मन और मुखको एक करना ही साधना है।
घरमें दीया जलानेसे वह झरोखेमें भी प्रकाशित है। वैसे ही भगवान् मनमें प्रकट होते ही अन्य इन्द्रियोंमें भी भजनानन्द उत्पन्न कर देते हैं।
धर्म, सत्य और तप-यही जीवनकी सार सम्पत्ति है।
गुरु ईश्वर-नियुक्त होते हैं। गुरु-शिष्यका सम्बन्ध अनेक जन्म-जन्मान्तरोंसे चला आता है और यह गुरु निश्चित समयपर निश्चित शिष्यको कृतार्थ किया करते हैं।
तुम कभी अपने मनमें यह चिन्ता न करना कि हाय! अमुकने कितने पैसे कमा लिये हैं, पर मैं गरीब हूँ। इसके बदले, यह विचार करना कि हाय! अमुकने भगवान्का जितना भजन किया, उसको देखते मैंने तो कुछ भी नहीं किया।
कल करना हो सो आज ही कर लो और जो आज करना हो, उसे अभी कर लो, पलमें मृत्यु हो जायगी, फिर कब करोगे लोग कैसे बावले हैं जो झूठे सुखको सुख कहते हैं और मनमें मोद मानते हैं। अरे! यह जगत् तो कालका चबैना है। कोई कालके मुखमें है तो कोई हाथमें।
जो ज्ञान तुमको धर्ममें और सदाचारमें प्रेरित करता है, वही सच्चा ज्ञान है और जो विश्वास प्रभुके प्रति अधिक से-अधिक नम्र बनाता है, वही सच्चा विश्वास है।
प्रभु अपने प्रेमियोंको ऐसी जगह रखता है जहाँ साधारण लोग पहुँच ही नहीं पाते। जो लोग उस जगह पहुँच गये हैं, उनको जनसाधारण पहचान ही नहीं सकते कि वे प्रभुप्रेमी हैं। जब कभी मैंने उस प्रभुके सौन्दर्यकी बात लोगोंसे कही तो उन्होंने मुझे पागल बतलाया।
पीड़ाकी आग तो उसीको सता सकती है जो ईश्वरको नहीं पहचानता। ईश्वरको जाननेवाला तो धधकती हुई आगको भी ठण्ढी और सुखदायक जान पाता है।
बिना विश्वासके भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भगवान् प्रसन्न नहीं होते और भगवत्कृपा बिना जीवको सपने में भी शान्ति नहीं मिल सकती।
तुम्हारे नामने प्रह्लादकी अग्निमें रक्षा की, जलमें रक्षा की, विषको अमृत बना दिया। इस अनाथके नाथ तुम हो यह सुनकर मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ।
सबके साथ दयालुताका बर्ताव करो, चाहे वे किसी भी दशामें क्यों न हों। क्रोधकी अवस्थामें भी दयापूर्ण शब्दोंका ही प्रयोग करो।
यदि हम प्रारम्भमें विशेष प्रयत्नशील हो जायँ तब हम पीछे सभी कुछ सहज ही और प्रसन्नतापूर्वक कर सकेंगे।
विषयी पुरुष नीचे लिखी तीन बातोंके लिये अफसोस करते हुए मरते हैं- (1) इन्द्रियोंके भोगोंसे तृप्ति नहीं हुई, (2) मनकी बहुत-सी आशाएँ अधूरी ही रह गयीं और (3) परलोकके लिये कुछ साथ न ले चले।
जो दुर्बल हैं, जिनकी मानसिक स्थिति कमजोर है और एक प्रकारसे वासना प्रिय और आधिभौतिक प्रकृतिके हैं—वे कठिनाईसे अपनेको सांसारिक वासनाओंसे पूर्णतः हटा सकते हैं।
जो मनुष्य ईश्वरीय वाणीकी मधुरता चाखे बिना ही इस लोकसे चले जाते हैं, वे बेचारे शान्ति और कल्याणसे वंचित ही रह जाते हैं। लोगोंके साथ सद्भावसे बर्तना, प्रभु पुरुषोत्तमकी सेवा करना, उनकी आज्ञामें रहना तथा प्रभु ध्यान-स्मरणमें पवित्रतासे जीवन बिताना यही हमारा यथार्थ कर्तव्य है।
कलियुगमें और योगोंकी अपेक्षा भक्तियोगसे सहज ही ईश्वरकी प्राप्ति होती है।
वास्तवमें वह बुद्धिमान् है जो सभी सांसारिक चीजोंको तृणके सदृश समझता है।
जो ईश्वरीय आज्ञाको सुनते हैं और उसीके अनुसार चलते हैं, उन्हींका जीवन धन्य है। इस परम सत्य वाक्यके अनुसार हमारा जीवन जितना प्रकाशित होगा, उतनी ही हमारे ज्ञान और सुखकी वृद्धि होगी।
