जब भगवान्के आश्रित हो रहे हो तो यह न हुआ, वह न हुआ आदि चिन्ताओंमें मत पड़ो।
जो मनुष्य अपने सब पदार्थ मान-प्रतिष्ठा और लोक-परलोक सबकी अपेक्षा भगवान्को ही बड़ा समझकर भगवान्में ही प्रेम रखता है, उसीके हृदयमें सदाके लिये आध्यात्मिक सूर्य उगता है।
कामको जीतो । जिसने कामको जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया।
धर्मग्रन्थोंके पढ़नेमें हमारी अपनी उत्सुकता बाधा खड़ी करती है; क्योंकि जिस बातको पढ़कर हमें बिना कोई विशेष परिश्रम किये आगे बढ़ना चाहिये था, उसीपर हम वाद विवाद करने लगते हैं और उसकी परीक्षा करनेमें फँस जाते हैं।
कछुएके पीठपर चाहे बाल उग जायँ, बन्ध्याका पुत्र किसीको मार डाले, आकाशमें फूल फूल जाय, मृग-जलसे प्यास मिट जाय खरगोशके सींग आ जायँ, अन्धकार सूर्यका नाश कर दे और बर्फ में अग्नि प्रकट हो जाय, परंतु रामसे विमुख मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता।
कीर्ति तो पतिव्रता है, पुंश्चली नहीं उसने तो एक ही पुरुष श्रीहरिको वरण कर लिया है, इसलिये तुम उसकी आशाको छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो।
सदाचारसे रहे और हरिको भजे, उसीको गुरुकृपासे ज्ञान-लाभ होगा।
शोक, मोह, दुःख, सुख और देहकी उत्पत्ति यह सब मायाके ही कार्य हैं और यह संसार भी स्वप्नके समान बुद्धिका विकार ही है। इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है।
परनिन्दा और परचर्चा कभी न करो।
कोई अगर यों समझता है कि मैं अपने ही साधनके बलपर प्रभुको पा लूँगा तो वह अपनेको मिथ्या अभिमानके गड्ढेमें डालता है; और जो मनुष्य बिना ही साधन किये प्रभुको पाना चाहता है, वह तो दुराशामें ही डूबता है।
मनको सदा वशमें रखो यदि वह हाथमें होगा तो उसमें प्रवेश करनेको दूसरेको रास्ता ही नहीं मिलेगा।
भगवान् गोविन्दके नामकीर्तनरूप अग्निसे तीनों जन्मोंके पाप जल जाते हैं।
तीन कार्य मुख्य हैं-पापमें अत्यन्त ग्लानि, धर्मके लिये कभी न बुझनेवाली प्यास और प्राणिमात्रके साथ हृदयकी सहानुभूति।
आनन्द और अंदरकी शान्ति प्रभुमय जीवनके फल हैं, परंतु जो जीव हृदयसे भगवान्के शरण नहीं होता, उसको इनकी प्राप्ति नहीं होती।
चौदह बातोंका त्याग करना चाहिये-हिंसा, चोरी, व्यभिचार, असत्य, स्वच्छन्दता, द्वेष, भय, मोह, मद्यपान, रात्रिभ्रमण, व्यसन, जूआ, कुसंगति और आलस्य।
जो इस प्रकार जानता है कि यह महान् अजन्मा आत्मा अजर, अमर और अभय है, वह निश्चय ब्रह्म ही हो जाता है।
दो आदमी बात करते हों तो उनके बीचमें न बोलो, अपनी बुद्धिमानी दिखानेका प्रयत्न मत करो; ऐसी बात तो बोलो ही मत जिससे उन लोगोंकी बात कटे या उन्हें नीचा देखना पड़े, अपनी और अपने वंशकी बड़ाई मत करो, दूसरा कोई करता हो तो उसे बुरा मत कहो, चिल्लाकर न बोलो, ऐसी आवाज और ऐसे भावसे न बोलो, जिसमें सुननेवालोंको तुम्हारी हुकूमत या अपना तिरस्कार प्रतीत हो।
सोच करनेसे कोई लाभ नहीं है, सोच करनेवाला केवल दुःख ही भोगता है। जो मनुष्य सुख और दुःख दोनोंको त्याग देता है, जो ज्ञानसे तृप्त है और बुद्धिमान् है, वही सुख पाता है।
ईश्वर हमलोगोंके निजके हैं, वह हमलोगोंकी अपनी माता हैं। उनके पास हमलोगोंका जोर करना, मचलना चल सकता है।
