सब कुछ खोकर भी यदि मनुष्य भगवत्प्रेम प्राप्त कर ले और प्रभुकी सन्निधि प्राप्त करनेके लिये व्याकुल हो जाय तो जानना चाहिये कि उसका जीवन सफल हो गया।
जिसका मन विषयोंमें नहीं है, जिसका मन निर्मल हैं, जिसकी इन्द्रियाँ विकारको प्राप्त नहीं होती, उसीका नाम वैष्णव है।
जो तपस्वी है, त्यागी है, भक्त है, जिसने आत्म साक्षात्कार प्राप्त किया है, वही धर्मका सच्चा प्रवक्ता हो सकता है।
देह भगवान्को अर्पण करे। परमार्थ-लाभ ही महाधन है, यह जानकर भगवान्के चरण प्राप्त करे।
जिस मनुष्यमें ईश्वरका स्मरण करनेकी शक्ति हो उसको गरीब या दीन न समझकर महान् धनवान् समझो। और जिसके पास यह ऊँची-से-ऊँची और बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति नहीं है, वह चाहे बड़ा भारी बादशाह हो; परंतु असलमें वही गरीब और अनाथ है।
उत्तम गति अथवा अधोगति देनेवाला मन है। मन ही सबकी माता है। मनको छोड़कर और कोई खास हेतु नहीं है। अतः पहले इसे प्रसन्न-निर्मल कर लो।
कीर्तनसे शरीर हरिरूप हो जाता है। प्रेमछन्दसे नाचो डोलो। इससे देहभाव मिट जायगा।
जबतक लोक और लौकिक पदार्थोंमें आसक्ति रहेगी, तबतक ईश्वरमें सच्ची आसक्ति न हो सकेगी।
जैसे जलके बिना नाव करोड़ यत्न करनेपर नहीं चल सकती, इसी प्रकार सहज संतोष बिना कभी शान्ति नहीं। मिलती।
जिससे दस आदमी अच्छी प्रेरणा पाते हों तथा शुभ कार्यमें लगते हों तो समझना चाहिये कि उसके भीतर भगवान्की विभूति अधिक है।
जो झूठ नहीं बोलता, परनिन्दा नहीं करता, सद्गुणोंको धारण करता है, सबसे निर्वैर है, सबमें समभावसे आत्माको देखता है और हरिके चरणोंका प्रेमी है वही साधु है।
हे मेरी आत्माके प्रियतम स्वामी! मैं तुमको ही चाहता हूँ, मुझे और कोई भी वस्तु प्यारी न लगने दो, जो वस्तुएँ मुझे तुमसे दूर हटाती हों, वे मुझे जहर-सी लगने लगे। एकमात्र तुम्हारी इच्छा ही मेरे लिये मधुर हो—तुम्हारी इच्छा ही मेरी इच्छा बन जाय।
वीरताके साथ आत्मनिग्रह करो, एक प्रकारका अभ्यास दूसरे प्रकारके अभ्यासको जीत लेता है।
गाय जंगलमें चरने जाती है, पर चित्त उसका गोठमें बँधे बछड़ेपर ही रहता है। मैया मेरी! मुझे भी ऐसा ही बना ले, अपने चरणोंमें ठाँव देकर रख ले।
सारी चिन्ताओंके दूर करनेवाले सर्वशक्तिमान् भगवान्का चिन्तन करो, वे तुम्हारे परम सुहृद् हैं और सदा तुम्हारी सहायता करनेके लिये तैयार हैं।
हाथके ऊपर हाथ करो, पर हाथके नीचे हाथ न करो। जिस दिन दूसरोंके आगे हाथ फैलानेकी नौबत आवे, उस दिन मरण हो जाय तो अच्छा।
जिस तरह अंजलिमें जल नहीं ठहरता उसी तरह लक्ष्मी भी किसीके पास नहीं ठहरती।
दुर्जन यदि विद्वान् हो तो भी उसका संग नहीं करना चाहिये; क्योंकि मणिसे सुशोभित साँप क्या भयानक नहीं होता।
मनको सन्मार्गपर ले जानेका पहला साधन 'सत्य' है, दूसरा 'संसारसे उपरामता' है, तीसरा 'आचरणकी उच्चता और पवित्रता' है और चौथा 'अपने अपराधोंके लिये प्रभुसे क्षमाकी प्रार्थना करना' है।
मृत्यु आकर तुम्हें जगावे उसके पहले जाग जाओ।
जब हृदयमें किसीसे कुछ लेनेकी इच्छा ही नहीं तब जैसा ही धनी वैसा ही गरीब।
