बारी-बारीसे सभी प्यारे और मित्र चल बसे ! अब तेरा नंबर भी नित्य निकट आ रहा है।
आसन, शयन, भोजन, गमन, सर्वत्र सब कामों में श्रीहरिका संग रहे। गोविन्दसे यह अखिल काल सुकाल है।
ज्ञानीकी बुद्धिमें फल और हेतुसे आत्माकी पृथक्ता प्रत्यक्ष है, इसलिये उनके मनमें अनात्म-पदार्थोंमें 'मैं यह हूँ' ऐसा आत्मभाव नहीं हो सकता।
भजन सर्वोत्तम वही है कि जिसमें कोई शर्त न हो, जो केवल भजनके लिये ही हो।
झूठ बोलनेसे यज्ञका फल नष्ट हो जाता है, गर्व करनेसे तपका नाश होता है: ब्राह्मणकी निन्दा करनेसे आयु घटती है और किसीको दिया हुआ दान बतला देनेसे वह निष्फल हो जाता है।
हम कुल्हाड़ीसे समस्त वासनाओंकी जड़ काट डालें, जिसमें वासनाओंसे मुक्ति पाकर हम पहले अपनी अन्तरात्मामें शान्ति पा सकें।
इस जगत्में ज्ञानीका जीवन सार्थक और अज्ञानीका निरर्थक है।
विपत्ति पड़नेपर पाँच प्रकारसे विचार करो 1 - तुम्हारे अपने ही कर्मका फल है, इसे भोग लोगे तो तुम कर्मके एक कठिन बन्धनसे छूट जाओगे।
सब भूतोंमें समदृष्टिसे केवल एक हरिको ही देखना चाहिये।
शीघ्र ही आँखोंसे हट जानेवाली वस्तुओंपर ममता रखना और अक्षय आनन्दकी ओर जीवनको प्रवाहित न करना आत्मप्रवंचना है।
परंतु यदि परमात्मा हमारे बीच है तो कभी-कभी हमें अपनी शान्तिके अर्थ अपने निजी विचारोंके अनुकूल चलने से रोकना चाहिये।
जिनकी सदा ईश्वरकी ओर दृष्टि है और जो संसारसे विरक्त हैं, वही संत हैं।
विशुद्ध प्रभु-प्रेम जगत्में एक दुर्लभ पदार्थ है। मनमेंसे कपटबुद्धिको दूर करनेका जब मैंने प्रबल प्रयत्न किया, तब उस प्रभुने अनेक सद्गुणोंके रूपमें आकर मेरे हृदयपर अधिकार कर लिया।
परस्त्री और परधन बड़े खोटे हैं बड़े-बड़े इनके चक्करमें मटियामेट हो गये। इन दोनोंको छोड़ दें, तभी अन्तमें सुख पायेगा।
यदि हमारी इच्छाओंका पवित्र ध्येय सदा परमात्मा होता तो हम इतने दुःखी न होते, परंतु प्रायः कोई-न-कोई आसक्ति भीतर बनी ही रहती है या बाहरसे कुछ ऐसी घटना हो जाती है जो हमें अपने पीछे खींच ले जाती है।
कोई भी मनुष्य पूर्णतः दोषरहित नहीं है, कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो स्वतः सम्पूर्ण हो अथवा जो स्वयं पर्याप्त बुद्धिमान् हो । अतः हममें पारस्परिक सहनशीलता होनी चाहिये। हमें एक-दूसरेको आश्वासन, पारस्परिक सहायता, शिक्षा और उपदेश देते हुए मिल-जुलकर उत्साहपूर्वक भगवान्के मार्गमें चलना चाहिये।
एक कंचन और दूसरी कामिनी इनसे बचकर रहो! ये भगवान् और जीवके बीचमें खाई बनाते हैं।
दुनियाकी सारी चीजोंसे मुँह मोड़कर एकमात्र प्रभुकी ओर लग जाओ। इस दुनियाको आज नहीं तो कल छोड़ना ही है।
विधि-विधानके सारे जालको छिन्न-भिन्न करके मन, बुद्धि, चित्त और प्राणको प्रभुमें एकनिष्ठ होकर अर्पित करे।
जो दूसरेसे वैर रखते हैं, परायी स्त्री और पराये धनकी ओर ताकते हैं तथा परनिन्दा करते हैं, वे पापी पामर मनुष्य देहधारी राक्षस हैं।
उपशान्त और यथार्थ ज्ञानद्वारा मुक्त हुए पुरुषोंका मन शान्त होता है। उनकी वाणी और कर्म शान्त होते हैं।
जिस परमात्मासे सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं तथा जो सब प्राणियोंका पालन करता है, उस वेद प्रतिपादित ज्ञेय ब्रह्मको, जो नहीं जानते वे बार-बार जन्म मरणको प्राप्त होते हैं।
