अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



संन्यासीको सदा ज्ञाननिष्ठ रहकर आत्माके बन्धन और मोक्षका विचार करना चाहिये । इन्द्रियोंके चंचल होने में ही आत्माका बन्धन है और इन्द्रियोंके वशमें होनेसे आत्माका मोक्ष है।


अहंकार, लोकप्रियता, मान-ये सब लोकैषणाओंके बादल उत्कट भक्तिका सूर्योदय होते ही गल गये।


साधक दो प्रकारके होते हैं-संसारी, भगवदीय । संसारी साधक जगत्‌को ही पहचानते हैं और उसीको खुश करने में लगे रहते हैं और भगवदीय साधक प्रभुको पहचानते हैं, इसलिये वे अपना हर एक साँस प्रभुकी प्रसन्नताके लिये ही लेते हैं।


सच्चा संत जब बाहरसे चुपचाप होता है तब वह भीतर-ही-भीतर ईश्वरसे बात करता रहता है और जब उसके नेत्र मुँदे होते हैं तब वह ईश्वरकी महिमा अथवा उसके स्वरूपको देखता रहता है।


ईश्वर आनन्दमय हैं, वे लीला-रस-विस्तारके लिये ही सृष्टि रचना करते हैं। इस सृष्टिमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं है। अनादिकालसे विलग हुए जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही उनके द्वारा सृष्टिलीलाका सूत्रपात होता है।


- निरन्तर सदभ्यास करो, चित्तको परमपुरुषके मार्गमें लगा दो, फिर शरीर रहे चाहे जाय।


संतों और भक्तोंकी सेवा करना, उनके उपदेशोंको श्रवण करना, उनके संग रहना और उनके आचरणोंका अनुकरण करना यही सच्चा सुख प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है।


हे मानवो ! ईश्वरके मार्गमें न तो आँखोंकी जरूरत है और न जीभकी। जरूरत है पवित्र हृदयकी । ऐसा प्रयत्न करो जिससे वह पवित्रता पाकर तुम्हारा मन जाग जाय।


जिनको जगना है, वे अभी जग जायँ; यही जागनेकी वेला है। जब पाँव पसारके सो जाओगे, तो फिर क्या जागोगे।


भक्त वह है जो अपना मन उस पृथ्वीके समान बना ले, जिसमें लोग विष्ठा डालते हैं, पर वह अन्न देती है।


सद्गुणोंको पानेके लिये प्रयत्न करो, बाहरी आडम्बरोंसे क्या लाभ है? बिना दूधकी गाय केवल गलेमें घंटा बाँधनेसे ही नहीं बिकती।


ओ परमात्मन् ! तुम चिर सत्य हो; मुझे अपनी अखिल दयामें लय कर लो। मेरे लिये प्रायः बहुत-सी चीजें पढ़ना या सुनना दुष्कर है। तुम्हींमें मेरा चिर अभिलषित सर्वस्व है।


वाणी ऐसी निकले कि हरिकी मूर्ति और हरिका प्रेम चित्तमें बैठ जाय। वैराग्यके साधन बतावे, भक्ति और प्रेमके सिवा अन्य व्यर्थकी बातें कथामें न कहे।


ईश्वरके प्रति नम्र होना, उसकी आज्ञाके मुताबिक चलना, उसकी प्रत्येक इच्छाके आगे सिर झुकाना इसीका नाम ईश्वरके प्रति विनय दिखाना है।


श्रद्धा ही पुरुषके लिये श्रेष्ठ धन है, धर्म ही स्थायी सुख देनेवाला है, सत्य ही परम स्वादु पदार्थ है और प्रज्ञासे जीवन बितानेवाला ही संसारमें श्रेष्ठ व्यक्ति है।


जगत्का जीवन पानीके बुल्लेके समान है, एक उठता है तो दूसरा बिला जाता है।


दृश्य, दर्शन, द्रष्टा- तीनोंको पारकर देखो तो बस श्रीकृष्ण ही - श्रीकृष्ण हैं।


भगवन् ! तुम्हारे प्रेमकी खातिर, तुम्हारी एक बातके लिये, तुम्हारे दर्शन पानेके लिये मैं क्या नहीं कर सकता! पर आज्ञा तो दो, कुछ बोलो तो।


सच्चे धर्मात्माकी बोली धीमी होती है, क्योंकि अच्छा पुरुष कठिनताको जानता है, वह अवश्य ही सँभलकर बोलेगा।


नामका अखण्ड प्रेम-प्रवाह चला है। राम-कृष्ण, नारायण नाम अखण्ड जीवन है, कहींसे भी खण्डित होनेवाला नहीं।


जिस समय लोग 'उन्मत्त' और 'मस्त' कहकर मेरी निन्दा करेंगे तभी मेरे मनमें गूढ़ तत्त्वज्ञान उदय होगा।


