अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



जबतक हृदय संकेत नहीं करता, ज्ञानी मौन रहते हैं। उनकी जीभसे वही बात निकलती है जो उनके हृदयमें होती है।


विद्याके समान संसारमें कोई नेत्र नहीं है, सत्यपालन के समान कोई तप नहीं है, रागके समान दुःखका कोई कारण नहीं है।


शम-दम आज्ञाकारी सेवक होकर भक्तके द्वारपर हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। ऋद्धि-सिद्धि दासी बनकर घरमें काम करती हैं। विवेक टहलुआ सदा हाजिर ही रहता है।


भगवत्प्रेम जैसे-जैसे बढ़ता है-कर्त्ता भगवान् हैं मैं नहीं; यह जो कुछ है भगवान्‌का है, मेरा नहीं; यह भाव जैसे जैसे बलवान् हो उठता है वैसे-वैसे अहंकारकी आँधी भी बंद होती जाती है।


माँसे रोकर भक्ति माँगोगे तो वह अवश्य देगी। इसमें जरा भी शक नहीं है।


जिस क्षण में भगवान्‌का चिन्तन नहीं किया वही हानि हैं, वही महान् अपराध है, वही अन्धापन है, वही मूर्खता है और वही ठूंठापन है।


उस देवताका मन्दिर तेरे दिलके अंदर ही है। उसीकी तू सेवा कर, उसीकी पूजा कर। क्या तेरा हरेक श्वास इसका साक्षी नहीं है।


समर्पणका सरल उपाय है नामस्मरण । नामस्मरणसे पाप भस्म होते हैं।


आदमी वह काम तो नहीं करता जो उसके वशमें है, परंतु वह करता है जो दूसरोंके वश है अर्थात् वह अपने दोषोंका त्याग तो नहीं करता पर दूसरोंके दोष छुड़ाना चाहता है।


धनके अभिमानी मनुष्यका तीन बातोंसे जरूर सम्बन्ध होता है- (1) क्लेश, (2) अशुभ विचार और (3) पापकी बुद्धि।


जिसकी गाँठमें राम हैं, उसके पास सब सिद्धियाँ हैं। उसके आगे अष्ट सिद्धि और नौ निधि हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।


शुभ कर्म करनेका स्वभाव ऐसा धन है जिसे न शत्रु छीन सकता है और न चोर चुरा सकता है।


जीवन्मुक्त उसे कहते हैं जिसके हृदयमें पूर्ण शान्ति आ जाती है, आनन्दका भण्डार खुल जाता है तथा जिसका चित्त सदा परमात्माके चरणोंमें लगा रहता है।


हरिका नाम ही बीज है और हरिका नाम ही फल है। यही सारा पुण्य और सारा धर्म है। सब कलाओंका यही सार मर्म है। निर्लज्ज नामसंकीर्तनमें सब रसोंका आनन्द एक साथ आता है।


संसारके यश और निन्दाकी कोई परवा न करके ईश्वरके पथमें चलना चाहिये।


याचना किये बिना यदृच्छासे जो कुछ मिले उसे साधक मंगलमय प्रभुका महाप्रसाद समझकर स्वानन्दसे भोग लगावे।


जलमें नाव रहे तो कोई हानि नहीं, पर नावमें जल नहीं रहना चाहिये। साधक संसारमें रहे तो कोई हानि नहीं, परंतु साधकके भीतर संसार नहीं होना चाहिये।


बाहरी युक्ति और तर्कोंके द्वारा जो भगवान्‌के अस्तित्वका निरूपण किया जाता है, वह केवल बाह्य-वाणीका विकासमात्र है, उससे भगवान्‌का यथार्थ बोध नहीं हो सकता।


प्रेममें प्रतिकूलता नहीं रहती। प्रेम प्रतिकूलताको खा जाता है। प्रेमास्पद यदि प्रेमीके प्रतिकूल कार्य करके सुखी होता है तो उसीमें प्रेमीको अनुकूलता दीखती है।


हृदयका भाव भगवान् जानते हैं, उन्हें जानना नहीं पड़ता।


माँझीकी अहसान मेरी बला उठाये, मैंने तो अपनी नाव ईश्वरके नामपर छोड़ दी है और उसका लंगर भी तोड़ दिया है।


