अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



पिता स्वयमेव नारायण हैं। माता प्रत्यक्ष लक्ष्मी हैं। ऐसे भावसे जो भजन करता है, वही सुपुत्र है।


वैराग्य खेल नहीं, भगवान्‌की दया हो तो ही उसका लाभ हो।


मन सरपट भागनेवाला घोड़ा है। वैराग्यकी लगामसे उसकी चाल काबू करके उसे वशमें करना होगा। ऐसे दुर्जय मनपर जो सवार होगा, वह बलवानोंसे भी बलवान् है।


दीर्घसूत्रताका स्वभाव समयकी चोरी है। यदि मनुष्य आजका काम कलपर न टाले तो वह बहुत-सी बुराइयों से बच सकता है।


धर्मके अनुष्ठानसे जो फल मिले उसे श्रीप्रभुप्रेमके लिये उत्सर्ग कर दो।


अपना चित्त शुद्ध हो तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं; सिंह और साँप भी अपना हिंसाभाव भूल जाते हैं, विष अमृत हो जाता है, आघात हित होता है, दुःख सर्वसुखस्वरूप फल देनेवाला बनता है, आगकी लपट ठंडी-ठंडी हवा हो जाती है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसको सब जीव अपने जीवनके समान प्यार करते हैं कारण, सबके अन्तरमें एक ही भाव है।


जो भगवान्‌की प्राप्तिके लिये जूझता है, उसकी सहायता करनेमें प्रभुको बड़ा ही आनन्द आता है।


भाग्यशाली कौन ? जो ईश्वरकी भक्ति करके उसके प्रेमका स्वाद चखकर इस लोक और परलोकमें शान्ति पाता है।


भगवान्‌को अभिमानसे द्वेष है और दीनतासे प्यार । याद रखो, भगवान्‌का नाम दीनबन्धु है, अभिमानी बन्धु नहीं।


साधन-मार्गमें मनुष्यकी ऐसी परीक्षा होती है जैसे आगकी भट्ठीमें सोनेकी।


सच्ची नम्रता उनका आधार है, सरल आज्ञाकारितामें उनका जीवन बीतता है, प्रेम और धीरतामें वे चलते हैं, अतएव आत्मभावमें वे नित्य उन्नति करते हैं और परमात्माकी दृष्टिमें सद्वृत्तियोंको प्राप्त करते हैं। उपासनामें उनकी कितनी श्रद्धा है, कितनी अधिक कामना है उनमें सद्गुणोंको बढ़ानेकी और कितना संयमित होता है उनका जीवन।


जो श्रीहरिके प्रेम-रसमें मतवाले हो रहे हैं, उनका विचार बहुत गहरा है। ऐसे साधु त्रिभुवनकी सम्पत्तिको तृणके समान समझते हैं।


सारे संसारका एक ग्रास बनाकर भी यदि बालकके मुँहमें दे दिया जाय तो भी वह भूखा ही रहेगा। जिसका मन खान-पान और गहने-कपड़ेमें ही बसा है, उसकी स्थिति पशुसे भी गयी-बीती है।


जिस मनसे साधना करनी है, वही यदि विषयासक्त हो जाय तो फिर साधना असम्भव ही समझो।


संत सेवा मुक्तिका द्वार है।


राजा, अफसर और बड़े आदमियोंसे दूर रहना; क्योंकि उनका स्वभाव, बालकों-जैसा अस्थिर और उनका प्रताप बौखलाये हुए बाघके समान हानिकारक होता है।


भगवान्‌की खोज करना और राज्यपदकी इच्छा रखना ये दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। इनमें उतना ही विरोध है जितना धूप और छायामें, आग और पानीमें। जो मनुष्य राज्यपद पाना चाहता है उसके लिये शान्तिकी इच्छा करना व्यर्थ है।


