जिसका बाह्य जीवन उसके आन्तरिक जीवनके समान नहीं है उसका संसर्ग मत करो।
बुद्धिमान् धीर पुरुषोंको चाहिये कि और सब कर्मोंको छोड़कर आत्माके विचारमें तत्पर रहकर संसार-बन्धनसे छूटने का यत्न करें।
स्वार्थ ही सारे अपराधों और पापोंकी जड़ है और स्वार्थकी जड़ अज्ञान है।
अमृतका बीज, आत्मतत्त्वका सार, गुह्यका गुह्य रहस्य श्रीराम-नाम है।
जो अपने अच्छे कर्मोंके बदलेमें धन्यवाद, वाहवाही अथवा किसी और फलकी चाह करता है, वह अत्यन्त अभागा है; क्योंकि वह बहुमूल्य सत्कर्मोंको थोड़ी कीमतपर बेच डालता है।
अहंकारके कारण ही आत्माको 'मैं देह हूँ' ऐसी बुद्धि होती है और इसीके कारण यह सुख-दुःखादि देनेवाले जन्म-मरणरूप संसारको प्राप्त होता है।
भगवान्का नाम और उनके गुणोंकी चर्चा करते रहो और इसको भी कहनेकी अपेक्षा मन-ही-मन करो तो और भी अच्छा है।
विश्वास तारता है और अहंकार डुबाता है।
यदि पति अपनी पतिव्रता स्त्रीका सबके सामने तिरस्कार भी करे तो भी वह उसका परित्याग नहीं कर सकती। इसी प्रकार चाहे तुम मुझे कितना ही दुतकारो, मैं तुम्हारे अभय चरणोंको छोड़कर अन्यत्र कहीं जानेकी बात भी नहीं सोच सकता। तुम चाहे मेरी ओर आँखें उठाकर भी न देखो, मुझे तो केवल तुम्हारा और तुम्हारी कृपाका ही अवलम्बन है।
अपना कोई तृणके समान उपकार करे तो उसे पहाड़के समान समझो और तुम पहाड़के समान करो तो भी उसे बालूके कणसे भी कम मानो।
चारों अवस्थाओंको व्यर्थ खो दिया, श्रीहरिका नाम नहीं लिया। जब शरीर छूट जायगा, तब यमराजके यहाँ यमकी यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। फिर पछतानेसे कुछ नहीं होगा।
जो शिपूनोदरभोगमें ही आसक्त हैं, जो अधर्ममें रत हैं, ऐसे विषयासक्तोंको असाधु समझो। उसका संग मत करो। कर्मणा, वाचा, मनसा उसका त्याग कर दो।
हमारा हरि तो केवल भावका भूखा है, न उसका रागसे मतलब न कालसे।
हवाको हिलाकर देखनेसे वह आकाशसे अलग जान पड़ती है, पर आकाश तो ज्यों-का-त्यों ही रहता है, वैसे ही भक्त शरीरसे कर्म करता हुआ भक्त-सा जान पड़ता है, पर अन्तः प्रतीतिसे वह भगवत्स्वरूप ही रहता है।
जिसे तृष्णा है वह सदा दुःखी है।
पापकर्म सभीके लिये बुरा है, परंतु विद्वान्के लिये तो बहुत बुरा है, क्योंकि अन्धा मूर्ख तो आँख न होनेसे राह भूलता है, पर विद्वान् दोनों आँख होते हुए भी कुएँ में गिरता है।
जब मनुष्यको अपने पापोंके लिये गहरा पश्चात्ताप होता है तभी उसके लिये सारा संसार दुःखदायी और कष्टकर प्रतीत होने लगता है।
इस मनकी एक उत्तम गति है। यदि यह कहीं परमार्थमें लग गया तो चारों मुक्तियोंको दासियाँ बना छोड़ता है। और परब्रह्मको बाँधकर हाथमें ला देता है। इतना बड़ा लाभ मनके वश करनेसे होता है।
किसीकी हिंसा न करो या किसीको कष्ट न दी, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, शरीर, मन और वचनसे न्याय नष्ट करो, किसीसे कोई आशा न करो।