जब एक रामको ही शरण लेनेसे स्वार्थ और परमार्थ सहजमें ही सिद्ध हो जाते हैं, तब दूसरेके द्वारपर जाकर अपनी हीनता दिखलाना उचित नहीं।


स्त्री साँपसे भी भयंकर है। साँपके काटनेसे मनुष्य मरता है, पर स्त्रीके रूप-चिन्तनमात्रसे ही मनुष्य मर जाता है।


कलिकाल बड़ा भीषण है, इसमें केवल प्रभुके नामका ही सहारा है।


यहाँकी लक्ष्मी तो जीवके लिये भाररूप, चिन्ता, भय, क्लेश, श्रम, दुःख और मदको देनेवाली है और अन्तमें जन्म-मरणके चक्कर में डालनेवाली है।


जिसको 'मैं कौन हूँ' का पूरा ज्ञान हो गया तथा जो प्रभुके प्रेम-रसमें पग गया है वही सच्चा साधु है।


यह समस्त संसार अनित्य है, इस अनित्यताको जहाँ जान लिया तहाँ वैराग्य हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है। ऐसा दृढ़तर वैराग्य उत्पन्न होना ही तो भगवान्‌की दया है।


जो मनुष्य सदा चिन्तामें डूबे रहते हैं, निरन्तर भयभीत रहते हैं, मनको सदा क्रोधसे पूर्ण रखते हैं, वे सदा ही प्रायः आधे बीमार रहते हैं । चिन्तामें डूबे रहनेवालेको अन्न अच्छी तरह कभी नहीं पचता।


अपनी स्तुति और दूसरोंकी निन्दा, हे गोविन्द ! मैं कभी न करूँ। सब प्राणियोंमें हे राम! मैं तुम्हें ही देखूँ और तेरे प्रसादसे ही सन्तुष्ट रहूँ।


मनुष्यको जो माँगना हो, सर्वशक्तिमान् भगवान्से माँगना चाहिये, वही सबकी इच्छा पूरी कर सकता है।


वही अन्न पवित्र है जिसका भोग हरिचिन्तनमें है, वही भोजन स्वादिष्ट है जिसमें श्रीहरि मिश्रित हैं।


जिसने कामनापर विजय प्राप्त कर ली वह रंक होनेपर भी राजा है और जो कामनाका गुलाम है, वह बादशाह होनेपर भी कंगाल है।


- यह जगत् एक रंगशाला है। जैसे रंगशालाक मचपर पात्र अपना वेष बदलकर आते हैं, वैसे ही इस संसारमें भी जीव वेष बदल-बदलकर आते हैं।


जबतक मनुष्य पहले गाँवको नहीं छोड़ देता, तबतक दूसरे गाँवको नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार जबतक संसारका सम्बन्ध नहीं छोड़ा जाता, तबतक प्रभुके धाममें नहीं पहुँचा जा सकता।


अन्यायकी शिक्षा देनेवाले मनुष्यके सामने वह अन्यायकी शिक्षा ही एक दिन भीषण मृत्युके रूपमें आती है। और तब उसे अपनी करनीपर पछताना पड़ता है।


प्रभुस्मरणके लिये संसारको भूल जाओ और परलोककी बात भी मत सुनो।


चाभीको दाहिने घुमा रहे हो सो बायें घुमाओ तो ताला खुल जायगा। जिधर जा रहे हो उधर पीठ फेर दो, आगे न देख पीछे देखो, बाहरकी ओर आँख लगाये हो सो अंदरकी ओर लगाओ, प्रवाह छोड़ उद्गमकी ओर मुड़ो तो सचमुच ही तुम मुक्त, सुखी, ब्रह्मस्वरूप होगे।


भगवान्‌की पूजा करो तो उत्तम मनसे करो। उसमें बाहरी दिखावेका क्या काम ? जिसको जगाना चाहते हो वह अन्तरकी बात जानता है। कारण, सच्चोंमें वही सच है।


प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह जैसा दूसरेको उपदेश करता है, वैसा पहले अपनेको बना ले। जिसने अपने मन, इन्द्रियोंको वशमें किया, वह दूसरोंको भी वशमें कर सकता है।


