नामसे बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है। व्यर्थ और रास्तोंमें मत भटक।
वे सत्यके उपासक महात्मा मुनि धन्य हैं, जिन्हें न किसीसे राग है और न किसीसे द्वेष है, जो सभी प्राणियों में समान भाव रखकर सबको समदृष्टिसे देखते हैं।
आपके चरणोंमें मेरा चित्त लगा है। मैं तो अज्ञानी ही हूँ। भला, बच्चा भी कहीं आपसे दूर रहनेयोग्य बननेके लिये सयानोंकी बराबरी कर सकता है।
मेरा चित्त तुमसे मिलनेके लिये छटपटा रहा है और तुम ऐसे हो कि शायद देख रहे हो! मैं दोषी हूँ, अपराधी हूँ, पापी हूँ, इसलिये मुझपर क्रोध मत करो। इस अनजान बालकको रुलाओ मत।
जिस तरह वृक्षमें पत्ते बहुत हो जानेपर फल कम लगते हैं, इसी प्रकार जो बहुत बोलता है, उससे काम बहुत कम होता है।
संसारमें जो जितना सह सकता है, वह उतना ही महात्मा है।
यह मन संसारकी बातें ही सोचता रहता है। हे भगवन् ! मेरे-तेरे बीच यही एक बड़ी भारी बाधा है। मैं तो भजन-पूजन करता हूँ, पर अंदर मन संसारका ही ध्यान करता रहता है। हे नारायण ! आओ, दौड़ आओ तुम्हीं इस अन्तरमें आकर भरे रहो।
- मनरूपी पखेरू तभीतक विषयवासनाके आकाशमें उड़ता है, जबतक कि वह ज्ञानरूपी बाजकी झपेटमें नहीं आता।
जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधु हो जाते हैं और भगवान्में मन नहीं लगाते तथा पेटके लिये दर-दर • चिल्ला-चिल्लाकर अपना दुर्लभ मनुष्य जन्म वृथा ही गँवाते हैं, वे मूर्ख इस बातको नहीं समझते कि यह गेरुआ वस्त्र पहना क्यों था। गेरुआ संसारसे तीव्र वैराग्यका चिह्न है।
हम दूसरोंको कठिन नियमोंके भीतर रखना चाहते हैं; परंतु किसी प्रकार भी अपनेको संयत करना नहीं चाहते।
संसारका मोह छोड़कर ईश्वरकी वस्तु ईश्वरको ही अर्पण कर देनी चाहिये। संसारके भोगसुखोंसे तो केवल दुःख और मृत्युकी प्राप्ति होती है।
प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, उठाकर हाथपर रखा नहीं जा सकता।
जो तीर्थोंमें, पवित्र जलाशयोंके किनारे, सुन्दर तपोवनोंमें और गुहाओंमें रहना पसंद करता है, एकान्तसे जिसकी अत्यन्त प्रीति होती और जनपदसे जिसका जी ऊबा हुआ होता है, उसे ज्ञानकी मनुष्याकार मूर्ति ही जानो।
शत्रु-मित्र और पुत्र-बन्धुओंमें विरोध या मेलके लिये चेष्टा मत कर। यदि शीघ्र ही भगवान्की प्राप्ति चाहता हैं तो सबमें सर्वत्र समचित्तवाला हो जा।
विपत्ति मंगलमय भगवान्का विधान है। और उनका विधान कल्याणकारी ही होता है। इस विपत्तिमें भी तुम्हारा कल्याण ही भरा है।
सात्त्विक ज्ञान वही है जिसमें उस ज्ञानके साथ ज्ञाता और ज्ञेय हृदयमें एक हो जाते हैं। सूर्य जैसे अन्धकारको नहीं। देखता, नदियाँ समुद्रको नहीं देखतीं, अपनी छाया अपनेसे अलग करके पकड़ी नहीं जाती, वैसे ही जिस ज्ञानको शिवादिसे लेकर तृणपर्यन्त अपनेसे भिन्न नहीं दिखायी देते वह सात्त्विक ज्ञान है, वही मोक्ष-लक्ष्मीका भुवन है।
सम्पूर्ण अभिमानको त्यागकर प्रभुकी शरणमें जानेसे तुम जन्म-मरणादिके द्वन्द्वोंसे तर जाओगे।
अपने अंदरके बुरे भाव, अहंकार, भय और अज्ञानको पहले दूर करना चाहिये, तभी जीवन प्रभुमय बन सकता है।
चारों वेद, छहों शास्त्र, अठारहों पुराण पढ़कर सारा ज्ञान प्राप्तकर और सभी संतोंका सत्संग प्राप्तकर अन्तमें तुम 'राम- नाममें' ही लौटोगे। फिर अभीसे उसीमें क्यों नहीं लगते।