शास्त्रकी बातें यदि भूल जायें तो फिर याद कर ली जा सकती हैं, परंतु सदाचारसे एक बार भी भ्रष्ट हो जानेपर सँभलना मुश्किल होता है।
सदाचारके पालनसे मनुष्य दीर्घ मनचाही संतान और अटूट सम्पत्ति पाता है। इससे अल्पमृत्यु आदिका भी नाश होता है।
यदि दयालु प्रभु मुझे घरसे या देशसे निकाल दें, बिलकुल दरिद्र बना दें, मोहताज और जन्मरोगी बना दें तो भी मैं तो उनपर प्रेम ही रखूँगा।
दूसरेकी चीज लेनेकी कभी इच्छा नहीं करनी चाहिये। इस नियमके पालनसे चोरी नहीं होगी; घूस नहीं ली जा सकेगी, किसीका न्याय्य हक नहीं छीना जायगा, मुफ्तमें कुछ भी नहीं लिया जायगा, परस्त्रीके प्रति विकारसे नहीं देखा जायगा और केवल अपना हक ही लिया जायगा।
भक्तोंके लिये हे भगवन्! आपके हृदयमें बड़ी करुणा है, यह बात अब मेरी समझमें आ गयी। हे कोमलहृदय हरि ! आपकी दया असीम है।
फकीर वह है जिसे आज और कल - किसी दिनकी परवा नहीं, जो अपने और प्रभुके सम्बन्धके आगे लोक और परलोक दोनोंको तुच्छ समझता है।
विपत्तिमें कभी निराश मत होओ। याद रखो, अन्न उपजाकर संसारको सुखी कर देनेवाली जलकी बूँदें काली घटासे ही बरसती हैं।
संत दुर्लभ तो हैं, पर अलभ्य नहीं चन्दन महँगा मिलता है, पर मिलता है।
जरा-सी कामना रहते भगवान् नहीं मिलते। तागेमें अगर जरा-सा भी खूदा हो तो वह सूईमें नहीं जा सकता।
योग, तप, कर्म और ज्ञान- ये सब भगवान्के लिये हैं। भगवान्के बिना इनका कुछ भी मूल्य नहीं है।
किसी भी सांसारिक विषयके लिये या किसी व्यक्तिके प्रेमके कारण हमें कोई भी पाप नहीं करना चाहिये।
वही पूत सपूत है जो मन लगाकर भगवान्की भक्ति करता है, जिससे जरा-मरणसे छूटकर अजर-अमर हो जाता है।
बाहरी स्वाँगमें और सच्चे साधुमें उतना ही अन्तर है जितना पृथ्वी और आकाशमें । साधुका मन राममें लगा रहता है और स्वाँगधारीका जगत् के विषयोंमें।
जबतक जीवन है तबतक नाम-स्मरण करे, गीता भागवत श्रवण करे और हरि-हर-मूर्तिका ध्यान करे।
सबके अलग-अलग राग हैं। उनके पीछे अपने मनको मत बाँटते फिरो। अपने विश्वासको जतनसे रखो, दूसरेके रंगमें न आओ।
जिनमें प्रभुका विशुद्ध प्रेम नहीं है वे लोग प्रपंचको दोष न समझकर गुण ही मानते हैं।
जिस प्रकार स्नान आदिसे प्रतिदिन शरीर स्वच्छ करना जरूरी है। उसी प्रकार मनको भी रोज स्वच्छ करना चाहिये। मनको धोनेके लिये भगवान्का भजन ही स्वच्छ सरोवर है।
जिसने एक बार श्रीकृष्णरूपको देखा, उसकी आँखें फिर उससे नहीं फिरतीं, अधिकाधिक उसी रूपका आलिंगन करती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं।
आत्मस्थितिका विचार क्या करूँ ? क्या उद्गार करूँ? चतुर्भुजको देखे बिना धीरज ही नहीं बँध रहा है। तुम्हारे बिना कोई बात हो यह तो मेरा जी नहीं चाहता। नाथ! अब चरणोंके दर्शन कराओ।
अपने मतलबके लिये स्त्रीको पति प्यारा होता है। पतिके लिये स्त्रीको पति प्यारा नहीं होता। यही अवस्था दूसरी ओर भी है।
जो चीनीकी मिठास है, वही चीनी है। वैसे ही चिदात्मा जो है, वही यह लोक है, संसारमें हरिसे भिन्न और कुछ भी नहीं है।