मनुष्यका सच्चा कर्तव्य क्या है? ईश्वरके सिवा किसी दूसरी चीजसे प्रीति न जोड़ना।


अपने दोषको न देखना और न सुधारना, इसीका नाम धर्मान्धता है।


तुम्हारे नामका जो नेह लगा है, वह अब छूटनेवाला नहीं।


जो कुछ मिले उसीमें संतोष करना और दूसरोंसे डाह न करना, यही शान्तिके खजानेकी कुंजी है।


जो परमात्मा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लय करते हैं, जो विश्वके ईश्वर हैं, सातो समुद्र जिनकी आज्ञामें रहते हुए पृथ्वीको डुबो नहीं देते उन वेद और उपनिषदोंद्वारा प्रतिपादित सब जगत्के साक्षी और सर्वज्ञ प्रभुको धन और जवानीमें मतवाले मूर्खलोग नहीं मानते।


संतोंकी मामूली बातें महान् उपदेश होती हैं। चित्तमें पड़ी हुई गाँठें उनके शब्दमात्रसे छिद जाती हैं। इसलिये बुद्धिमानोंको चाहिये कि सत्संग करें। सत्संगसे साधकोंके भवपाश कट जाते हैं।


जो मूढ़ लोग बाहरकी कामनाओंमें लगे रहते हैं, वे विषयासक्त पुरुष आधि-व्याधिरूपसे फैले हुए मृत्युके पासमें बँधते हैं। इसलिये धीर पुरुष नित्य अमृतत्त्वको जानकर अनित्य वस्तुओंकी इच्छा नहीं करते।


संशयात्मा, चंचलचित्त, अविश्वासी, डरपोक, चिन्तातुर और इन्द्रियोंके गुलामको कभी स्वप्नमें भी सुख नहीं मिल सकता।


दान और सत्कर्म करो, पर फलकी कामनासे नहीं। इससे प्रभु तुमपर प्रसन्न होगा।


मनुष्य मनसूबे बाँधता है और परमात्मा उन्हें मिटा देता है।


हम दूसरोंको बड़ी कठोरतासे सुधारना चाहते हैं; परंतु अपना सुधार नहीं करते।


यदि तुम्हारा बोलना न्यायसंगत तथा आवश्यक हो तो उन्हीं बातोंको बोलो जो तुम्हें गौरवान्वित कर सकें।


अगर गिरो तो अपने कुकर्मोंको दोष दो, अगर ऊँचे चढ़ो तो मालिकका गुण गाओ।


चित्तमें भगवान्‌को बैठाया कि पर-द्रव्य और पर नारी विषवत् हो गये।


परमार्थपथमें धन, स्त्री और मान- तीन बड़ी खाइयाँ हैं। पहले तो परमार्थके पथमें चलनेवाले पथिक ही बहुत थोड़े होते हैं, फिर जो होते हैं, उनमेंसे कुछ तो पहले पैसेकी खाईमें ही खो जाते हैं। इससे जो बचते हैं, वे आगे बढ़ते हैं। इसमें से कुछको दूसरी खाई (स्त्रीकी) खा जाती है। इससे भी बचकर जो आगे बढ़े, वे तीसरी खाई (मानकी) में खपते हैं। इन तीनों खाइयोंको जो पार कर जाते हैं, वे ही भगवत्कृपाके पात्र होते हैं, पर ऐसा पुरुष विरला ही होता है।


हे नारायण! स्त्रियोंका संग न हो। काठ-पत्थर और मिट्टीकी भी स्त्रीकी मूर्तियाँ सामने न हों। उनकी माया ऐसी है कि भगवान्का स्मरण नहीं होता, भगवान्का भजन नहीं होता, उनसे परचा हुआ मन वशमें नहीं होता। उनके नेत्रोंके कटाक्ष और हाव-भाव इन्द्रियोंके रास्ते मरणके कारण होते हैं। उनका लावण्य केवल दुःखका मूल है।


