अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



हे भगवन्! मेरे जीवनके शेष दिन किसी पवित्र वनमें 'शिव, शिव, शिव 'जपते हुए बीतें । साँप और फूलोंका हार, बलवान् बैरी और मित्र, कोमल पुष्प शय्या और पत्थरकी शिला; रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनी - इन सबमें मेरी दृष्टि सम हो जाय।


भगवान् ही सर्वश्रेष्ठ हैं और वे ही हमारे स्वामी; शरण ग्रहण करनेयोग्य, परम गति, परम आश्रय, माता-पिता, भाई बन्धु, परम हितकारी, परम आत्मीय और सर्वस्व हैं, उनको छोड़कर हमारा अन्य कोई भी नहीं है-इस भावसे जो भगवान्‌के साथ अनन्य सम्बन्ध है, उसका नाम, 'अनन्य योग' है।


जिसे संतोष है वह सदा सुखी है।


साधुओंका समागम करनेसे प्रभुप्रेमरूपी सुन्दर बादल उमड़ेंगे और उनसे ईश्वर - अनुग्रहका स्वच्छ जल बरसेगा, किंतु जब तुम उस प्रभुका ही समागम करने लग जाओगे तब तो उन बादलोंसे प्रेमके अमृतकी वर्षा होने लगेगी।


लोगोंको रुलाकर जो सम्पत्ति इकट्ठी की जाती है, वह आर्तस्वरसे रोनेकी आवाजके साथ ही विदा हो जाती है। पर जो धर्मके द्वारा संचित होती है, वह बीचमें किसी कारणवश हो जानेपर भी अन्तमें खूब फूलती-फलती है।


मनुष्यको चाहिये कि वह अपना काम देखे, दूसरोंके कामोंकी नुकताचीनी न करे।


जो ईश्वरको जानता है वह ईश्वरको छोड़कर और किसी बातकी चर्चा नहीं करता।


गुरु ही माता, गुरु ही पिता और गुरु ही हमारे कुलदेव हैं। महान् संकट पड़नेपर आगे और पीछे वही हमारी रक्षा करनेवाले हैं। यह काया, वाक् और मन उन्हींके चरणोंमें अर्पण हैं।


भगवान्‌की अनन्य भक्तिसे मनुष्य सर्वलोकोंके महेश्वर, समस्त जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले, वेदोंको उत्पन्न करनेवाले परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है।


जीवमात्रको दुःख न देनेकी चेष्टा करना ही सर्वोत्तम धर्म है।


पुस्तकें हजार पढ़ो, मुखसे हजार श्लोक कहो, पर व्याकुल होकर उसमें डुबकी नहीं लगानेसे उसे पा न सकोगे।


अपने पास बहुत-से नौकर-चाकर और भोगोंके सामान देखकर एक ज्ञानी ही फूला नहीं समाता।


साधु-संतोंसे मैत्री करो, सबसे पुराना परिचय (प्रेम) रखो, सबके श्रेष्ठ सखा बनो, सबके साथ समान रहो।


यदि हम अपने धार्मिक जीवनकी कसौटी केवल बाह्य आचारोंके आधारपर रखें तो हमारी साधना शीघ्र ही समाप्त हो जाय।


सांसारिक सम्पत्ति छोड़कर परमात्मामें समायी हुई सच्ची शान्ति पाना सच्चा वैराग्य है। अध्यात्मज्ञानकी प्राप्ति करना ही सच्चा विलास है।


जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही पुण्यका फल भोगता है और अकेला ही पाप से उत्पन्न होनेवाले दुखोंको भोगता है।


शान्त स्वभाव रहो और तुमपर कोई दोष लगावे तब भी मनको मत बिगाड़ो।


ईश्वरके भजन-पूजनमें जो दुनियाकी सारी चीजोंको भूल जाता है, उसे सभी चीजोंमें ईश्वर-ही-ईश्वर दिखलायी देने लगता है।


उच्च और पवित्र भावना एक ऐसी अद्भुत वस्तु है जो मनुष्यके मनमें आकर भी स्थिर नहीं रहती । उसका तो मनुष्यपर बहुत प्रेम है; किंतु मनुष्यकी उसपर प्रीति हो तब न।


स्त्री- पुत्रोंके पालन-पोषणकी चिन्तामें मनुष्यकी सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्माके भजनमें उसका मन नहीं लगता।


