अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



सपना सच्चा न होनेपर भी स्वप्नकी अवस्थामें जैसे स्वप्नसम्बन्धी दुःख नहीं मिटता, वैसे ही संसार सत्य न होनेपर भी विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषका अज्ञान अवस्थामें जन्म-मरण नहीं छूटता। अतएव अज्ञानके नाशका प्रयत्न करना चाहिये।


सत्यता, सद्वचन, सत्कर्म, उदारता, क्षमा आदि लोकहितके कोई-न-कोई कार्य करते रहना चाहिये। ये सब बहुत बड़े सहायक हैं।


देखता यह हूँ कि यह मन तो बेबस, विषय-लोभी है। इस उलझनको कैसे सुलझाऊँ ? हे भगवन्! क्या आप मेरी असमर्थता नहीं जानते।


हे भिक्षुओ ! जबतक तुमलोग ब्रह्मचारियोंसे कायिक, वाचिक, मानसिक मित्रता रखोगे, भीखका अन्न समान भावसे बाँटकर खाओगे तथा सत्-धर्मकी रक्षा करोगे और सत्-धर्मपर ही दृष्टि रखोगे, तबतक तुमलोगोंका पुण्य क्षय नहीं होगा।


जैसा कुटुम्बसे प्रेम है, वैसा ही यदि हरिसे हो जाय, उस दासका मोक्षमार्गमें जाते कोई पल्ला नहीं पकड़ सकता।


- मैं ही देव हूँ, मैं ही भक्त हूँ, पूजाकी सामग्री भी मैं ही हूँ, मैं ही अपनी पूजा करता हूँ यह अभेद-उपासनाका एक रूप है।


जिसके हृदयमें विषयसे विरक्ति हो, अभेदभावसे श्रीहरिचरणोंमें भक्ति हो, भजनमें अनन्य प्रीति हो उसके स्वयं श्रीहरि ही आज्ञाकारक हैं।


बहुज्ञ होनेका दम न भरो, प्रत्युत अपनी अज्ञानताको मान लो।


तेरा कीर्तन छोड़ मैं और कोई काम न करूँगा लज्जा छोड़कर तेरे रंगमें नाचूँगा।


शरीर न बुरा है, न अच्छा है, इसे जल्दी हरिभजनमें लगाओ।


अपनी पूज्यता अपनी आँखों न देखे, अपनी कीर्ति अपने कानों न सुने, ऐसा न करे जिससे लोग यह पहचान लें अमुक है। बृहस्पतिके समान सर्वज्ञता प्राप्त हो तो भी महिमाके कि यह भयसे अज्ञानियोंकी भाँति रहे। अपना चातुर्य छिपावे, अपना महत्त्व बिसार दे और अपना बावलापन लोगोंको दिखावे।


रसना तुम्हारे ही नामकी रसिक हो गयी है, आँखें तुम्हारे ही चरणोंके दर्शनकी प्यासी हैं। यह भाव अब मेरा बदलनेवाला नहीं। इसलिये तुम अब मेरे इस प्रेमरसको सूखने मत दो । अपनेसे मुझे अब दूर मत करो। मैं तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहता, तुम्हींको चाहता हूँ।


प्रभु कहते हैं कि जो नीच-से-नीच मनुष्य की सेवा करता है, वही मेरी सेवा करता है।


क्षणमात्रको प्राप्त होनेवाले थोड़े-से जीभके स्वादके लिये जीवोंकी हत्या करनी बड़ी ही नृशंसता है। भगवान्के भेदोंसे भरे हुए अपने पेटको जानवरोंकी कब्र बनाना उसका निरादर करना है। एक चींटीको भी न सताओ; क्योंकि वह भी जीवधारी है और अपना जीव हर एकको प्यारा है।


प्रेम - प्रेम सब चिल्लाते हैं, पर प्रेमको पहचानता कोई नहीं। जब आठों पहर तल्लीनता रहे, तभी प्रेम समझना चाहिये।


काम, क्रोध, लोभ और मोहको छोड़कर आत्मामें देख कि मैं कौन हूँ। जो आत्मज्ञानी नहीं हैं, जो अपने स्वरूप या आत्माके सम्बन्धमें नहीं जानते, वे मूर्ख नरकोंमें पड़े हुए सड़ते हैं।


भगवान्‌की भक्ति करना ही मनुष्यका परम पुरुषार्थ है। उन्हींकी भक्ति करके परम शान्तिको प्राप्त करो।


जैसे रेशमका कीड़ा अपने आप परिग्रहसे मारा जाता है। वैसे ही मनुष्य भी परिग्रहसे मारा जाता है।


शम, दम, व्रत और नियमपरायण विश्वहितैषी मुमुक्षु मनुष्य निष्कपट भावसे जो कुछ भी क्रिया करता है; उसीसे उसके गुण बढ़ते हैं।


