अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



जिस वस्तुके नाशसे बड़ा दुःख होता है, उसके प्राप्त होनेसे पूर्व सुख या दुःख कुछ भी नहीं होता। अतएव उसकी प्राप्तिके पूर्वकी अवस्थाको ध्यानमें रखकर मनको दुःखी नहीं करना चाहिये।


प्रेममें जो तन्मय हो जाते हैं उन्हींका प्रेम प्रेम है। बिना तन्मयताके प्रेम थोथा है।


न तो स्त्रीके साथ बात करनी चाहिये, न पहले देखी स्त्रीकी याद करनी चाहिये और न उनकी चर्चा करनी चाहिये। यहाँतक कि उनका चित्र भी न देखें।


ईश्वरको जाननेवालेका हृदय निर्मल काँचकी हाँड़ी में जलते हुए दीपकके समान है। उसका प्रकाश सर्वत्र फैलता है। खुद उसे तो फिर डर ही कैसा।


सफेद कपड़ेमें थोड़ी भी स्याहीका दाग पड़नेसे वह दाग बहुत स्पष्ट दीखता है, उसी प्रकार पवित्र मनुष्योंका थोड़ा दोष भी अधिक दिखलायी देता है।


यदि तु सुख-शान्तिसे जीवनयापन करना चाहता है तो तृष्णा पिशाचीके फंदेसे निकलकर भाग्यपर संतोष कर।


भगवान् जिसपर अनुग्रह करना चाहते हैं, उसे वे पहले वैराग्य-दान करते हैं।


श्रद्धाका आश्रय लिये बिना धर्मके मार्गपर नहीं चला जा सकता चाहे और कुछ भी न हो, परंतु परमात्मापर श्रद्धा जरूर होनी चाहिये। श्रद्धासे सारे पाप भस्म हो जाते हैं।


जीभसे प्रार्थना बोल देने और सिर झुका देनेसे ही तो कुछ नहीं होता। प्रार्थना एकाग्रतापूर्वक होनी चाहिये।


सच्चा विरक्त उसीको कहना चाहिये जो मानके स्थानसे दूर रहता है। वह सत्संगमें स्थिर रहता है। अपना कोई नया सम्प्रदाय नहीं चलाता, नया अखाड़ा नहीं खोलता, अपनी गद्दी नहीं कायम करता। जीविकाके लिये दीन होकर किसीकी खुशामद नहीं करता। वह लौकिक नहीं होता, उसे वस्त्रालंकारकी इच्छा नहीं होती, परान्नमें रुचि नहीं होती, स्त्रियोंको देखना उसे अच्छा नहीं लगता।


देहधारियोंके भोग - विषय - सुख-साधन बादलों में चमकनेवाली बिजलीकी तरह चंचल हैं; मनुष्योंकी आयु या उम्र हवासे छिन्न-भिन्न हुए बादलोंके जलके समान क्षणस्थायी या नाशवान् है और जवानीकी उमंग भी स्थिर नहीं है। इसलिये बुद्धिमानो ! धैर्यसे चित्तको एकाग्र करके उसे योगसाधनामें लगाओ।


ऐसी विषम अवस्थामें जब मन और इन्द्रियाँ एक तरफ हो गयी हैं और दूसरी तरफ मैं हूँ-मेरी-उनकी ऐसी तनातनी है, तब हे हरि! आप ही मध्यस्थ होकर इस कलहको मिटाइये, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।


शासन करनेकी अपेक्षा आज्ञा पालना अधिक वांछनीय है।


निरन्तर हरिका ध्यान करनेसे सब कर्मोंके बन्धन कट जाते हैं। राम-कृष्ण-नाम-उच्चारणसे सब दोष दिगन्तमें भाग जाते हैं।


किसी धार्मिक संघ या मठमें रहकर वहाँके नियमोंको निष्ठापूर्वक मृत्युपर्यन्त पालन करना सहज बात नहीं है।


हम जो अपने शत्रुओंके गुप्त इतिहासको पढ़ें तो हमें प्रत्येक मनुष्यके जीवनमें इतना दुःख और शोक भरा मिलेगा कि फिर हमारे मनमें उनके प्रति जरा-सा भी शत्रुभाव नहीं रहेगा।


भगवान्‌के होकर रहो। ज्ञानलव-दुर्विदग्ध तार्किकोंकी अपेक्षा अपढ़, अनजान, भोले-भाले लोग ही अच्छे होते हैं। मूर्ख बल्कि अच्छे हैं, वे विद्वान् तार्किक तो किसी कामके नहीं।