आगे-पीछेका विचार छोड़ो। जो हो गया है और जो होगा उसकी चिन्ता न करो। वर्तमानमें प्रभुके भजनमें लगे रहो।


पूर्ण महात्मा और सज्जनोंके संगका नाम ही सत्संग है। इसे आदमी निष्ठाके साथ करे तो वह लोहेसे सोना बन जाय।


जिसने एक बार श्रीकृष्णको देखा, उसकी आँखें फिर उससे नहीं फिरतीं। अधिकाधिक उसी रूपको आलिंगन करती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं।


नरकके बीज बोकर स्वर्गके फलकी आशा रखनेसे अधिक मूर्खता क्या होगी।


स्त्री - माया ही संसार-वृक्षका बीज है। शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-उसके पत्ते काम-क्रोधादि उसकी डालियाँ, पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं और तृष्णारूपी जलसे यह संसार वृक्ष बढ़ता है।


अपनी स्त्रीके सिवा अन्य स्त्रीसे कोई सम्बन्ध न रखे। अपनी स्त्रीसे भी केवल समुचित ही सम्बन्ध रखे और चित्तको कभी आसक्त न होने दे।


जो लोग काम, क्रोध, मद और लोभमें रत हैं तथा दु:खरूप गृहमें आसक्त हैं; वे भवकूपमें पड़े हुए मूढ़ मनुष्य भगवान्को कैसे जान सकते हैं? इन मायाके विकारोंसे छूटना हो तो सब कामनाओंको छोड़ यह विचारकर भी भगवान्का भजन करो कि श्रीहरिकी मायाके दोष-गुण हरिका भजन किये बिना नष्ट नहीं हो सकते।


हिंसा, असत्य, छल, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि दुःखदायी पापकर्मोंसे बचना, निरन्तर पुण्यप्रद कर्मोंमें निरत रहना, अपने-अपने वर्ण और आश्रमके धर्मानुकूल सदाचारका पालन करना ही अति श्रेष्ठ कल्याणका मार्ग है।


शत्रुसे शत्रुता करना वैरको दूना बढ़ाना है, वैर दूर करनेका उपाय तो प्रेम है।


जो मनुष्य अपना कल्याण नहीं चाहता, पापके फल दुःखको नहीं मानता और ईश्वरको माननेमें भी आनाकानी करता है, उसको उपदेश करना व्यर्थ है।


आज्ञाकारितामें रहना, अपनेसे बड़ेके नीचे रहना और अपनी ही इच्छापर नहीं चलना बहुत बड़ी बात है।


दिनभरकी बुरी भावनाओं और बुरे कर्मोंसे बचकर रहना रातभरके भजनसे बढ़कर है।


इस जगत् में करोड़ों आदमी प्रभुके उपासक कहलाते हैं; परंतु सच्चे उपासक कौन हैं तथा प्रभु किनके साथ हैं ? जो ईश्वरसे डरकर चलते हैं तथा अपने स्वार्थका नाश करके भी दूसरोंका हित करते हैं, वे ही सच्चे उपासक हैं और भगवान् भी उन्हींके साथ हैं।


धन, अधिकार और उच्च स्थिति आदिका क्या मूल्य है ? प्रथम तो वे स्वल्प और अपूर्ण हैं, दूसरे जितने जो कुछ हैं वे भी अनित्य ही हैं। आज हैं कल नहीं। उनपर गर्व करना और उनके कारण अपनेको ऊँचा तथा दूसरोंको नीचा समझना तो वास्तवमें मूर्खता ही है।


अच्छे मार्गसे भटके हुए लोगोंको प्रेमसे समझाकर राहपर लाओ। दुर्जनोंके सुधारके लिये भी कोमल व्यवहार कठोर दण्डसे बढ़कर उपयोगी है।


जो ब्रह्मज्ञानी हों उन्हें मोक्ष (छुटकारा) दे दो, पर मुझे मत छोड़ो। मुझे मोक्ष नहीं चाहिये।


संसार क्षणभंगुर और अनित्य है, यहाँ एक पलका भी भरोसा नहीं, जो कुछ कल्याणका काम करना है तुरंत कर लो।


भक्त जिस ओर रहता है, वह दिशा श्रीकृष्ण बन जाती है। वह जब भोजन करने बैठता है तब उसके लिये हरि ही षट्स हो जाते हैं। उसे जल पिलानेके लिये प्रभु ही जल बन जाते हैं।


जो मनुष्य पढ़कर उसे धारण नहीं करता, उसके लिये विद्या भार हैं। उसके संगसे किसीको लाभ नहीं होता।


जो वास्तविक पूर्ण और दयालु है वह अपनेको किसी भी वस्तुमें नहीं खोजता; उसकी एकमात्र इच्छा यही रहती है कि सभी वस्तुओंमें परमात्माका कीर्ति-गौरव झलके।