भगवान् आलिंगन देकर प्रीतिसे इन अंगोंको शान्त करेंगे और अमृतकी दृष्टि डालकर मेरे जीको ठंडा करेंगे। गोदमें उठा लेंगे और भूख-प्यास भी पूछेंगे और पीताम्बरसे मेरा मुँह पोछेंगे। प्रेमसे मेरी ओर देखते हुए मेरी ठुड्डी पकड़कर मुझे सान्त्वना देंगे। मेरे माँ-बाप हे विश्वम्भर! अब ऐसी ही कुछ कृपा करो।


हम सभी दुर्बल प्राणी हैं, परंतु हमें अपनेसे अधिक दुर्बल किसीको भी नहीं समझना चाहिये।


दूधमें मक्खन रहता है, पर मथनेसे ही निकलता है। वैसे ही जो ईश्वरको जानना चाहे वह उसका साधन-भजन करे।


जैसा जिसका भाव हो, भगवान् वैसे ही हैं।


यह कभी मत सोचो कि परमात्मासे रहित तुम केवल अकेले हो। वह तुम्हारे साथ सर्वदा विचरण करता है तथा तुम्हारी भली-बुरी सभी क्रियाओंका द्रष्टा है।


जो बाहरसे खूब साफ है और अंदरसे मैला है, वह नरकके दरवाजेकी चाभी हाथमें लिये हुए है।


जीवनमें निम्नलिखित तीन बातोंका सदा स्मरण रखो - (1) क्रोधमें क्षमा, (2) अभावमें उदारता तथा (3) अधिकारमें सहिष्णुता।


इस संसारसे जो रूठा, उसीने सिद्धपन्थपर पैर रखा।


एक ज्ञान ज्ञान, बहुत ज्ञान अज्ञान।


प्रारब्धवश जिस जातिमें हम पैदा हुए उसी जातिमें रहकर तथा उसी जातिके कर्म करते हुए प्रेमसे नारायणका भजन करें और तर जायँ - इतना ही अपना कर्तव्य है।


श्रीरामके नामका स्मरण करो। यह संजीवनी ओषधि है।


बुरे आचरणवाले लंबे जीवनसे शुभ आचारका थोड़ा जीवन हजार दरजे अच्छा है।


विपत्ति तुम्हारे प्रेमकी कसौटी है। विपत्तिमें पड़े हुए बन्धु-बान्धवोंमें तुम्हारा प्रेम बढ़े और वह तुम्हें निरभिमान बनाकर आदरके साथ उनकी सेवा करनेको मजबूर कर दे, तभी समझो कि तुम्हारा प्रेम असली है।


पलभरका ईश्वरका सहवास हजारों वर्षोंकी साधना से कहीं अधिक उत्तम है।


ऐसे मौन साधे क्यों बैठे हो । मेरी बातका जवाब दो । मेरा पूर्वसंचित सारा पुण्य तुम हो, तुम्हीं मेरे सत्कर्म हो, तुम्हीं मेरे स्वधर्म हो, तुम्हीं नित्य-नियम हो हे नारायण ! मैं तुम्हारे कृपावचनोंकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।


जो निर्द्वन्द्व होकर निन्दा सह लेता है उसकी माता धन्य है।


माताके चित्तमें बालक ही भरा रहता है। उसे अपनी देहकी सुध नहीं रहती। बच्चेको जहाँ उसने उठा लिया वहीं सारी थकावट उसकी दूर हो जाती है।


भक्तसमागमसे सब भाव हरिके हो जाते हैं, सब काम बिना बताये हरि ही करते हैं। हृदयसम्पुटमें समाये रहते हैं। और बाहर छोटी-सी मूर्ति बनकर सामने आते हैं।


जिस मनुष्यने जन्म लेकर अपना और दूसरेका कल्याण किया और तत्त्वज्ञानको प्राप्त कर लिया उसीका जीवन सार्थक है।


उत्तम मनुष्य दो प्रकारके हैं-एक वे जो प्रभुके सिवा और किसी चीजको जानते और चाहते ही नहीं और दूसरे वे जो प्रभुके विधानपर विश्वास करते हैं। इनमें पहले उच्च कोटिके हैं और दूसरे निम्न कोटिके।


मेरे माथेपर पैर रखकर आओ न मेरे प्राणेश्वर मेरे हृदयमन्दिरमें। आओ, तुम तेरी अन्तरकी सेजपर पौढ़ो और मैं तुम्हारे प्यारे-प्यारे चरण चूमूँ।