अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



मनुष्य तभीतक धर्मके विषयमें तर्क-वितर्क करता है, जबतक उसे धर्मका स्वाद नहीं मिलता। स्वाद मिलनेपर वह चुपचाप साधन करने लगता है।


सबके परम सुहृद् प्रभु जो कुछ करते हैं, उसीमें हमारा परम हित है।


अगर तुम प्रभुके प्रेमी हो अथवा प्रभुकी कृपा प्राप्त करना चाहते हो तो जब भी कोई शुभ कर्म करो तब लोगोंसे वाह-वाही पानेकी, मान मिलनेकी, स्मारक रहनेकी और लोकप्रतिष्ठाकी किसी भी भावकी ओर किसी भी वस्तुकी मनमें जरा भी इच्छा न रखना, नहीं तो धोखा खाओगे।


आत्मबोधके लिये वैसी छटपटाहट हो जैसे जलके बिना मछली छटपटाती है।


गरुड़के पैरोंपर बार-बार मस्तक रखता हूँ। हे गरुड़जी! उन हरिको शीघ्र ले आइये, मुझ दीनको तारिये। भगवान्‌के चरण जिन लक्ष्मीजीके हाथोंमें हैं; उनसे गिड़गिड़ाता हूँ कि हे लक्ष्मीजी ! उन हरिको शीघ्र ले आइये और मुझ दीनको तारिये हे शेषनाग ! आप हृषीकेशको जगाइये।


संसारमें आकर दो काम कर लो-(1) भूखेको भोजन दो और (2) भगवान्का नाम लो।


सर्वत्र भगवद्दृष्टि ही दिव्य दृष्टि है, जो भगवान्‌की कृपासे ही प्राप्त होती है।


जो मनुष्य भगवान्से कृपा और स्नेहकी आशा रखता है, उसे अपने आश्रितों और अपनेसे छोटोंपर सदा कृपा और स्नेह रखना चाहिये।


दूसरोंकी निन्दामें अपना पाण्डित्य दिखलाना, अपने कार्योंमें उद्योग न करना और गुणज्ञोंके साथ द्वेष रखना ये तीन विपत्तिके मार्ग हैं।


मृत्यु शरीरका अवश्यम्भावी परिणाम है। दो दिन आगे-पीछे सबकी यही गति होनेवाली है। लोगोंको शोक होता है-ममत्व और स्वार्थके कारण। जिसमें ममत्व और स्वार्थ नहीं होता उसके वियोगमें जरा भी दुःख नहीं होता।


यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य मनसे वही करता है जो उसकी इन्द्रियों और इच्छाके अनुकूल है और उन लोगों पर उसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ सकता है जो उनके मनोऽनुकूल हैं।


अहंकारी साधकको 'साधक' नहीं कहा जा सकता, वह तो महा अपराधी है; परंतु प्रभुकी प्रार्थना करनेवाला एक पापी भी 'साधक' है।


सच तो यह है कि यह शरीर बिजलीकी चमक और बादलकी छायाकी तरह चंचल और अस्थिर है। जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पड़ गयी, अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणीको नष्ट कर देगी।


अपनी कमाईमेंसे दसवाँ हिस्सा, नहीं तो कम-से कम सोलहवाँ हिस्सा गरीबोंको बाँटनेके लिये जरूर अलग कर रखो। नहीं तो कमाई अशुद्ध होगी और उसकी बरकत नहीं होगी।


भगवान्की शरणमें जानेके सिवा हृदयके मैल धोनेका कोई साधन है नहीं।


अपनेसे छोटे और अधीनको सुधारनेके लिये भूल हो तो उसे मीठे वचनोंसे एकान्तमें उसकी भूल समझा दो, किंतु तिरस्कार- न करो।


जिसे गुरुका अनुग्रह मिला हो, गुरुसेवाके परमानन्दका जिसने भोग किया हो, वही उसकी माधुरी जान सकता है।


हे हरि तुम्हारे प्रेम-सुखके सामने वैकुण्ठ बेचारा क्या है।


स्त्रीका दर्शन ही ऐसा है कि जिससे देवता भी धैर्य त्याग देते हैं।


जगत्से, जगत्‌की किसी भी घटनासे भगवान्‌को अलग न करनेके कारण ही जगत्की कोई भी घटना ज्ञानीके चित्तको विचलित नहीं कर सकती। भगवान्‌को अलग कर देनेसे ही जगत्का प्रत्येक व्यापार महान् दुःखरूप बन जाता है।