जिस शक्तिसे इन्द्रिय और मन वशमें किये जा सकें उसीका नाम शक्ति है।


मनुष्यो ! मिथ्या आशाके फेरमें दुर्लभ मनुष्य देहको यों ही नष्ट न करो। देखो, सिरपर काल नाच रहा है। एक श्वासका भी भरोसा न करो। जो श्वास बाहर निकल गया, वह वापस आवे न आवे, इसलिये गफलत और बेहोशी छोड़कर अपनी कायाको क्षणभंगुर समझकर दूसरोंकी भलाई करो और अपने सिरजनहारमें मन लगाओ; क्योंकि नाता उसका सच्चा है।


जिसे तुम यहाँ नहीं देख सकते उसे और कहाँ देखोगे ? स्वर्ग, पृथ्वी और सभी तत्त्वोंको देखो, क्योंकि इन्हीं से सभी वस्तुओंकी सृष्टि हुई है।


घोर संसारमें पड़े हुए जीवोंके लिये भगवान् वासुदेवकी भक्तिको छोड़कर मुक्ति पानेका और कोई भी मार्ग नहीं है।


स्वयं ईश्वर जिसका मार्गदर्शक है, उसका रास्ता अपने भरोसे ही चलनेवालेके रास्तेसे कहीं अधिक सुगम और छोटा है; क्योंकि ईश्वर अपने आश्रितको दिव्य दृष्टि प्रदान करता है, जिससे वह अपने सीधे रास्तेको सरलतासे देख लेता है।


जो आदमी अपना सारा संसार और अपने जीवनको प्रभुके अर्पण नहीं कर देता, वह दुनियाके इस भयानक जंगलको पार कर ही नहीं सकता।


जिसने इच्छाका त्याग किया, उसको घर छोड़नेकी क्या आवश्यकता और जो इच्छाका बधुवा है, उसको वनमें रहनेसे क्या लाभ हो सकता है, सच्चा त्यागी जहाँ रहे, वही वन और वही कन्दरा है।


जो मनुष्य भगवत्-प्राप्तिकी साधना न करके संसारकी साधनामें ही डूबा रहता है, उसे लोक-परलोकमें दुःख और नुकसान ही मिलते हैं।


मनुष्यो ! होश करो, गफलतकी नींद छोड़ो। वह देखो! मौत तुम्हारा द्वार खटखटा रही है।


बड़े-से-बड़ा ज्ञान आत्माको संतुष्ट नहीं करता; परंतु उत्तम जीवन मनको शान्ति, तुष्टि और प्रीति देता है। एक पवित्र-हृदय परमात्माके सम्मुख बड़ा सहारा है।


जो निज सत्ता छोड़कर पराधीनतामें जा फँसा, उसे स्वप्नमें भी सुखकी वार्ता नहीं मिलती।


मनुष्य- शरीरकी शोभा विषयभोग नहीं है, यह सम्पदा तप, ज्ञान, भक्ति और धर्मके लिये मिली है।


संतचरणोंकी रज जहाँ पड़ती है वहाँ वासना - बीज सहज ही जल जाता है। तब राम-नाममें रुचि होती है और घड़ी घड़ी सुख बढ़ने लगता है। कण्ठ प्रेमसे गद्गद होता, नयनोंसे नीर बहता और हृदयमें नाम-रूप प्रकट होता है, यह बड़ा ही सुलभ सुन्दर साधन है, पर पूर्वपुण्यसे यह प्राप्त होता है।


जिसके हृदयमें प्रेम पूर्ण होता है, प्रेमके देवता स्वयं ईश्वर ही उसका योगक्षेम चलाया करते हैं।


लोग मुझको ईश्वरकी आराधनामें लगा हुआ जानें और देखें तो ठीक है, ऐसे विचारमें कभी न पड़ना। यह दम्भ है और मनका धोखा है। ईश्वरके प्रेममें दिखावेकी क्या जरूरत।


वह श्यामघननील, उनका वह पीताम्बर, वह मुकुट, वे कुण्डल, वह चन्दनकी खौर, वह निर्मल कौस्तुभमणि और वह वैजयन्ती माला, वह सुखनिर्मित श्रीमुख, ऐसे वह सुकुमार मदन मूर्ति श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं और उनके सखा गोपाल अनिमेष लोचनोंसे उनके सुन्दर मुखकमलकी ओर आनन्दानुभवसे स्थिर होकर देख रहे हैं, यह सम्पूर्ण दृश्य नेत्रोंके सामने नाच रहा है।


मनकी मार बड़ी जबरदस्त है। मनके सामने कौन ठहर सकता है।


जिस प्रकार दवाके बिना बीमारीको शमन करना कठिन है, उसी प्रकार ज्ञानके बिना सांसारिक प्रभुताको सँभालना दुस्साध्य है। मनुष्य चारों ओर अज्ञानसे घिरा हुआ है, इसलिये वह भोग-लिप्साके पीछे पड़ जाता है।


जो छोटे-छोटे प्राणियोंसे प्यार नहीं कर सकता, वह ईश्वरसे क्या प्यार करेगा।