जिसकी ऐसी इच्छा हो कि प्रभु सदा मेरे साथ रहें, उसको सत्यसे कभी न डिगना चाहिये।
आशाके वशमें हुए मनुष्य क्षण-क्षणमें दुःख भोगते हैं। जो आशाके दास हैं, वे समस्त संसारके दास हैं और जिन्होंने आशाको अपनी दासी बना लिया है, उनके लिये यह सम्पूर्ण जगत् दासके तुल्य है।
मनुष्यका यह धर्म है कि वह बिना किसी भेद-भावके दुःखमें पड़े हुए जीवकी यथाशक्ति सहायता करे उसे कष्टसे बचावे और सुख पहुचावे।
यह बड़ी बुद्धिमानी है कि अपनी क्रियाओंमें कभी उद्धत है। न होओ और न अपने ही विचारोंपर अड़ जाओ, न सभी सुनी हुई बातोंपर विश्वास ही कर लो और न शीघ्रतामें आकर जो कुछ तुमने सुना है या मान लिया है— दूसरोंपर प्रकट ही करने लगो।
आघात करनेवाला लोहा भी पारसके स्पर्शमात्रसे सोना हो जाता है। दुष्टजन भी संतोंके स्पर्शमें आकर संत बन जाते हैं।
अगर तुम दुनियाकी खोजमें जाओगे तो दुनिया तुमपर चढ़ बैठेगी, उससे विमुख होओगे तब ही उसे पार कर सकोगे।
बहुत-से मनुष्य प्रलोभनोंसे भागना चाहते हैं; परंतु और भी अधिक बुरी तरह उनमें गिर जाते हैं।
तुम बाहरसे निर्धन दीखनेवाले सच्चे साधुओंका अभिमानवश अपमान करते हो, पर निश्चय समझना कि सर्वोत्तम सम्पत्तिवान् वे ही हैं।
शरीरके द्वारा किये हुए दोषोंसे मनुष्योंको स्थावर (वृक्ष आदि) योनि मिलती है, वाणीद्वारा किये हुए कर्मोंके दोषसे पशु-पक्षी-योनि मिलती है और मनद्वारा किये हुए कर्मोंके दोषसे चाण्डालकी योनि मिलती है।
शास्त्र पढ़नेपर भी यदि उसके अनुसार आचरण न करे तो वह मनुष्य मूर्ख ही है।
वस्त्र और किसी वस्तुविशेषसे सौन्दर्य उधार लेनेकी चेष्टा न करो, हृदयकी शान्ति और प्रसन्नता, शरीरकी नीरोगता और चेहरेपर सात्त्विक सरल हँसी ही सच्चा सौन्दर्य है।
केवल मुँहसे ही ज्ञान बघारनेवाला पण्डित नहीं है, वह तो ठग है। पण्डित तो वही है जो ज्ञानके अनुसार बर्ताव करता है यानी जो कुछ कहता है वही करता है।
जो मनुष्य संसार त्याग और प्रभुपरायणताकी पोशाक पहनकर लोगोंके सामने हाथ फैलाता है, उसमें लोगोंकी श्रद्धा और दया नहीं रह सकती। आखिर उसे गिरना ही पड़ता है और उसका जीवन निराशा तथा विपत्तियोंमें ही बीतता है। फिर उसके हाथमें रह जाते हैं-अफसोस और अवगुण।
तुम जैसी हालतमें हो; जहाँ हो; जैसे हो, जिस किसी भी वर्णके हो जैसी भी स्थितिमें हो, हर समय और हर कालमें हरिके सुमधुर नामोंका संकीर्तन कर सकते हो। नाम जपसे पापी-से-पापी मनुष्य भी परम पावन बन जाता है, अत्यन्त नीच-से-नीच भी सर्वपूज्य हो जाता है और बुरे से बुरा भी महान् भगवद्भक्त बन जाता है।
वाणीसे स्तुति, मनसे स्मरण, सिरसे प्रणाम और हृदयसे भजन करते हुए प्रेमाश्रुनेत्र भक्तजन अपनी समस्त आयु श्रीहरिके अर्पण कर देते हैं।
तप करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है, दान देनेसे ऐश्वर्य मिलते हैं, ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है और तीर्थस्नानसे पाप नष्ट होते हैं।
जब पूरी तरहसे अपना विनाश कर लोगे तभी तुम 'पूर्ण' बनोगे।
गंगाजल जल नहीं है, बड़-पीपल वृक्ष नहीं हैं, तुलसी और रुद्राक्ष माला नहीं है, ये सब भगवान्के श्रेष्ठ शरीर हैं।