शोक, मोह, दुःख-सुख और देहकी उत्पत्ति सब मायाके ही कार्य हैं और यह संसार भी स्वप्नके समान बुद्धिका ही विकार है। इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है। एक भगवान् ही सत्य हैं।
जो कुछ भी तुम्हारा है उसका त्याग करो और 'वह' जैसी आज्ञा दे उसका पालन करो।
जीभको एक बार नामकी चाट लग जानी चाहिये, फिर प्राण जानेपर भी नामको वह नहीं छोड़ती। नामचिन्तनमें ऐसा विलक्षण माधुर्य है।
जो काम, मद और क्रोधसे छूटकर ईश्वरके चरणोंमें लगे हुए हैं, वे सारे संसारको ईश्वरमय देखते हैं, इसलिये वे किससे क्रोध करें।
यदि भगवान् विष्णुका परमपद शीघ्र पाना चाहते हो तो शत्रु-मित्र, पुत्र-बन्धु आदिके बखेड़ोंसे चित्त हटाकर सर्वत्र समबुद्धि करो।
कुलटा स्त्रियाँ माता-पिता तथा परिवारवालोंके साथ रहकर संसारके सभी कार्य करती हैं, परंतु उनका मन सदा अपने यारमें लगा रहता है। हे संसारी जीव ! तुम भी मनको ईश्वरमें लगाकर माता-पिता तथा परिवारका काम करते रहो।
सदा प्रसन्न रहो। सब दुःखी जीवोंको सुखी करते रहोगे तो तुम्हारी प्रसन्नता बनी रहेगी।
जो मनुष्य परस्त्रीके साथ या स्त्री-सम्बन्धी बातें करनेमें रस लेता हो, निर्लज्ज हो, ऊपरसे मीठी-मीठी बातें बनानेवाला हो और रास्तेमें चलते-चलते खाता हो, उसका संग कभी नहीं करना चाहिये। ऐसे लोग प्रायः हृदयके कपटी और दुष्ट भाववाले होते हैं।
विरह-तापसे जबतक हृदय नहीं जलने लगता तबतक भगवान्की मुख - माधुरीके दर्शन नहीं होते।
भगवान्से बहुत ही विनयके साथ प्रार्थना करो कि वह तुम्हारे भीतर पश्चात्तापके भावको जाग्रत् करे।
व्यवहारको शुद्ध रखनेके दो उपाय हैं- धीरज और प्रेम।
अब भगवान्को छोड़ और कुछ बोलना ही नहीं है। बस, यही एक नियम बना लिया है। काम, क्रोध भी भगवान्को दे चुका है।
अच्छे कर्मोंका सम्पादन करो। स्वप्नमय वातावरणमें लीन मत रहो। इस प्रकार करनेसे तुम जीवन, मरण एवं अनन्त विस्तृत कालको एक महान् मधुर संगीतके रूपमें परिवर्तित कर दोगे।
अपनी स्त्रीके सिवा अन्य किसी स्त्रीसे सम्बन्ध न रखे। किसी भी स्त्रीको अपने पास सहसा न रहने दे। अपनी स्त्रीसे भी उचित ही सम्बन्ध रखे और चित्तको कभी आसक्त न होने दे।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि विषय-कामनामें फँसा हुआ मन जब-जब परमात्माको छोड़कर अन्यत्र जाय तब तब वहाँसे लौटाकर उसे हृदयस्थित भगवान्में लगावे। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करनेसे साधकका चित्त थोड़े ही कालमें ईंधनरहित अग्निकी भाँति शान्त हो जाता है।
माँके पास जाते बच्चेको जैसे कोई सोच-संकोच नहीं होता, वैसे ही संतके लिये लोगोंको अपना मन देते कोई शंका नहीं होती। उसके लिये कोई कोना-अँतरा नहीं हुआ करता। उसकी दृष्टिमें कपट नहीं होता, बोलनेमें संदेह नहीं होता दसों इन्द्रियाँ उसकी सरल, निष्प्रपंच और निर्मल होती हैं और उसके पंचप्राणोंके स्तर आठों मुक्त रहते हैं।
मनुष्यके किसी भी प्रयत्नसे भगवान्की प्राप्ति असम्भव ही है। प्रभुकी प्राप्तिका एकमात्र मार्ग प्रेम ही है। यह प्रेम शुद्ध, सात्त्विक और निष्काम होना चाहिये।
ज्ञानके नेत्र खुलनेसे ग्रन्थ समझमें आता है, उसका रहस्य खुलता है, पर भावके बिना ज्ञान अपना नहीं होता।