ये सब वाद-विवाद शब्दाडम्बर और अहंता-ममता तो परदेके बाहरकी बातें हैं। परदेके भीतर तो नीरवता, स्थिरता, शान्ति और आनन्द व्याप्त है।


काम, क्रोध, मद, लोभकी खान जबतक मनमें है, तबतक पण्डित और मूर्खमें क्या भेद है? दोनों एक समान ही हैं।


एक सुन्दर जीवन मनुष्यको परमात्माके अनुकूल बुद्धिमान् बना देता है और उसे बहुत-सी अच्छी चीजोंमें अनुभव प्रदान करता है।


मनके दोष, मनकी चंचलता, विषयोंमें आसक्ति आदि न मिटें तो निराश मत होओ, भजनके बलसे सब दोष अपने-आप दूर हो जायँगे।


भगवान्‌के प्रेमीकी यह पहचान है कि वह भगवान्‌के लिये सदा व्याकुल रहता है।


संतका लक्षण क्या है ? प्राणिमात्रपर दया।


उन ग्वलिनोंका भी कैसा महान् पुण्य था, वे गाय, बछड़े और अन्य पशु भी कैसे भाग्यवान् थे। ग्वालिनोंको जो सुख मिला वह दूसरोंके लिये, ब्रह्मादिके लिये भी दुर्लभ है।


जिस प्रकार वर्षा ऋतुके आनेपर जल बरसता है, बिजली चमकती है, मेघ गर्जना करते हैं, हवा जोरसे चलने लगती है, फूल खिल उठते हैं और पक्षी आनन्दमें डूबकर कूदने लगते हैं, उसी प्रकार परमात्माके दर्शन हो जानेपर आनन्दित होकर नेत्र जल वर्षा करने लगते हैं, ओठ मृदु हास्य करने लगते हैं, अन्तरकी कली खिल उठती है, आनन्दके झोंकेसे मस्तक हिलने लगता है, प्रतिक्षण उस प्रिय सखाके नामकी गर्जना होने लगती है और प्रेमकी मस्ती प्रभुके गुणगानमें सराबोर कर देती। है।


मनुष्यके घमण्डका कुछ ठिकाना है-किसीको कुछ नहीं समझता। मौतने इसे लाचार कर रखा है, नहीं तो यह ईश्वरको भी कुछ नहीं समझता।


दान सर्वस्व देना ही है, अपने लिये खर्च करना व्यर्थ गँवाना है। ओषधि दूसरोंको फल देती है और स्वयं सूख जाती है। उसी प्रकार हे वीर! स्वरूपकी प्राप्तिके लिये प्राण, इन्द्रिय और घिसना ही तप है।


भगवद्-भजनमें दूसरोंकी निन्दा करना तथा भक्तोंके प्रति द्वेषभाव रखना महान् पाप है। जो अभक्त हैं, उनकी उपेक्षा करो, उनके सम्बन्धमें कुछ सोचो ही नहीं, उनसे अपना सम्बन्ध ही मत रखो। जो भगवद्भक्त हैं, उनकी चरणरजको सदा अपने सिरका आभूषण समझो। उसे अपने शरीरका सुन्दर सुगन्धित अंगराग समझकर सदा भक्तिपूर्वक शरीरमें मला करो।


भोगोंका स्वरूप जान लेनेपर उनमें रस आना बंद हो जायगा। फिर अपने आप ही उनमें अरुचि हो जायगी। वे खारे लगने लगेंगे और ज्यों-ज्यों उनमें अरुचि होगी-उनकी इच्छाका नाश होगा, त्यों-ही-त्यों भगवत्प्राप्तिकी-नित्य सुन्दर और अनन्तको पानेकी तीव्र आकाङ्क्षा जाग उठेगी।


जो मनुष्य भोगोंके लिये भगवान्‌को बेच देता है, उससे बढ़कर अभागा और कोई नहीं।


मन, वाणी और कर्मसे प्राणिमात्रके साथ अद्रोह सबपर कृपा और दान- यही साधु पुरुषोंका सनातन धर्म है।


मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ और न मोक्ष ही चाहता हूँ। मैं दुःखपीड़ित प्राणियोंके दुःखका नाश चाहता हूँ।


विरक्तिके बिना ज्ञान नहीं ठहर सकता । देहसहित सम्पूर्ण दृश्यमान संसारके नश्वरत्वकी मुद्रा जबतक चित्तपर अंकित नहीं हो जाती, तबतक वहाँ ज्ञान नहीं ठहर सकता।


कामी पुरुषों और कामिनियोंके संसर्गसे पुरुष कामी हो जाता है तथा आगेके जन्ममें भी क्रोधी, लोभी और मोही होता है।


निगमके वनमें भटकते-भटकते क्यों थके जा रहे हो ? ग्वालोंके घर चले आओ, यहाँ वह रस्सीसे बँधे हैं।


जहाँ संतोष है वहाँ भगवान् हैं और जहाँ भगवान् हैं वहाँ संतोष है।


जब मेरी जीभ अद्वितीय ईश्वरकी महिमा और गुण गाने लगी, तब मैंने देखा भूलोक और स्वर्गलोक मेरी प्रदक्षिणा कर रहे हैं। हाँ, लोग इसे देख नहीं पाये।


सदा स्मरण रखिये कि ईश्वरने हमें सुख और प्रसन्नता सदा दे रखी है और ये हमारी चेतनामें वैसे-वैसे ही विस्तार पायेगी जैसे-जैसे हम इनको अपनायेंगे और इन्हें अपनेमें रहने देंगे।


जो मनुष्य लोगोंके सामने भगवान्‌की बातें करता है, परंतु हृदयमें मान देता है, उसे देर-सबेर बेआबरू होकर आफतमें पड़ना ही पड़ेगा, -बड़ाई और ऐसी-वैसी वस्तुओंको स्थान फिर जब वह अपनी भूलको देखकर और स्वीकार करके सच्चा पश्चात्ताप करेगा और ऐसे कामोंको छोड़कर प्रभुपरायण बन जायगा, तभी तमाम संकटोंसे छूटेगा।


जो आनन्द संतोषी, निरीह और आत्माराम पुरुषको प्राप्त होता है, वह उन लोगोंको कभी नहीं मिलता जो कामनाओंके वशमें होकर इधर-उधर भटका करते हैं। संतोषी मनुष्यके लिये संसारमें सर्वत्र सुख ही सुख है।


बहुत अधिक बोलनेसे व्यर्थ और असत्य शब्द निकल जाते हैं। इसलिये कर्मक्षेत्रमें जितना कम बोलनेसे काम चले, उतना ही कम बोलना चाहिये।


भवसागरको तैरकर पार करते हुए चिन्ता किस बातकी करते हो? उस पार तो 'वह' कटिपर कर घरे खड़े हैं। जो कुछ चाहते हो उसके वही तो दाता हैं। उनके चरणोंमें जाकर लिपट जाओ! वह जगत्स्वामी तुमसे कोई मोल नहीं लेंगे, केवल तुम्हारी भक्तिसे ही तुम्हें अपने कंधेपर उठा ले जायेंगे। प्रभु जहाँ प्रसन्न हुए तहाँ भुक्ति और मुक्तिकी चिन्ता क्या ? वहाँ दैन्य और दारिद्र्य कहाँ।


भगवान्को छोड़कर केवल दैवी गुणोंसे मोक्षकी आशा रखना बच्चोंकी-सी व्यर्थ चेष्टा है। सत्य आदि सद्गुणोंके ठहरानेके लिये भगवद्विश्वासरूपी आधारकी अत्यन्त आवश्यकता है।


अपने निर्वाहके लिये जो चिन्ता अथवा प्रपंच नहीं करता वही सच्चा विश्वासी है।