जिस प्रकार रात्रि तारागणोंको प्रकाश देती है, उसी प्रकार संकट भी मनुष्य को प्रकाश देता है।
पर-नारी माताके समान जाने। परधन और परनिन्दा तजे। राम-नामका चिन्तन करे। संतवचनोंपर विश्वास रखे। सच बोले। इन्हीं साधनोंसे भगवान् मिलते हैं और प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं।
देह नाशवान् है। देह मृत्युकी धौंकनी है। संसार केवल दुःखरूप है। सब भाई-बन्धु सुखके साथी हैं।
संसारकी सारी आशाओं और अभिलाषाओंका त्याग किये बिना भगवान् नहीं मिलते।
- प्रारम्भमें ही अपनी इच्छाको रोक लो और बुरी आदतोंको छोड़ दो, अन्यथा वे धीरे-धीरे तुम्हें बहुत बड़ी कठिनाईमें डाल देंगी।
दिनमें संत घोर परिश्रम करते हैं और रातमें लगातार प्रार्थना; परिश्रम करते समय भी वे मानसिक प्रार्थनासे च्युत नहीं होते हैं। वे एक-एक क्षणसे लाभ उठाते हैं, भगवान्की सेवामें उनका प्रत्येक घंटा बहुत-सा मालूम होता है।
जब एक भलेमानुषको दुःख पहुँचता है या लालच घेर लेता है तब वह समझता है कि परमात्माकी उसे अधिक आवश्यकता है, वह देखता है कि परमात्माकी सहायताके बिना कोई काम नहीं कर सकता।
भगवान्को आत्मनिवेदन करनेपर उनके प्रति भारी दीनता रखना।
इस जगत्में न कोई अपना है न पराया।
क्रोध दिलानेपर भी चुप रहना बुद्धिमानी और महत्त्व है। महिमा जीभके वेगको रोकनेमें है और इससे भी बढ़कर महत्त्व मनके वेगको रोकनेमें है।
चारों वेद, छहों शास्त्र और अठारहों पुराणका सार तत्त्व सुनाता हूँ, वह है श्रीरामका नाम।
मुखमें नाम हो तो चरणोंमें मुक्ति लोटती है। बहुतों को इसकी प्रतीति हो चुकी है।
मुक्तपुरुषको कष्ट अवश्य होता है, पर उसको उस कष्टमें राग-द्वेष नहीं होता, वह उसे संसारका धर्म समझकर सहता है, सुख-दुःखोंसे उसकी वृत्तिमें चंचलता नहीं आती, यही बद्ध और मुक्तका भेद है।
जिन वस्तुओंका हम अपनेमें या दूसरेमें सुधार नहीं कर सकते, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, जबतक परमात्मा स्थितिको उलट न दें।
आशा एक नदी है। उसमें इच्छारूपी जल है, तृष्णा उस नदीकी तरंगें हैं, प्रीति उसके मकर हैं तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं; मोह उसके भँवर हैं, चिन्ता ही उसके किनारे हैं, वह आशानदी धैर्यरूपी वृक्षको गिरानेवाली है; इस कारण उसके पार होना कठिन है। जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं।
जिन्होंने वासनाओंको पददलित किया है, वे ही मुक्त हुए हैं, जिन्होंने ईर्ष्याका त्याग किया है, उन्हींको प्रेमकी प्राप्ति हुई है और जिन्होंने धैर्य धारण किया है वे ही शुभ परिणामको प्राप्त कर सकते हैं।
जैसे मलसे धोनेपर मल दूर नहीं होता, वैसे ही भोग-प्राप्ति-जनित सुखसे भोगकी अप्राप्तिजनित दुःख नहीं मिट सकता। कीचड़से कीचड़ धुलता नहीं वरं और भी बढ़ता है।
जो अपनी गर्दन ऊँची करता है, वह मुँहके बल गिरता है।
प्रमदासंगसे बराबर बचना चाहिये। जो निरभिमान होकर निःसंग हो गया हो, वही अखण्ड एकान्त सेवन कर सकता है।
एक दिन सुमेरु पर्वत भी गिर पड़ता है; समुद्र भी सूख जाता है, पृथ्वी भी नष्ट हो जाती है, फिर इस क्षणभंगुर शरीरकी तो बात ही कौन-सी है।