तुम जो कुछ भी करो अगर वह ईश्वरकी आज्ञाके अनुसार नहीं है तो तुमको दुःख ही मिलेगा।


जैसे हम द्वेषके द्वारा जगत्‌को नरकरूप बना देते हैं, वैसे ही प्रेमसे उसे स्वर्गसे भी बढ़कर बना सकते हैं।


परपुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाली स्त्री बाहरसे घरके कार्यों में व्यस्त रहकर भी भीतर-ही-भीतर उस नूतन जारसंगमरूपी रसायनका ही आस्वादन करती रहती है। इसी प्रकार बाहरसे तो राजकार्योंको भले ही करते रहो; किंतु हृदयसे सदा उन्हीं हृदयरमणके साथ क्रीडा-विहार करो।


जो कपटरहित है, निर्भय है और बाहर-भीतरसे एक-सा है, वही सच्चा साधु है, चाहे वह गृहस्थ हो या संन्यासी।


भगवान्‌के लिये सर्वस्वसे हाथ धोनेको तैयार हो जाना पूर्व - पुण्यके बिना नसीब नहीं होता।


कीर्तन करते हुए हृदय खोलकर कीर्तन करे, कुछ छिपाकर - चुराकर न रखे। कीर्तन करने खड़े होकर जो कोई अपनी देह चुरावेगा, उसके बराबर मूर्ख और कौन हो सकता है।


गुरुका काम शिष्यको अपने सदृश बना लेना है।


प्रकृतिकी दी हुई वस्तुओंमें सुख या विश्वासकी कामना न रखो; अन्यथा परमात्माको तुम अप्रसन्न करते हो; स्वभावतः जो कुछ तुम्ह प्राप्त है, वह सभी परमात्माका दिया हुआ है।


विश्वके कोलाहलसे जहाँतक हो सके दूर भागो; सांसारिक विषयोंकी बातें बहुत बड़ी बाधाजनक हैं, कितनी ही अधिक नेकनीयतीके साथ वे क्यों न की जायँ ! क्योंकि उनके द्वारा हम शीघ्र ही पतित हो जाते हैं और पाखण्डमें घिर जाते हैं।


जो मनुष्य मानव-जीवनका मूल्य नहीं समझता, वह दु:खी और साधु पुरुषोंकी सेवासे मिलनेवाले माधुर्यका अनुमान नहीं कर सकता।


स्वर्ग और मृत्युलोकके सारे जीवनमें किये हुए धर्मानुष्ठानों की अपेक्षा पलभरका पवित्र प्रभु-समागम कहीं श्रेष्ठ है।


कहनीके समान रहनी न हो, इसीका नाम ठगी है।


अनन्य प्रेमकी गंगामै सब शुभाशुभ कर्म शुभ ही हो जाते हैं।


प्रायश्चित्तकी तीन सीढ़ियाँ हैं- आत्मग्लानि, दूसरी बार पाप न करनेका निश्चय और आत्मशुद्धि।


जिस क्षण भगवन्नामका स्मरण न हो, वही सबसे बड़ा दुःख है और भगवन्नामका स्मरण होता रहे तो शरीरको चाहे कितना भी क्लेश हो उसे परमसुख ही समझना चाहिये।


मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण मन है, विषयासक्त मनसे बन्धन होता है और विषयवृत्तिसे रहित मनसे मुक्ति। अतएव मुक्तिकी चाह करनेवाले मनको सदा विषयोंसे रहित रखे। विषयसंगसे छूटा हुआ मन जब उन्मनीभावको प्राप्त होता है, तब परमपदकी प्राप्ति होती है।


शिक्षा प्राप्त करते समय ऐसा ध्यान रखो कि मानो तुम्हें सर्वदाके लिये संसारमें जीवित रहना है, किंतु संसारमें अपनी आयुका ध्यान करते हुए यह सोचो कि मानो तुम्हें कल मृत्युका ग्रास बनना है।


सदा स्मरण करनेयोग्य तो एक ही वस्तु है। सदा सर्वदा सर्वत्र श्रीकृष्णके सुन्दर नामके स्मरणमात्रसे ही प्राणिमात्रका कल्याण हो सकता है।


अपना दोष कोई देख नहीं पाता। अपना व्यवहार सभीको अच्छा मालूम होता है; किंतु जो मनुष्य सब हालत में अपनेको छोटा समझता है, वह अपने दोष भी देख सकता है।


