही कर देना चाहिये; किंतु यदि घरको पूर्णरीत्या त्याग करनेका सामर्थ्य न हो तो घरमें रहकर सब कार्य श्रीकृष्णके ही निमित्त-उनके प्रीत्यर्थ ही करे; क्योंकि श्रीकृष्ण सभी प्रकारके अनर्थोंको मोचन करनेवाले हैं।
भगवान्के चरणोंमें अपरोक्ष स्थिति हो जाय तो वहाँ क्षणार्धमें होनेवाली प्राप्तिके सामने त्रिभुवन-विभव-सम्पत्ति भी भक्तके लिये तृणके समान है।
सारा प्रपंच छोड़कर भगवच्चरणोंका ही सदा ध्यान करना चाहिये।
महापुरुष, उनका मत और उनका जीवन साधकोंके लिये दर्पण है, पथप्रदर्शक है, मार्ग है और द्वार है, जिससे वे नित्य जीवनक्षेत्रमें प्रवेश कर सकते हैं।
लोभ, मोह, आशा, तृष्णा, माया सब हरि-गुणगानसे रफूचक्कर हो जाते हैं।
मनने सबको बाँध रखा है। मनको बाँधना आसान नहीं। मनने देवताओंको पस्त कर डाला। वह इन्द्रियोंको क्या समझता है।
तुम्हारे चरणोंको छोड़कर मैं जाऊँ भी कहाँ ? मेरे लिये और आश्रय ही क्या है? तुम चाहे मेरे कष्टोंका निवारण न करो, मेरा हृदय तो तुम्हारी ही दयासे द्रवीभूत होगा।
गुरु और शिष्यका सम्बन्ध पूर्वज और वंशजके सम्बन्ध - जैसा ही है। श्रद्धा, नम्रता, शरणागति और आदरभावसे शिष्य गुरुका मन मोह ले तो भी उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है।
माँगना और मरना दोनों समान हैं, बल्कि माँगनेसे मरना भला। याचना करनेसे त्रिलोकीनाथ भगवान्को भी छोटा होना पड़ा, तब दूसरोंके लिये कहना ही क्या।
जीवित अवस्थामें शरीरको लोग देव (नरदेव, भूदेव) शब्दसे पुकारते हैं, परंतु मर जानेपर उस शरीरके या तो (सड़ जानेपर) कीड़े हो जाते हैं, या (जला देनेपर) राख हो जाती है अथवा (पशु आदिके खानेपर उसकी) विष्ठा बन जाती है। ऐसे शरीरके लिये जो मनुष्य दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करता है, जिससे नरककी प्राप्ति होती है, वह क्या अपने स्वार्थको जानता है।
जो दूसरोंके कामोंकी आलोचनामें ही लगे रहते हैं, वे अपना समय तो व्यर्थ खोते ही हैं, दोष देखनेकी उनकी आदत बन जाती है और जिनको दूसरोंमें दोष ही दीखते हैं उनके हृदयकी जलन कभी मिट ही नहीं सकती।
या तो जैसे बाहरसे दिखाते हो वैसे ही भीतरसे बनो, नहीं तो जैसे भीतर हो वैसे ही बाहरसे दिखाओ।
मेधावी और बहुश्रुत सत्पुरुषोंका संग करो, क्योंकि जो महापुरुषोंकी शरण लेता है, वह उसको जानकर सुख प्राप्त करता है।
किसी मनुष्यको दैवी सुख नहीं मिल सकता जबतक उसने परिश्रमपूर्वक पवित्र आत्मशुद्धिका अभ्यास न किया हो।
घर - जंजालोंमें रहकर सर्दी-गर्मी और शोक - तप आदिके कष्ट उठाने ही पड़ते हैं, फिर तप ही क्यों न किया जाय ? क्योंकि घरकी झंझटोंके दुःखसे कोई लाभ नहीं, किंतु तपसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है।
क्या करूँ अब इस मनको? यह विषयकी वासना तो नहीं छोड़ती, मनानेसे भी नहीं मानती ! ठीक पतनकी ओर लिये जा रही है। हे हरि ! अब दौड़ो, नहीं तो मैं अब डूबा।
जगत्में केवल सत्संग ही भवसागर से पार करनेकी नौका है, उसीका आश्रय ग्रहण करो।
भगवन्! मैंने अपना सम्पूर्ण शरीर आपके चरणों में समर्पित किया है और आप क्या मेरा छूत मानते हैं या मेरे सामने आते हुए लजाते हैं? हृदयेश ! प्रेम-दानकर मुझे मना लो।
इस दुनियाके कँटीले झाड़के नीचे बैठकर प्रभुका ध्यान करना मुझे पसन्द है; किन्तु स्वर्गके कल्पतरुके नीचे बैठकर ईश्वरको भूल जाना मुझे पसंद नहीं।