कुशलसे तो वह है जो संसारके पार उतर गया है और शान्तिपूर्वक वह है जिसने स्वर्गीय जीवनका आनन्द पाया।


विषयोंको भोगनेसे नरकाग्निमें जलोगे और जन्म मरणके घोर संकट सहोगे; परमात्माके भजन या योगसाधनसे नित्य सुख भोगते हुए परमानन्दमें लीन हो जाओगे। अतः इन्द्रियोंको वशमें करो और एकाग्रचित्तसे परमात्माका भजन करो।


सच्ची माता वह है जो अपने बालकोंके क्रोध, द्वेष और ईर्ष्यारूपी रोगोंको प्रेमरूपी दवासे नष्ट करना सिखाती है और असली वैद्य वह जो आनन्दी स्वभाव और शुभ भावना रखने और उत्तम कर्म करनेकी शिक्षा देता है, जिनसे शरीर और हृदयको बल मिलता है। आनन्दी स्वभाव ही सबसे श्रेष्ठ दवाका काम देता है।


अरी पामर तृष्णा ! मैं तुझसे पूछता हूँ कि इतने कुकर्म कराकर भी तुझे संतोष हुआ या नहीं।


मनुष्य दूसरेको बूढ़ा हुआ तथा मरनेवाला देखता है, पर आप यही समझता है, मैं तो सदा जवान रहूँगा-अमर रहूँगा।


सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि द्वन्द्वोंमें फँसे हुए जीवोंमें जो मनुष्य हर्ष, शोकरहित होकर विचरण करता है, वही तृप्त है।


अभिलाषा मेरी यह है कि आपकी मेरी बातचीत हो और उससे सुख बढ़े ! ऑंखें भरकर आपका श्रीमुख देखेँ । यह मैं आपके चरणोंकी साक्षी रखकर सच-सच कहता हूँ।


जिसने अहंकार, क्रोध, कपट और लालचको जीत लिया, वही सच्चा शूरवीर है।


श्रीहरि-गोविन्द नामकी धुन जब लग जायगी तब यह काया भी गोविन्द बन जायगी, भगवान्से कोई दुराव, कोई भेद-भाव नहीं रह जायगा। मन आनन्दसे उछलने लगेगा, नेत्रोंसे प्रेम बहने लगेगा। कीट भृंग बनकर जैसे कीटरूपमें फिर अलग नहीं रहता वैसे तुम भी भगवान्से अलग नहीं रहोगे।


जिसका मन पवित्र नहीं उसका कोई काम पवित्र नहीं होता।


नाम लेते मन शान्त होता है, जिह्वासे अमृत झरने लगता है और लाभके बड़े अच्छे शकुन होते हैं।


सुन्दर अन्तःकरणके साथ-साथ भगवान्के भयके अतिरिक्त सच्ची स्वतन्त्रता और वास्तविक आनन्द कहीं नहीं है।


जो हृदयस्थ हैं उसकी शरण लो।


समरस हुए भक्त भक्तिका आनन्द लूटनेके लिये भगवान् और भक्तका द्वैत केवल मनकी मौजसे बनाये रहते हैं।


'राम-कृष्ण-गोविन्द' नाम सरल है। गद्गद होकर वाणीसे इसका पहले जप कर।


अगर अपने भीतर और बाहर प्रकाश चाहते हो तो जीभरूप देहलीद्वारपर रामनामरूपी मणि दीपकको रख दो अर्थात् जीभसे रामनाम जपते रहनेसे बाहर-भीतर ज्ञानका प्रकाश हो जायगा।


अपनी इच्छा छोड़कर प्रभुके शरण हो जाओ और उसकी कृपाकी प्राप्तिके लिये अत्यन्त दीन बनो।


जिसने इन्द्रियोंके वशमें रहकर केवल कुटुम्बके भरण-पोषणमें ही अपना जीवन बिता दिया है, वह अन्तमें प्राप्त होनेवाली महान् पीड़ासे नष्टबुद्धि होकर मृत्युको प्राप्त होता है।


हे चित्त ! अब शान्त हो, इन्द्रियोंके सुखके लिये विषयोंकी खोजमें कठिन परिश्रम मत कर। आभ्यन्तरिक शान्तिकी चेष्टा कर, जिससे दुःखोंका नाश होकर कल्याण हो, तरंगके समान चंचल चालको छोड़ दें; संसारी पदार्थोंमें सुख मत मान, ये सभी नाशवान् और असार हैं। बस तू अपने आत्मामें ही सुख मान।


विरक्तके लिये धन गोमांस है। स्पर्श करनेको कौन कहे, वह उसकी ओर ताकतातक नहीं।


अहंता नष्ट हो, भगवान्‌के स्तुति- पाठमें सच्ची भक्ति हो, हृदयकी सच्ची लगन हो, हरिचरणोंमें पूरी निष्ठा हो तब काम बने।