संसार मिथ्या है—यह ज्ञात हुआ और आँखें खुलीं। दुःखसे आँखें खुलती हैं, तब दुःख ही अनुग्रह जान पड़ता है।


संसारसे सम्बन्ध तोड़ देना, लोक-संसर्गसे दूर रहना और सदा-सर्वदा सत्य और प्रभुकी तरफ ही झुके रहना सच्चा त्याग है।


अपने शत्रुको प्यार करो। जो तुम्हें शाप दें, उन्हें आशीर्वाद दो। जो तुमसे घृणा करें, उनके प्रति भलाई करो और उनके लिये भी प्रभुसे शुभ प्रार्थना करो, जो तुम्हारे साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हों।


जो सज्जनोंको देखकर, दूसरोंके सद्गुणोंकी बात सुनकर और दूसरोंको सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं, उनपर भगवान्की कृपा बरसती है।


देह, बुद्धि, लेख, व्याख्यान, घर, कुटुम्ब, यश और प्रतिष्ठा आदि प्रत्येक दावेका त्याग ही वेदान्त है।


जब मिले तभी मित्रका आदर करो, पीछेसे प्रशंसा करो और जरूरतके वक्त बिना संकोच सहायता करो।


हृदयकी सच्ची शान्ति वासनाओंके दमनसे मिलती है न कि उनके अनुसार चलनेमें।


जो ज्ञानकी बड़ी-बड़ी बातें बघारते हैं, पर जिनके हृदयमें दया नहीं है, वे जरूर नरकमें जायँगे।


हे भाई! कैसे कष्टकी बात है! पहले यहाँ कैसा राजा राज करता था, उसकी राजसभा कैसी थी, उसके यहाँ कैसे-कैसे शूर, सामन्त और सेना एवं चन्द्रानना स्त्रियाँ थीं, पर आज सब सूना है! सबको काल खा गया।


भगवान् स्वयं संतोंके घरमें घुसकर अपना दखल जमाते हैं।


तुम अपनी सांसारिक इच्छाओंकी कैदमें बंद हो । उससे छूटनेके लिये यदि सब प्रकारसे अपने-आपको प्रभु चरणोंमें अर्पित कर दोगे तो तुम्हारी रक्षा होगी और तुम्हें सच्चा सुख मिलेगा।


भगवान्‌की यह पहचान है कि जिसके घर आते हैं उसको घोर विपत्तिमें भी सुख-सौभाग्य दिखायी देता है।


व्याकुल प्राणसे जो ईश्वरको पुकारते हैं, उनको गुरु करनेकी आवश्यकता नहीं है।


समस्त जीवोंके परम सुहृद् भगवान्ने हमारे लिये जो व्यवस्था की है, वह कभी हमारा अकल्याण नहीं कर सकती। सुख-दुःख तो उनके चरण-युगल हैं। आइये, इन चरण युगलोंमें प्रणाम करें।


इस शरीरका क्या भरोसा? यह क्षणभरमें नष्ट हो जाय। इस दशामें सर्वोत्तम उपाय यही है कि हरेक श्वासमें परमात्माका नाम लो। बिना उसके नामसे एक साँस भी न जाने पावे। बस, इससे बढ़कर उद्धारका कोई उपाय नहीं है।


जो निःस्पृह हैं, जिन्हें कामना या तृष्णा नहीं, वे मनुष्यरूपमें ही देवता हैं।


तुम शान्ति और आनन्द ढूँढ़ते फिरते हो और भटकते हो संसारके विषयोंमें; मूर्ख कहाँ पाओगे ? ये दोनों चीजें तो प्रभुके खजानेमें ही मिलती हैं।


रीछनी गुदगुदाकर प्राण हर लेती है, वैसे ही परमार्थी पुरुष यह जाने कि कामिनीका संग नाश करनेवाला है और उससे दूर रहे।


साधनाके लिये जो कुछ करना पड़े सब करना, परन्तु उसमें भी प्रभुकृपाका प्रताप ही समझना, अपना पुरुषार्थ नहीं।