भगवान् प्रेम, सुख और शान्तिके निकेतन हैं। प्रेम, सुख और शान्ति उनका स्वरूप ही है।


भक्ति, वैराग्य और ज्ञानका स्वयं आचरण करके दूसरोंको इसी आचरणमें लगानेका नाम ही लोकसंग्रह है।


बैठकर राम-नामके ध्यानका अनुष्ठान करें, उसीमें मनको दृढ़ कर एकनिष्ठ भावसे मग्न हों। इससे बढ़कर कोई साधन है नहीं।


जबतक धन पैदा करनेकी ताकत रहती है, तभीतक घरके लोग प्रसन्न रहते हैं। जब बुढ़ापेमें शरीर जर्जर हो जाता है, तब कोई बात भी नहीं पूछता।


मरनेके पहले किसीको महात्मा न समझो, पता नहीं मनुष्य कब गिर जाय । संसारमें जगह-जगह फिसलन भरी है।


जैसे वृक्षकी जड़को सींचनेसे उसकी सभी शाखाएँ और पत्ते आप-से-आप तृप्त हो जाते हैं, वैसे ही एक परमात्माकी भक्तिसे सारे देवी-देवता आप ही प्रसन्न हो जाते हैं।


संतोंने मर्मकी बात खोलकर बता दी है-हाथमें झाँझ मंजीरा ले लो और नाचो। समाधिके सुखको इसपर न्यौछावर कर दो। ऐसा ब्रह्मरस इस नाम संकीर्तनमें भरा हुआ है।


जो मनुष्य ईश्वरसे डरता है उससे दुनिया भी डरती है और जो प्रभुसे नहीं डरता है उससे दुनिया भी नहीं डरती।


ईश्वर अपने आनेके पूर्व साधकके हृदयमें प्रेम, भक्ति, विश्वास तथा व्याकुलता पहले ही भर देते हैं।


ईश्वरको जानकर भी उससे प्रेम न करना असम्भव है। जो परिचय प्रेमशून्य है, वह परिचय ही नहीं।


पर उपकार करो, पर-निन्दा मत करो, परस्त्रियोंको माँ-बहन समझो। प्राणिमात्रमें दया भाव रखो।


भगवान्की पूजाके लिये सात पुष्प उपयोगी हैं 1 - अहिंसा, 2 - इन्द्रिसंयम, 3- प्राणियोंपर दया, 4-क्षमा, 5-मनको वशमें करना, 6-ध्यान और 7-सत्य इन्हीं फूलोंसे भगवान् प्रसन्न होते हैं।


बीज भूँजकर लाई बना डाली, अब जन्म-मरण कहाँ रहा।


निरपेक्ष ही धीर होता है। धैर्य उसके चरण छूता है। जो अधीर है उससे निरपेक्षता नहीं होती।


जब भक्त पैदल चलता है तो शान्ति पद-पदपर उसके लिये मृदु पदासन बिछाती और उसकी आरती उतारती है।


बुद्धिमान् मनुष्य और किसी बातमें जल्दी नहीं करता, वरं कभी-कभी चुप रह जाता है, परंतु जब धर्मका काम आ पड़ता है, तब वह उसे तुरंत कर डालता है।


श्रीहरिके सगुणरूपकी भक्ति करना ही जीवोंके लिये मुख्य उपासना है। इस सगुण-साक्षात्कारका मुख्य साधन है। हरिनाम स्मरण और सगुण-साक्षात्कारके अनन्तर भी नाम-स्मरण ही आश्रय है।


यदि तुममें कोई अच्छाई हो तो यह समझो कि दूसरोंमें तुमसे कहीं अधिक है।


हृदय कब सुखी होता है? जब हृदयमें प्रभु आ विराजते हैं।


पूरे जागे हुए मनका अर्थ यही है कि ईश्वरके सिवा दूसरी किसी चीजपर चले ही नहीं।


भोजनमें जहर मिला हो और यह बात भोजन करनेवालेको मालूम हो जाय तो वह तुरंत थाली छोड़कर उठ जायगा, इसी प्रकार संसारकी अनित्यता और दुःखरूपताका पता लगते ही मनुष्यको वैराग्य हो जाता है। फिर वैराग्य मनसे हटता ही नहीं।