अहा ! कितनी सुन्दर उस पुरुषकी अन्तरात्मा होनी चाहिये, जिसने कभी क्षणिक सुखोंकी खोज नहीं की और न इस संसारके किसी पदार्थमें अपनेको उलझाया और कितनी अधिक शान्ति और तृप्ति उस पुरुषको होगी जिसने व्यर्थकी चिन्ताओंका नाश कर दिया है और सदा केवल भगवत्-चिन्तन करता है।
अपना भार दूसरेपर न लादना और बिना संकोच दान करना बड़ी दिलेरीका काम है।
मनुष्य जितना ही मनकी वासनाओंका आदेश पालन करता है, उतना ही अधिक रोगी, दुःखी और असंतोषी बनता है।
विपत्तियोंके समूह बाढ़की लहरोंके समान आया करते हैं धीर पुरुष उनको चट्टानकी तरह सँभालता रहे तो वह धीरे-धीरे आप ही चले जाते हैं।
ज्ञानी पुरुषोंकी बराबरी मेँ अजान होकर कैसे कर सकता हूँ। बच्चा जब सयाना हो जाता है तब माता उसे दूर रखती है; अजान शिशु तो माताकी गोदमें ही स्थान पाता है।
हमलोग तो दूसरोंको पूर्ण देखना चाहते हैं, फिर भी हम अपनी त्रुटियोंका सुधार नहीं करते।
व्यक्त और अव्यक्त निःसंशय तुम्हीं एक हो । भक्तिसे व्यक्त और योगसे अव्यक्त मिलते हो।
मनमें कामना रखकर भजन करनेसे सिर्फ उसका फल मिलता है परंतु निष्काम भजनसे भगवान्की प्राप्ति होती है। सांसारिक फल तो मनुष्यको भगवान् से दूर करता है, इसलिये निष्कामभावसे भगवान्का भजन करना ही श्रेष्ठ है।
दूसरोंके अवगुण सुनकर खुश न होओ और स्वयं सदा अवगुणोंसे बचते रहो।
दसों दिशाओंमें अशान्तिकी भयानक आग भड़क उठी है, इससे बचना हो तो भागकर संतोंकी शीतल संगतिमें चले जाओ।
विवेक, विचार, भोग-त्याग, कर्मफल- त्याग और सत्य तथा प्रिय वाणीका सेवन-इन सबको करते-करते चित्त भगवान्में लीन होता है।
जिस घरके द्वारपर तुलसीका पेड़ न हो उस घरको श्मशान समझो।
हृदय स्थिर होनेसे ही ईश्वरका दर्शन होता है। हृदय सरोवरमें जबतक कामनाकी हवा बहती रहेगी, तबतक ईश्वरका दर्शन असम्भव है।
पुत्र, स्त्री, मित्र, भाई और सम्बन्धियोंके मिलनेको मुसाफिरोंके मिलनेके समान समझना चाहिये।
जिस मनुष्यको भगवान्का प्रेम प्राप्त करना हो, उसे अपना हरेक व्यवहार सर्वज्ञ प्रभुसे डरकर करना चाहिये।
मनुष्य सोता हो या बैठा हो, मृत्यु उसे खोजती ही रहती है और मौका पाते ही उसका नाश कर डालती है। फिर तू निश्चिन्त कैसे बैठा है।
जिस लोक-कल्याणमें अभिमानका पुट है वह तो मोह है— त्याज्य है।
1 - माता-पिताकी आज्ञा पूर्णरूपसे मानो । 2 सब सम्बन्धियोंसे प्रेम रखो।
जबतक इच्छा है, तबतक दुःख जरूर है। इच्छा गयी तो दुःख भी गया।
कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है। तू कौन है? कहाँसे आया है? हे भाई! इस तत्त्वपर विचार कर।
सब प्राणियोंमें भगवान्को विद्यमान जानकर उनके हितार्थ अहंभावरहित होकर कायेन-मनसा-वाचा उद्योग करना ही भगवान्की सेवा है।
दूसरोंके परमाणुके समान गुणोंको पर्वतके समान बढ़ाकर हृदयमें रखनेवाले संत इस दुनियामें कितने हैं।
स्त्री, धन और प्रतिष्ठा चिरंजीव-पद-प्राप्तिके साधनमें तीन महान् विघ्न हैं।
एकत्वके साथ सृष्टिको देखनेसे दृष्टिमें भगवान् ही भर जाते हैं।
जिसने युद्धमें लाखों आदमियोंको जीत लिया वही असली विजयी नहीं है, वास्तविक विजयी तो वह है जिसने अपने-आपको जीत लिया है।