पहले भगवान्को जानो और पीछे और कुछ।
अगर तुम्हारेमें अवगुण हैं और दूसरे मनुष्य तुम्हें अवगुणी न कहकर सद्गुणी बतलाते हैं और उससे तुमको संतोष होता है, यह कैसे आश्चर्यकी बात है।
भगवान्के चरणकमलोंसे परिचय हुए बिना, उनके • पदपंकजोंसे प्रेम हुए बिना मनुष्यके मनकी दौड़ नहीं मिटती।
जो विषयोंका प्रेमी है, वही बंधा हुआ है। विषयोंका त्याग ही मुक्ति है। यह शरीर ही घोर नरक है और तृष्णाका नाश ही सच्चा स्वर्ग है।
वैराग्य तीन प्रकारका होता है- (1) अपवित्र वस्तुओंका त्याग करना साधारण वैराग्य है, (2) आवश्यकतासे अधिक प्राप्त हुई पवित्र वस्तुओंका भी त्याग करना विशेष वैराग्य है और (3) ईश्वरसे दूर हटानेवाली वस्तुमात्रका त्याग करना ऋषियोंका वैराग्य है।
अन्तः शुद्धिका मुख्य साधन हरिकीर्तन है। नामके समान और कोई साधन है नहीं।
सब इन्द्रियोंमेंसे यदि एक भी इन्द्रिय विचलित हो जाती है तो उससे इस मनुष्यकी बुद्धि ऐसे चली जाती है जैसे मशकमें जरा सा छेद होनेपर तमाम जल निकल जाता है।
अहंभावको छोड़कर विपत्तिको भी सम्पत्ति मानना ही सच्चा संतोष है।
अकालपीड़ित भूखेके सामने मिष्टान्न परोसा हुआ थाल आ जाय अथवा घातमें बैठी हुई बिल्ली मक्खनका गोला देख ले तो उसकी जो हालत होती है, वही मेरी हालत हुई है। तुम्हारे चरणोंमें मन ललचाया है, मिलनेके लिये प्राण सूख रहे हैं।
जो भी भक्त या साधु अपने ज्ञान-वैराग्यके लिये मनमें गर्व रखता है, वह तो ज्ञान-वैराग्यका उपहास ही कराता है; तुम अपने किसी भी वैराग्य या निवृत्तिके लिये क्या गर्व करते हो? ईश्वरके निकट तुम्हारा यह सब कुछ मच्छरकी पाँख बराबर हैं।
बड़ेका लड़का यदि दीन-दुःखी दिखायी दे तो हे भगवन्! लोग किसको हँसेंगे ? लड़का चाहे गुणी न हो, स्वच्छतासे रहना भी न जानता हो तो भी उसका लालन-पालन तो करना ही होगा। वैसा ही मैं भी एक पतित हूँ, पर आपका मुद्रांकित हूँ।
एक श्रीहरिकी ही महिमा गाया कर, मनुष्यके गीत न गाये।
संतसमागम और हरिकथा प्रभुमें श्रद्धा उत्पन्न करते हैं। प्रभुके विश्वाससे तीव्र जिज्ञासा, जिज्ञासासे विवेक वैराग्य और वैराग्यादिसे तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञानसे परमात्मदर्शन और परमात्मदर्शनसे सर्वोपरि स्थान प्राप्त होता है।
भगवान्ने जिन्हें अंगीकार किया, वे जो निन्द्य भी थे, वन्द्य हो गये।
अपकार करनेवालेका बदला अपकारसे न देकर उपकारसे देना और उसके लिये प्रभुसे क्षमा-याचना करना यही साधुता है।
पण्डित तो वह है जिसके प्रेम-चक्षु खुल गये हैं, जो ज्ञान और प्रेमके आवेशमें पशु, वनस्पति और पाषाणतकमें अपने ठाकुरको देखता और पूछता है।
हृदयकी सरलता और निर्मलता ईश्वरीय ज्योति है, यह ज्योति ही ईश्वरका मार्ग दिखलाती है। प्रभुसे क्षमाकी आशा इन साधनोंकी ओर खींचती है, प्रभुका भय ही पापसे निवृत्त करता है। और प्रभु-महिमाका स्मरण ही इस सत्यके मार्गपर आगे बढ़ाता है।
मरनेके समय मनमें जैसा भाव होता है, दूसरे जन्ममें वैसी ही गति होती है, इसलिये जीवनभर भगवान्के स्मरणकी आवश्यकता है, जिससे मृत्युके समय केवल भगवान् हा याद आवें।
मनमें जो कामनाएँ उठें, उन्हें मनमें ही लीन कर दो । सुखके लिये कभी कामना मत करो। कामना न करनेसे ही यथार्थ सुखका अनुभव होगा।
चित्तमें ध्यान न हो तो न सही, पर वाणीमें तो हो यह नाम - स्मरणकी पहली सीढ़ी है।