चार चीजें मनुष्यको बड़े भाग्यसे मिलती हैं भगवान्को याद रखनेकी लगन, संतोंकी संगति, चरित्रकी निर्मलता और उदारता।
अखण्ड नाम-स्मरणका आनन्द अहर्निश प्राप्त हुए बिना चित्त शुद्धिका साक्षात्कार नहीं हो सकता।
अब तुम्हारी ही शरण ली है; क्योंकि तुम्हारा कोई भी दास विफलमनोरथ नहीं हुआ।
भगवान्का साकार रूप भी सत्य है और निराकार भी सत्य है। तुम्हें जो अच्छा लगे, उसीमें विश्वास कर, तुम उसे पुकारो तो तुम उसी एकको पाओगे। मिसरीकी डली चाहे जिस ओरसे, चाहे जिस ढंगसे तोड़कर खाओ, वह मीठी लगेगी ही।
जिसकी दृष्टि वशमें नहीं, उसे कुमार्गपर जाना पड़ता है।
जो मनुष्य दूसरेके ऐश्वर्यको नहीं सह सकता, जिसकी बुद्धि कलुषित है, जो परधन हरण करता है, जो प्राणियोंकी हिंसा करता है, जो झूठ बोलता है, जो कठोर वचन कहता है और जिसका मन निर्मल नहीं है, उसके हृदयमें भगवान् निवास नहीं करते।
ईश्वर - उपासना करनेवालेको सबसे पहले अपने चित्त और इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटाकर अपने अधीन कर लेना चाहिये।
सदा-सर्वत्र और सब अवस्थाओंमें भगवन्नामका जप करते रहना चाहिये । नाम-जपसे श्रीकृष्ण- चरणोंमें प्रीति उत्पन्न होती है।
प्रभुमें ही सब लोगोंकी स्थिति और गति देख सकनेपर ही पक्के पायेपर प्रभु-दर्शन हुए जानना।
विषयभोगोंमें सुख नहीं है। एक-न-एक दिन मनुष्यको इनसे अलग होना ही पड़ता है। अलग होनेके समय विषय-भोगीको बड़ा दुःख होता है।
संसारके सुख क्षणभंगुर हैं, किसी भी ऐसे सुखीका उदाहरण नहीं मिल सकता जो मृत्युको न प्राप्त हुआ हो।
चाहे सारे वेद-शास्त्र पढ़ लो, चाहे यम-नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्रका मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर डालो, यदि हृदयमें राम नहीं हैं, तो ये सब वृथा हैं।
अहं और मनको दबाकर सबके भीतर भगवान्का दर्शन करना संतोंका काम है।
जिस बातसे समाजको सुख पहुँचे, उससे यदि तुम्हें कुछ दुःख भी पहुँचे तो नाराज मत हो।
ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो सभी चीजोंको पूर्णतः जानता हो? अतएव अपने विचारोंपर अधिक निर्भर न रहो। परंतु दूसरोंके विचारको भी सुननेके लिये तैयार रहो।
तू क्यों चीखता फिरता है? भगवान्का भरोसा रख; वे प्रभु ही अब सब तरहसे तेरी रक्षा करेंगे।
सारे सम्बन्धों और चिन्तनोंसे रहित होकर ईश्वरसे ही सम्बन्ध जोड़ना और उन्हींका चिन्तन करना, इसीका नाम आन्तरिक निर्भरता है।
सत्य बातका विश्वास करो और पापका तिरस्कार करो; जो शब्द सच्चे हृदयसे नहीं निकलते हैं, उनका न निकलना ही अच्छा है।
जो मनुष्य अपने चरित्रको सावधानीके साथ जाँच करता है, उसे अपनी बहुत-सी भूलें और पतनके स्थान दिखलायी पड़ने लगते हैं और वह सुधरकर ऊपरकी सीढ़ियों पर चढ़ सकता है।
जिसने कामनाओंका नाश कर मनको जीत लिया और शान्ति प्राप्त कर ली, वह राजा हो या रंक, संसारमें उसको सुख ही सुख है।
हे प्रभो ! अब ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी वाणी केवल तुम्हारा ही गुणगान करे, मेरे हाथ तुम्हारे ही पैर पलोटें, मेरा मस्तक तुम्हारे ही चरणोंमें झुके, मेरे नेत्र सर्वत्र तुम्हारे ही दर्शन करें; मेरे कान तुम्हारे ही गुणोंका श्रवण करें, मेरे चित्तके द्वारा तुम्हारा ही चिन्तन हो और मेरे हृदयको तुम्हारा ही स्पर्श प्राप्त हो।