भगवान्की कृपासे जब ऐसा भाग्योदय हो कि श्रीगुरु दर्शन दें तब सर्वान्तःकरणसे श्रीगुरुकी शरण लो, उनके बालक बनकर अनन्यभावसे उनकी सेवा करो, इससे तुम धन्य होगे।
जो मनुष्य दूसरे लोगोंके सामने तो भगवान्की बातें करता है और अपने मनमें सदा मान प्राप्त करनेकी तथा दूसरी सांसारिक चिन्ताओंमें लगा रहता है, वह कभी-न-कभी बेइज्जत होकर जरूर आफतमें पड़ेगा।
चित्तसे निरन्तर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करते रहो, अनित्य धनकी चिन्ता छोड़ दो। क्षणभरके साधुसंगको भी भवसागरसे तारनेके लिये नौकास्वरूप समझो।
सभी वैभववाले, बड़ी आयुवाले, बड़ी महिमावाले, आखिर चले गये मृत्युपथमें ही सब चले गये; परंतु एक ही रहे जो स्वरूपाकार हुए- आत्मज्ञानी हुए।
तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
तुम्हारी देह तो नहीं रहेगी, इसे काल खा जायगा। अब भी जागो, नहीं तो धोखा खाओगे, नशेके बीच मारे जाओगे।
प्रेमीकी स्थिति सदा एकरस रहती है, उसे प्रतिक्षण अपने प्रियतमसे मिलनेकी छटपटाहट होती रहती है। वह सदा अमृत ही बना रहता है। प्यारेके सिवा उसका दूसरा कोई है ही नहीं।
जो दिन-रात श्रीकृष्णके नामोंका कीर्तन नहीं करती वह जिह्वा नहीं है, वह तो मुखमें कोई पापमयी लता है, जिसे जिह्वाके नामसे पुकारा जाता है। जो 'श्रीकृष्ण-कृष्ण-कृष्ण श्रीकृष्ण' इस प्रकार श्रीकृष्णनामका कीर्तन नहीं करती, वह रोगरूपिणी जीभ सौ टुकड़े होकर गिर जाय।
अधिक परिश्रमसे स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता; स्वास्थ्यको नुकसान पहुँचता है घबराहट, शोक, भय, चिन्ता और असंतोषसे।
अष्टांगयोग, वेदाध्ययन, सत्यवचन तथा अन्य जो जो साधन हैं, उन साधनोंसे जो कुछ मिलता है वह सब भगवद्भजनसे प्राप्त होता है।
यदि मैं अपना सारा धन कंगालोंको खिला दूँ तथा अपनी देह भी उन्हें जलानेके लिये दे दूँ, पर प्रेम न रखूँ तो कोई लाभ नहीं, प्रेममें ही धैर्य और कृपा है। प्रेम डाह नहीं करता, प्रेम अपनी न तो बड़ाई करता है और न फूलता ही है।
निन्दा, स्वाद और वाद-विवादको छोड़कर दिन रात श्रीहरिका स्मरण करना चाहिये।
श्रीहरिकी शपथ नामको छोड़ उद्धारका और कोई उपाय मेरे नहीं हैं।
कुछ व्यक्ति बड़े-बड़े प्रलोभनोंसे तो दूर रहते हैं, परंतु छोटे-छोटे प्रलोभनोंसे परास्त हो जाते हैं।
जो मनुष्य विपत्तिमें भी अपने ऊपर ईश्वरकी कृपाको देख सकता है, वह कभी मृत्युकष्टके अधीन नहीं हो सकता।
हरिसे नहीं, तू तो हरिके जनसे प्रेम कर, हरि तो माल-मुल्क ही देते हैं, पर हरि-जन तो साक्षात् हरिको ही दे देते हैं।
भाव न हो तो साधनका कोई विशेष मूल्य नहीं।
भगवान्की कृपा सभीपर है, परन्तु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। परंतु ऐसे विश्वासकी प्राप्ति और सबको तुच्छ समझनेकी स्थिति भी भगवत्कृपासे प्राप्त हो सकती है।
तुम जो कुछ भी सत्कार्य करो, ऐसा मन लगाकर करो कि सारे जगत्में भगवान्ने वह काम केवल तुमको ही सौंपा है और सौंपा भी है तुमको अकेले जानकर गुप-चुप करनेके लिये ही।
दुनिया और दुनियाकी सब चीजें नाश होनेवाली हैं, पता नहीं रातको ही सब नष्ट हो जायँ। इसलिये इनमें दिलको फँसाना कभी उचित नहीं।