जो मनुष्य सज्जनताके व्यवहारमें कुशल है, उसके लिये कोई पदार्थ दुर्लभ नहीं है।


जिस क्षण 'तेरा है' कहकर भक्त भगवान्को पुकारता है, उसी क्षण प्रभु उसे अपना लेते हैं। वे तो भक्तोंके लिये भूखे-से बैठे रहते हैं, लोगोंके मुखकी ओर ताकते रहते हैं कि अब कोई कहे कि 'मैं तुम्हारा हूँ'।


सेवकके तनमें जबतक प्राण हैं तबतक स्वामीकी आज्ञा ही उसके लिये प्रमाण है।


जो मूर्ख अपनी मूर्खताको जानता है, वह धीरे धीरे सीख सकता है, परंतु जो मूर्ख अपनेको बुद्धिमान् समझता है उसका रोग असाध्य है।


इन तीन बातोंको अपना परम शत्रु समझो - धनका लोभ, लोगोंसे मान पानेकी लालसा और लोकप्रिय होनेकी आकांक्षा।


जो जन्म-मरणसे मुक्त होना चाहते हैं, वे तृष्णा राक्षसीके भुलावेमें न आवें। इसके चक्करमें फँसनेसे बाध्य होकर नीच-से-नीच कर्म करनेपर उतारू हो जाता है।


इच्छाको रानी बना लो या दासी, रानी बनाकर उसकी आज्ञामें चलोगे तो वह दुःखके कुण्डमें डुबो देगी और दासी बनाकर अपनी आज्ञामें रखोगे तो सारे सुखोंकी प्राप्ति होगी।


वसुदेवसुत देवकीनन्दन ही सर्वरूपाकार सर्वदिक् नेत्र और सर्वदेशनिवास परमात्मा हैं और भक्तोंकी प्रीतिके वश अमूर्त होकर भी व्यक्त हुए हैं।


सतीको वस्त्रालंकार पहनाकर चाहे जितना सिंगारिये, पर जबतक पतिका संग उसे नहीं मिलता, तबतक वह मन-ही मन कुढ़ा करती है, वैसे ही तुम्हारे दर्शन बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।


जो मनुष्य संसारी मनुष्योंका संग छोड़कर निर्जन स्थानमें रहता है, उसे भगवान्का स्मरण और प्रभुकृपाके चिन्तनको छोड़कर और कुछ करना ही नहीं चाहिये। इसके बिना जो एकान्त सेवन किया जाता है, वह तो प्रमाद, विपत्ति और मृत्युतकको बुलानेवाला होता है।


प्रेमियोंके हे प्रियतम! हे सर्वोत्तम! मुझसे बोलो। महाराज ! शरणागतको पीठ न दिखाओ, यही मेरी विनय है। जो तुम्हें पुकार रहे हैं, उन्हें चट उत्तर दो; जो दुःखी हैं, उनकी टेर सुनो; उनके पास दौड़े आओ। जो थके हैं उन्हें दिलासा दो और हमें न भूलो, यही तो हे नारायण! मेरी तुमसे प्रार्थना है।


जिसकी हार हुई है, वह सदा असंतुष्ट रहता है। सुखी वही है, जो हार-जीतकी परवाह नहीं करता।


शरीरके लिये कोई कितनी ही चेष्टा क्यों न करे, उसे कितने ही आरामसे ही रखनेका उपाय क्यों न करे, वह नाश होगा ही, आज हो या सौ वर्षके बाद।


भगवान् भक्तके आगे-पीछे उसे सँभाले रहते हैं, उसपर जो कोई आघात होते हैं, उनका निवारण करते रहते हैं. उसके योगक्षेमका सारा भार स्वयं वहन करते हैं और हाथ पकड़कर उसे रास्ता दिखाते हैं।


मनुष्यको चाहिये कि अपना मित्र आप ही बने; बाहरी मित्रकी खोजमें न भटके।


देवतालोग जबतक उन्हें अमृत नहीं मिला, तबतक न तो अमूल्य रत्नोंको पाकर ही तृप्त हुए और न भयानक जहरसे ही डरे, समुद्र मन्थनमें लगे ही रहे। इसी प्रकार धीर पुरुष अपने उद्देश्यको सिद्ध किये बिना विश्राम नहीं लेते।


मेरे माँ-बाप, भाई-बहन सब हरि ही हैं। हरिको छोड़ कुल-गोत्रसे मुझे क्या काम ? हरि ही मेरे सर्वस्व हैं। उनके सिवा ब्रह्माण्डमें मेरा कोई नहीं।


एक दिन इस जगत्का ही अस्तित्व नहीं रहेगा, तब और किसकी आस्था की जाय ? यह जगत् ही भ्रममात्र है।