ईश्वरकी ओर चित्तवृत्ति रखनेसे तुम्हारी उन्नति ही होगी। इस मार्गमें कभी अवनति होती ही नहीं।
संत ईश्वरपरायणताकी ऊँची अवस्थामें अपार सुख-शान्ति भोगते हैं। वे संसारसे दूर भाग हुए होते हैं। वे न किसी चीजके मालिक होते हैं और न किसी चीजके गुलाम ही।
स्त्रीसम्बन्धी साहित्य पढ़ना, स्त्रियोंके चित्र देखना और उनके नृत्य गानके दृश्य देखना आदिसे दुर्वासनाकी सहज ही वृद्धि होती है।
जिसमें जितना प्रेम है, वह उतना ही ईश्वरके समीप पहुँचा हुआ है—उतने अंशमें वह प्रभुमय बन गया है, क्योंकि प्रभु स्वयं अपार प्रेममय हैं।
जो मेरे परमपिता परमात्माकी इच्छाके अनुसार जीवन बिता रहा है, वही मेरा भाई है, वही मेरी बहिन और वही मेरी माता है।
चार गुण बहुत दुर्लभ हैं-धनमें पवित्रता, दानमें विनय, वीरतामें दया और अधिकारमें निरभिमानिता ।
संगी-साथी एक-एक करके चले। अब तुम्हारी भी बारी आवेगी। क्या गाफिल होकर बैठे हो ? काल सिरपर सवार है, अब भी सावधान हो जाओ, इससे निस्तार पानेका कुछ उपाय करो।
धनवान् पड़ोसी और राजदरबारके पण्डितोंसे दूर रहना । नीचे लिखे परिणामसे अधिक मिले तो उसको अनावश्यक और बोझरूप मानना चाहिये - (1) प्राण रहे इतना अन्न, (2) प्यास मिटे इतना जल, (3) लाज बचे इतना वस्त्र, (4) रहनेभरका घर और (5) उपयोगी हो इतना सा ही लौकिक ज्ञान।
यदि तुम अविच्छिन्नरूपसे आत्मचिन्तन नहीं कर सकते तो कम-से-कम दिनमें एक बार तो किया करो; प्रातःकाल अथवा रात्रिमें। प्रातः काल अपना ध्येय निश्चित कर लो और सोते समय अपनी परीक्षा कर लो कि तुमने क्या किया है, मन, वचन और कर्मसे तुमने कैसा व्यवहार किया है।
जीभको काबूमें रखो और सारा बल लगाकर मनको वशमें करो।
अपने सब काम भूलकर सदा ईश्वरका स्मरण करते रहो।
जो हृदय कोमल, दीन और भगवान्के विरहसे व्याकुल हैं, उसीमें प्रभुका निवास है।
जिस प्रकार पतिव्रता स्त्रीको इस बातका पूर्ण विश्वास होता है कि जिसने मेरा एक बार अग्निके सम्मुख पाणिग्रहण किया है वह मेरी अवश्य रक्षा करेगा, उसी प्रकार श्रीकृष्णपर भरोसा रखना कि वे हमारी अवश्य ही रक्षा करेंगे।
इन्द्रियोंको वशमें रखना, जीभको काबूमें रखना, सत्कार्यमें दृढ़संकल्प रहना और भगवान्की इच्छापर खुश रहना, चाहे वह तुम्हारे प्रतिकूल ही हो, बस, यही सच्ची शूरता है।
भगवान्का भजन ही जीवनका सुफल है।
जिसमें द्युलोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और सम्पूर्ण प्राणोंके सहित मन ओत-प्रोत है, उस एक आत्माको ही जानो और सब बातोंको छोड़ दो यहाँ अमृतका सेतु है।
शास्त्रका प्रमाण है, श्रुतिका वचन है कि 'नारायण' ही सब जापोंका सार है।
भगवान्के प्रेम और भोगोंके प्रेममें इतना ही अन्तर है जितना सूर्य और अन्धकारमें।
तुम्हारे हृदयकी असंख्य वासनाओंके सिवा तुम्हें कौन अधिक बाधा या कष्ट पहुँचाता है।
पहले संसार करके पीछे भगवान्की प्राप्तिकी इच्छा करते हो। ऐसा न करके पहले भगवान्को लेकर पीछे संसार करनेकी इच्छा क्यों नहीं करते? इससे बहुत सुख पाओगे।