सुख-यव-बराबर है तो दुःख पहाड़-बराबर संसारके विषयमें सबका यही अनुभव है। माँ-बाप, स्त्री-पुत्र, संगी-साथी, धन-दौलत, राजा-महाराजा कोई भी हमें क्या मृत्युसे बचा सकता है? यह शरीर तो कालका कलेवा है।
ममता और अभिमानसे शून्य तथा चिन्तासे परे रहनेवाला पुरुष अपने घरमें रहता हुआ भी कभी किसी कर्ममें आसक्त नहीं होता।
मेरे प्राण ! एक बार मिलो और अपनी छातीसे लगाओ।
इस कलियुगमें राम-नामके सिवा कोई आधार है नहीं।
हरिभक्तोंकी कोई निन्दा न करे, गोविन्द उसे सह नहीं सकते। भक्तोंके लिये भगवान्का हृदय इतना कोमल होता हैं कि वह अपनी निन्दा सह लेते हैं, परन्तु भक्तको निन्दा नहीं सह सकते।
देहकी सारी भावना, सारी सुध-बुध बिसार दी; तब वही नारायणकी सम्पूर्ण पूजा-अर्चा है । ऐसे भक्तोंकी पूजा भगवान्, भक्तोंके जाने बिना ले लेते हैं और उनके माँगे बिना उन्हें अपना ठाँव दे देते हैं।
हमारी सुबुद्धि हमसे कह रही है कि मनरूपी शैतानके भरमाने में मत आओ। मनकी राहपर न चलो, बल्कि मनको अपनी राहपर चलाओ। सच्चा सुख वैराग्यमें ही है इस महावाक्यको क्षणभर भी न भूलो।
यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जायगा, जिस तरह सबेरेका तारा देखते-देखते गायब हो जाता है।
जब तुम सांसारिक कामनाओंको छोड़ दोगे, तभी शोक और दुःखसे छूटकर सच्चे सुख और शान्तिको पा सकोगे।
तत्त्वज्ञान होनेसे मनुष्यका पूर्व स्वभाव बदल जाता है।
सावधान रहना, यह दुनिया शैतानकी दूकान है। भूलकर भी इस दूकानकी किसी चीजपर मन न चलाना, नहीं तो शैतान पीछे पड़कर उस चीजके बदले तुम्हारा छीन लेगा।
ईश्वरके मार्गमें पहले व्याकुलता, तीव्र जिज्ञासा और पीछे निर्मलता, पश्चात्ताप, प्रभुकी महिमाका कीर्तन और परमात्मदर्शन क्रमशः आते हैं।
आत्मचिन्तन करो, पर आत्मचिन्तन करना सहज काम नहीं है। इसके लिये मनको वशमें करना होगा, उसे विषयोंसे हटाना होगा, उसे वृत्तियोंसे अलग कर एकाग्र करना होगा, तभी सफलता हो सकेगी।
ज्ञान और प्रेम सर्वथा भिन्न वस्तु नहीं है। किसी भी एक मार्गका अवलम्बन करो, लक्ष्यस्थलपर पहुँचते ही इस बातको तुरंत समझ सकोगे कि जिसको 'अपरोक्षज्ञान' या आत्मदर्शन कहते हैं, सचमुच उसीका नाम 'प्रेम' है।
उमड़ती हुई जवानीमें प्रमोद करते हुए जवानको खेलते हुए बालकको, रोग-शोकसे पीड़ित वृद्धको और माताके उदरमें रहनेवाले गर्भको काल एक-सा ही ग्रस लेता है, यह जगत् ऐसा ही है।
जो श्रोता प्रभुको पानेकी इच्छा नहीं रखता उससे बात मत करो, और जिस वक्ताको प्रभुके दर्शन नहीं हुए उसकी बात मत सुनो।
दया बिना जीवन यथार्थ जीवन नहीं है, वह जीते ही मरण है। इसलिये अपने हृदयमें सब ओरसे दया-प्रेमका प्रवाह बहने दो; इससे तुम्हें दिव्य आनन्द और शान्तिकी प्राप्ति होगी; क्योंकि ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है।
अगर सेवक दुःखी रहता है तो परमात्मा भी तीनों कालोंमें दुःखी रहता है। वह दासको कष्टमें देखते ही क्षणभरमें प्रकट होकर उसे निहाल कर देता है।
लोगों में जिसका परिचय जितना ही अधिक होता है, उसकी सत्यतामें उतनी ही न्यूनता होती है।
परमात्माका वाचक प्रणव है. उसका जप और उसके अर्थकी भावना करनी चाहिये। इससे आत्माकी प्राप्ति और विघ्नोंका अभाव होता है।
ज्ञानोन्माद होनेसे कर्तव्य फिर कर्तव्य नहीं रह जाता। उस अवस्थामें भगवान् उसका भार ले लेते हैं।