साधुके लिये अपना पराया कुछ भी नहीं, सारे विश्वसे ही उसकी जान-पहचान है, बड़ा पुराना नाता है। हवाका चलना जैसे सीधा होता है वैसे ही उसका भाव सरल होता है, उसमें शंका या आकांक्षा नहीं होती।


पतिव्रताके लिये जैसे पति ही प्रमाण है, वैसे ही हमारे लिये नारायण हैं।


जो मनुष्य अपने क्रोधको अपने ही ऊपर झेल लेता है वह दूसरोंके क्रोधसे बच जाता है।


अभिमान या अहंकार महान् अनर्थोंका मूल है यह नाशकी निशानी है।


अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा न रखकर भगवान्‌की इच्छाके अनुकूल हो जाय । माली जलको जिधर ले जाता है, जल उधर ही शान्तिके साथ जाता है। वैसे ही तुम बनो।


जिसने मनरूपी मतवाले हाथीको वशमें कर लिया, वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष है।


मनुष्य जितना अधिक नम्र होगा, जितना अधिक परमात्मामें उसका विश्वास होगा, उतना ही अधिक वह अपने कार्योंमें कुशल होगा और उतनी ही अधिक शान्ति और हार्दिक तुष्टिको भोगेगा।


जो वस्तु - जो स्थिति तुम्हें ईश्वरसे दूर रखती है, उससे तुम स्वयं दूर रहो, यही निवृत्ति है।


नम्रताका कवच पहन लेनेपर कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। कपासकी रूई तलवारसे भी नहीं कटती।


मनुष्यका खड़ा रहना, चलना, दूसरोंको ठगना, छिपकर कार्य करना, दो आदमियोंका गुप्त बातचीत करना सब कुछ परमेश्वर जानता है।


विषय-तृष्णाके जो अधीन होता है, उसीके रुखपर नाचता है, वह मदारीका बंदर जैसा है।


कहनेसे कुछ भी काम नहीं सरता, काम चलता है करनेसे।


सभी वैरियोंके साथ भलाई और नम्रताका बर्ताव करनेसे सुख होता है, परंतु मन-वैरीके साथ नम्रता करनेसे उत्पन्न होता है। अतएव भयानक वैरी मनको मारो।


जिनमें भगवान्‌को छोड़कर किसी वस्तुमें जरा भी अनुराग नहीं रहता, वे ही सच्चे महाजन या महापुरुष हैं।


प्रलोभनसे आत्मविजयका अवसर मिलता है, इससे वे प्रायः हमारे लिये लाभदायक होते हैं। यद्यपि वे हैं बड़े कष्टकर और दुःखदायी, किन्तु उनसे मनुष्य विनम्र, साहसी, पवित्र और शिष्ट हो जाता है।


सदा सच बोलना चाहिये। कलियुगमें सत्यका आश्रय लेनेके बाद और किसी साधन-भजनकी आवश्यकता नहीं। सत्य ही कलियुगकी तपस्या है।


राम, कृष्ण, हरि, नारायण-बस, इससे बढ़कर और क्या चाहिये।


जो मनुष्य पापके द्वारा कुटुम्बका भरण-पोषण करता है, उसको महाघोर अन्धतामिस्रनामक नरकमें जाना पड़ता है, उस नरकको भोगनेके बाद वह और भी नीची योनियोंमें जाकर भाँति-भाँतिके कष्ट भोगता है। फिर जब पापका फल भोगकर शुद्ध होता है, तब उसे मनुष्य योनि मिलती है।


भगवत्साक्षात्कार करनेवालेका नाम ही विद्वान् है।


यदि मन निश्चल है, वचन निर्मल है, करनी भली है तो फिर साधकको और चाहिये ही क्या।


जिस भक्तको प्रभुकी भक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके सभी व्यापार भगवदाकार हो जाते हैं।


सौन्दर्य, यौवन और भोगकी शक्ति सभी क्रम क्रमसे चले जाते हैं, रहती है केवल भोगकी आसक्ति, जो बुढ़ापे में भी मनमें सुख-शान्ति नहीं आने देती । सुख-शान्तिके लिये तो इस आसक्तिका ही त्याग करना आवश्यक है।


निर्लज्ज नामस्मरण ही मेरा सारा धन है और यही मेरा सम्पूर्ण साधन है।


भगवान् भक्तको गृहप्रपंच करने ही नहीं देते। सब झंझटोंसे अलग रखते हैं।


संसार क्षण-क्षण नाश हो रहा है, इस मिथ्या नामरूपके ढेरको देखकर भूलना नहीं चाहिये।