जब 'मैं' था, तब 'हरि' नहीं थे, अब 'हरि' हैं 'मैं' नहीं रहा। प्रेमकी गली बहुत ही सॅकरी है, इसमें दो नहीं समा सकते।
मन पाँच प्रकारके होते हैं- (1) मुर्दा मन जैसे नास्तिकोंका, (2) रोगी मन जैसे पापियोंका, (3) अचेत मन जैसे पेटभरोंका, (4) उलटा मन जैसे ब्याजकी कमाई खानेवालोंका और (5) स्वस्थ मन जैसे संतोंका।
भगवत्प्राप्तिके लिये ममता और अहंकारका त्याग एवं भगवान्का सतत् स्मरण आवश्यक है।
संसारमें वैसे ही रहो जैसे मुँहमें जीभ रहती है, जीभ कितना ही घी खा ले, परंतु चिकनी नहीं होती।
तीन काम बड़े महत्त्वके हैं- प्राणिमात्रपर दया करके उनके दुःखोंको दूर करना, निर्बलों और असहायोंकी सहायता करना और शत्रुको भी दुःख तथा निन्दासे बचाना।
समस्त संसारको भलीभाँति यथार्थ दृष्टिसे देखनेवाले कभी रोते नहीं।
नामस्मरणसे वह चीज ज्ञात हुई जो अज्ञात थी । वह दिखायी देने लगा जो पहले नहीं देखा गया, वह वाणी निकली जो पहले मौन थी, वह मिलन हुआ जो पहले चिरविरहमें छिपा था और यह सब आप ही आप हो गया।
अलख-अलख क्या बकता फिरता है, एक सीधा मुक्तिका मार्ग श्रीराम-नाम जप।
जो परस्त्रीको बुरी दृष्टिसे देखता है, वह अपने सिर मानसिक व्यभिचारका पाप चढ़ाता है।
हृदयमें कामनाओंका निवास है, उसीको 'संसार' कहते हैं और उनके सब तरहके नाश हो जानेको 'मोक्ष' कहते हैं।
आत्मसमर्पण किये बिना प्रभुपर निर्भर नहीं हुआ जा सकता और स्वार्थ छोड़े बिना आत्मसमर्पण नहीं होता।
जहाँतक हो, चुप रहो और जरूरत पड़नेपर उतना ही बोलो, जितना काम हो।
अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तुको अपने परम प्रिय सखा परमात्माके लिये न्यौछावर कर दो, यही प्रभु-प्रेमका लक्षण है।
बदला लेनेका खयाल छोड़कर क्षमा करना अन्धकारसे प्रकाशमें आना है और जीते-ही-जी नरककी जगह स्वर्गका सुख भोगना है।
प्रभु पूर्णतः भक्तके अंदर हैं और भक्त पूर्णत: भगवान् के अंदर है।
संसार क्षणभंगुर है, एक पलका भी भरोसा नहीं, इसलिये जो भलाई करनी हो, तुरंत कर डालो।
रातको पहले पहर सब जागते हैं, दूसरे पहर भोगी जागते हैं, तीसरे पहर चोर जागते हैं और चौथे पहर योगी जागते हैं।
प्रभुके प्यारे भक्त अपनी वाणीसे निरन्तर सुमधुर हरिनामका उच्चारण करते रहते हैं, मनसे उस रूपका चिन्तन करते रहते हैं और शरीरसे सदा प्रभुके चरणोंमें दण्ड प्रणाम करते रहते हैं। वे सदा विकल-से, पागल-से, अधीर-से तथा अतृप्त से ही बने रहते हैं! उनके नेत्रोंसे सदा जल टपकता रहता है। इस प्रकार वे अपनी सम्पूर्ण आयुको श्रीहरिके ही निमित्त समर्पण कर देते हैं।
किसीके दोष न देखा करो, इससे आँख और मन दोनों मलिन होते हैं और जगत्में पापका बोझ बढ़ता है। इसलिये जो कुछ देखो अच्छाईकी ओर लक्ष्य रखो। अच्छाई ही सत्य और जीवन है। भगवान्को छोड़कर कोई भी पूर्ण नहीं है यह न भूलो।
भोग और ऐश्वर्यको अनित्य समझते हुए विवेक वैराग्यपूर्वक वशमें किये हुए मन और इन्द्रियोंको शरीर निर्वाहके अतिरिक्त अपने-अपने विषयोंसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये।
एक क्षणके लिये भी आयुका नाश होना बंद नहीं होता; क्योंकि शरीर अनित्य है। अतएव बुद्धिमान् पुरुषोंको विचारना चाहिये कि नित्य वस्तु कौन-सी है। उस नित्य वस्तुको जान लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है।