जिसकी जीभपर भगवान्का नाम है वह चाण्डाल भी श्रेष्ठ है। जिसने भगवान्का नाम लिया उसके द्वारा सब तपस्या हो चुकी, सब यज्ञ हो चुके, सब तीर्थोंका स्नान हो वेदका पारायण भी हो गया।
तुम्हारा श्रीमुख और श्रीचरण मैं देखूँगा - जरूर देखूँगा। उसीमें मन लगा अधीर हो उठा है। पाण्डवोंको जब जब कष्ट हुआ, तब-तब स्मरण करते ही तुम आ गये। द्रौपदीके लिये तुमने उसकी चोलीमें गाँठ बाँध दी। गोपियोंके साथ कौतुक करते हो, गौओं और ग्वालोंको सुख देते हो, अपना वही रूप मुझे दिखा दो। तुम तो अनाथके नाथ और शरणागतोंके आश्रय हो । मेरी यह कामना पूरी करो।
अरे अज्ञानी मनुष्य! मुझे तेरी इस बातपर बड़ा अचम्भा आता है कि तू इस बालूके मकानमें निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है। इसे नाश होते कितनी देर लगेगी।
ज्ञानी बननेवालोंके फेरमें मत पड़ो: कारण निन्दा - अहंकार, वाद-विवादमें अटककर वे भगवान्से बिछुड़े रहते हैं।
जबतक कामना है, तबतक सुखके दर्शन स्वप्नमें भी नहीं होंगे। कामना श्रीराम भजन बिना मिट नहीं सकती। अतएव सुखी होना हो तो श्रीरामका भजन करो।
शरीरको छोड़नेके समय आत्माकी जिस वस्तुमें आसक्ति होती है, वह उसीमें प्रवेश करता है। उस समय यदि उसके हृदयमें भगवान्का प्रकाश न होकर जगत्का प्रकाश होता है, तो उसको अँधेरे जेलखानेमें जाना ही पड़ता है।
सब ओरसे मनको हटाकर भगवान्के चरणोंका आश्रय लेनेवाले भगवान्के प्रिय पुरुषमें यदि कोई दोष भी हो तो हृदयमें रहनेवाले सर्वेश्वर भगवान् उसे नष्ट कर देते हैं।
सिद्धान्त अद्वैतका और मजा भक्तिका, यही तो भागवत धर्मका रहस्य है।
अहम्मन्यता और ममताको दबाकर सबके साथ बन्धुत्व स्थापित करना एक ऋषिका काम है।
जो अपने उपदेशको अनुभव और आचरणमें नहीं उतार सकता उसके उपदेशोंसे कुछ भी नहीं बन सकता और वह सदा अपना तथा दूसरोंका अमूल्य समय नष्ट करता है।
हमारे अपने विचार और हमारी अपनी इन्द्रियाँ प्रायः हमें धोखा देती हैं और सत्यासत्यकी परख नहीं कर सकतीं।
प्रभु अपने भक्तको दुःखी नहीं करते, अपने दासकी चिन्ता अपने ही ऊपर उठा लेते हैं। सुखपूर्वक हरिका कीर्तन करो, हर्षके साथ हरिके गुण गाओ। कलिकालसे मत डरो, कलिकालका निवारण तो सुदर्शनचक्र आप ही कर लेगा। भगवान् अपने भक्तोंको कभी छोड़ते ही नहीं।
लोटेमें नीचे छेद होनेसे सभी जल गिर पड़ता है। इसी प्रकार साधकके मनमें कामना होनेपर साधनका फल चला जाता है।
धर्मकी भूख बादलके समान है। जहाँ वह बराबर जमी और चातककी-सी आतुरताकी गर्मी बढ़ी कि तुरंत ईश्वरकी कृपाका अमृत बरसने लगा।
इन्द्रियाँ ही मनुष्यकी शत्रु हैं। आशा मिट जानेपर यह पृथ्वी ही स्वर्ग है। विषयोंमें प्रेम ही बन्धन है। सदा संतुष्ट ही बड़ा धनी है। मनको जय करनेवाला ही संसारमें विजयी है।
परमेश्वरकी इच्छा यह है कि तुम पवित्र बनो, व्यभिचारसे बचे रहो, तुममेंसे हरेक पवित्रता और आदरके साथ भगवान्की प्रार्थना करना जाने, तुम सब आपसमें प्रेम करो, क्योंकि परमेश्वर प्रेमकी ही शिक्षा देता है।