पुत्र और परिवार आदि विषयोंसे आसक्त मनुष्योंपर मृत्यु उसी प्रकार आक्रमण करती है जैसे रातके समय बाढ़ आकर गाँवमें सोये हुए लोगोंको बहा ले जाती है, जब मृत्यु आ जाती है, तब उसे पुत्र, पिता या बन्धु कोई नहीं बचा सकते। शीलवान् पण्डित इस बातको समझकर अपने लिये निर्वाणका रास्ता साफ करते हैं।


जो पहलेके पापका विचार न करके बराबर पाप ही करता रहता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्य यमदूतोंद्वारा नरकमें घसीटा जाता है।


विनम्र पुरुष चिरन्तन शान्तिको प्राप्त करते हैं; अभिमानी पुरुषोंके हृदयमें ईर्ष्या और क्रोधकी भट्ठी जलती रहती है।


शरीरके द्वारा, वाणीके द्वारा, मन तथा इन्द्रियोंके द्वारा बुद्धिसे, आत्मासे अथवा स्वाभाविक प्रकृतिके वशीभूत होकर जो भी कर्म करता हूँ, उन सबको हे नारायण! तुम्हारे चरणोंमें निवेदन कर देता हूँ।


जो स्त्रियोंके हाव-भाव और कटाक्षोंसे घायल नहीं होता, जिसके चित्तको क्रोधरूपी अग्नि संताप नहीं पहुँचा सकती और जिसे प्रचुर विषयलोभरूपी बाण विद्ध नहीं कर सकते, यानी जिसकी दृष्टिमें संसारी सभी भोग तृणके समान हैं, वह धीर महापुरुष इस सम्पूर्ण त्रिलोकीको बात-की- बातमें जीत सकता है।


प्रभुपर निर्भर रहनेके तीन लक्षण हैं- (1) दूसरेसे कुछ भी न माँगना, (2) मिले तो भी न लेना और (3) लेना ही पड़े तो बाँट देना।


जितना ही अधिक मनुष्य अपने अन्तरमें मिलने लगता है और अन्तःकरणसे सरल और पवित्र हो जाता है, उतनी ही अधिक ऊँची चीजें वह बिना परिश्रमके समझने लगता है, क्योंकि उसे परमात्मा ही अन्त: प्रकाश प्रदान करते हैं।


मतभेद और निर्णयकी विभिन्नता ही प्रायः मित्रों और सहवासियोंमें, धार्मिक और भक्तपुरुषोंमें भाव-भेद उपस्थित कर देती है।


शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इन इन्द्रियोंके विषयोंमें कामनासे प्रवृत्त नहीं होना चाहिये और मनसे उनके विरुद्ध भावना करके, यानी विषय मिथ्या हैं और परिणाममें नरकोंमें ले जानेवाले हैं, ऐसा विचार करके उनके अति प्रसंगको छोड़ देना चाहिये।


जो स्थूल है वही सूक्ष्म है, दृश्य है वही अदृश्य है, व्यक्त है वही अव्यक्त है, सगुण है वही निर्गुण है, अंदर है वही बाहर है।


सरलता बिना कोई भी मनुष्य शुद्ध नहीं हो सकता, अशुद्ध जीव धर्म नहीं करता; धर्म बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष बिना सुखकी प्राप्ति असम्भव है।


हम अपने सारे प्रलोभनों और कष्टोंमें परमात्मा के हाथों में अपनी अन्तरात्माको विनम्र कर दें क्योंकि वह विनीत हृदयकी रक्षा करता है।


जो साठ घड़ीके दिन-रातमें दो घड़ी संध्या पूजनके लिये नहीं निकाल सकता, वह आगे उन्नति ही क्या कर सकता है।


तुम कभी किसी मनुष्यको गिरते-पड़ते देखो तो उसकी ओर तिरस्कार न दिखलाकर दया ही दिखलाना और सावधान रहना कि तुम्हारे जीवनमें कहीं ऐसा मौका न आ जाय।


इस दुनियाँमें काम बहुत है और उसका यह हाल है कि पलक मारनेभरका भरोसा नहीं। इस क्षणभरकी जिन्दगीमें आपको कौन-सा काम करना चाहिये जिससे आगेकी यात्रामें सुख ही सुख मिले। विचारिये तो सही।


अहंकार करना व्यर्थ है। जीवन, यौवन कुछ भी यहाँ नहीं रहेगा। सब तीन दिनोंका सपना है।


चार चीजें पहले दुर्बल दीखती हैं, परंतु परवा न करनेसे बहुत बढ़कर दुःखके गड्ढेमें डाल देती हैं-अग्नि, रोग, ऋण और पाप।


भक्तके प्रत्येक शब्दसे प्रभुकी ही वार्ता उठती है। और श्रोता सुनकर तल्लीन हो जाते हैं।


जो मनुष्य सुखमें प्रभुका चिन्तन करता है, वह भाग्यवान् है।


जिसका मन कभी भी विकल नहीं होता और सदा ही प्रसन्न रहता है वह सदा मुक्त ही है।