बाहरी आँखोंका नाता बाहरी चीजोंसे है, भीतरी आँखोंका नाता परमात्माकी श्रद्धासे।


मूर्ख समझता है कि वह इन्द्रियोंके सुख लूटता है, किन्तु वह यह नहीं जानता कि अस्वच्छ विचार या कार्यके लिये बदलेमें उसकी जीवन-शक्ति ही बिक जाती अथवा नष्ट हो जाती है।


लोभ महापापकी खान है। अधर्मी झूठ लोभका मन्त्री है, तृष्णा स्त्री है, जो उसे अन्धा कर देती है। लोभसे मनुष्यको न तो उन्नति-अवनतिका पता रहता है और न कालका भय।


दुर्बल मस्तिष्कके मनुष्य ही संकटोंसे घबराकर उसके वशमें हो जाते हैं, मनोबलसे सम्पन्न पुरुष तो संकटोंको पैरों तले दबाकर उनपर सवार हो जाता है।


भगवान्से मिलन होनेके लिये भाव आवश्यक है।


एकान्त हृदयवाले धन्य हैं; क्योंकि उन्हें बहुत शान्ति मिलेगी।


अदोषदर्शी होना वैष्णवोंके लिये सबसे मुख्य काम है।


किसी चीजसे भी न चिढ़ो। काम उसी निर्लिप्त भावसे करो, जिस तरह वैद्यलोग अपने रोगियोंकी चिकित्सा करते हैं और रोगको अपने पास नहीं फटकने देते। सब उलझनोंसे मुक्त अथवा साक्षीकी भावनासे काम करो । स्वतन्त्र रहो।


दूसरोंका भला करनेवाला ही भला होता है।


सुनो, मेरा पागल प्रेम ऐसा है कि सुन्दर श्याम श्रीराम ही मेरे अद्वितीय ब्रह्म हैं और कुछ मुझे नहीं मालूम। रामके बिना जो ब्रह्मज्ञान है हनुमानजी गरजकर कहते हैं कि उसकी हमें कोई जरूरत नहीं। हमारा ब्रह्म तो राम है।


शरीर और मन, बुद्धिको जीता हुआ अपरिग्रही, निराशी मनुष्य शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।


भगवान्ने कहा है-'जो मेरा अनुसरण करता है। वह अंधकारमें नहीं भटकता।


जिस मनुष्य में ईश्वरका स्मरण-चिन्तन करनेकी ताकत है, उस मनुष्यको गरीब या लाचार न समझकर बड़ा धनी समझना और जिसके पास यह सम्पत्ति और शक्ति न हो, वह बड़ा भारी बादशाह होनेपर भी सबसे बड़ा गरीब और अनाथ है।


भले ही तुम पैदल चलते रहो; परन्तु मनपर तो सवारी गाँठे ही रहना।


भक्त जहाँ रहता है, वहाँ सभी दिशाएँ सुखमय हो जाती हैं। वह जहाँ खड़ा होता है, वहाँ सुखसे महासुख आकर रहता है।


तीन बातें ध्यान देने लायक है- (1) जब कभी किसी बुरे आदमीसे काम पड़ जाय तो उसके नीच स्वभावको अपने भले स्वभावसे ढक लेना इससे स्वयं तुम्हें संतोष होगा. (2) जब कभी कोई तुम्हें दान दे तो पहले कृतज्ञ होना उस प्रभुका, उसके बाद उस उदारहृदय दाताको धन्यवाद देना, (3) जब कभी विपत्ति आ पड़े तो तुरंत विनीतभावसे उस विपत्तिको सहनेकी शक्तिके लिये प्रभुसे प्रार्थना करना।


मैं नहीं कहता कि काम मत करो। काम जरूर करो; किंतु अपनी शक्ति और सम्पत्तिके सहारे नहीं, उस प्रभुकी शक्ति और सम्पत्तिके सहारे करो। वह करवावे तभी करो।


जिससे सब जीव निडर रहते हैं और जो सब प्राणियोंसे निडर रहता है, वह मोहसे छूटा हुआ सदा निर्भय रहता है।


ईश्वरमें निमग्न होनेमें ही अपने मनका नाश है।


जो मनुष्य दुनियावी बातें सुनता रहता है और विषय-प्रेमियोंमें बसता है, उसका अन्तःकरण साधनाका स्वाद नहीं ले सकता।


हमें अधिक शान्ति मिलती यदि हम अपनेको दूसरोंके काम और वचनोंमें उलझाये न होते; उन वस्तुओंमें न फँसे होते जिनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है।