अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



मनका निरोध करता हूँ, पर विकार नष्ट नहीं होता। ये विषयद्वार बड़े ही दुस्तर हैं। यदि आप अंदरमें भरे रहते तो मैं निर्विषय होकर तदाकार हो जाता।


वासना लेशमात्र भी रही तो भगवान् नहीं मिल सकते।


कहनेवाले वक्ताके जीवनको मत देखो, वह जो कहता है, उसपर गौर करो।


जो कोई तुम्हें कोसे, तुम उसे कभी मत कोसो । स्मरण रखो कि क्रोधीके शापसे आशीषका फल मिलता है।


कामवासना जाग्रत् होनेपर नामकी धुन लगा देनी चाहिये। जोर-जोरसे कीर्तन करने लगना चाहिये। कामवासना नाम-जप तथा नाम-कीर्तनके सामने कभी ठहर नहीं सकती।


जो मनुष्य लौकिक लालसाके वशमें होकर ऋषि-मुनियोंके हृदयस्थ हरिकी आवाजकी अवगणना करता है, उसे तो ग्लानिका कफन ओढ़कर अपमानकी श्मशान भूमि में ही जलना पड़ता है; और जो इन्द्रियों और भोगेच्छाको दुर्बल बनाकर लौकिक पदार्थोंसे दूर रहता है, वह सत्य, सुख, शान्तिकी चादर ओढ़कर सम्मानकी भूमिमें स्वयं श्रीहरिकी गोदमें सो जाता है।


कभी चरित्रसे पतित न होना चाहिये। गिरनेमें गौरव नहीं है। पतितावस्थासे पुनः-पुनः उठकर खड़े होओ, इसीमें परम गौरव है।


सत्संगके बिना भगवान्‌का रहस्य सुननेको नहीं मिलता, उसके सुने बिना मोह दूर नहीं होता और मोहका नाश हुए बिना भगवान्के चरणोंमें दृढ़ अनुराग नहीं होता।


जो मनुष्य ईश्वरके सिवा न किसीसे डरता, न किसीकी आशा रखता है, जिसे अपने सुख-संतोषकी अपेक्षा प्रभुका सुख संतोष अधिक प्रिय है, उसीका ईश्वरके साथ मेल है।


जो किसीको दुःखमें देखकर उसपर दया नहीं करता, वह मालिकके कोपका पात्र होता है।


साधककी अवस्था उदास रहनी चाहिये। ‘उदास’ किसे कहते हैं, जिसे अंदर बाहर कोई उपाधि न हो, जिसकी जिह्वा लोलुप न हो, भोजन और निद्रा नियमित हों, स्त्री-विषयमें फिसलनेवाला न हो।


समयपर रूखा-सूखा जो भी भिक्षामें प्राप्त हो जाय, उसीपर निर्वाह करके केवल कृष्णकथा-कीर्तनके निमित्त इस शरीरको धारण किये रहना चाहिये।


घर-गृहस्थीके प्रपंचमें लगे रहते हुए भी एक बात न भूलना - यह क्षणकालीन द्रव्य, दारा और परिवार तुम्हारा नहीं है। अन्तकालमें जो तुम्हारा होगा वह तो एक श्रीहरि ही हैं, उसीको जाकर पकड़ो।


और सब बातोंको कलपर छोड़ दो, परंतु भगवान्का स्मरण और परोपकारमें एक मिनटकी भी देर न करो।


मस्तिष्ककी अस्थिरता तथा परमात्मामें कम विश्वास ही सारे बुरे प्रलोभनोंका मूल कारण है।


हे मन ! मायाजालमें मत फँसो। काल अब ग्रसना चाहता है। आओ, श्रीहरिकी शरण आओ।


जो श्रीहरिको प्रिय न हो वह ज्ञान भी झूठा है और वह ध्यान भी झूठा है।


दृढ़ वैराग्य होनेपर मान-प्रतिष्ठा, इन्द्रियस्वाद और लोक-लाजकी परवा ही नहीं रहती।


दोनों दर्पण उठकर एक-दूसरेके आमने-सामने आ गये। अब बताइये कौन किसको देख रहा है।


जिन्होंने पूर्णताको प्राप्त कर लिया है वे दूसरेके कहेको सहजहीमें मान नहीं लेते, क्योंकि वे जानते हैं कि मानव दुर्बलता-दुर्गुण प्रिय है और शब्दोंमें चूक जानेका विशेष भय।


अपने साधनमें लगो, दूसरोंकी निन्दामें जरा-सा भी समय व्यर्थ न गँवाओ। समय बड़ा मूल्यवान् है।


लोगोंकी नजरमें जिसका दरजा ऊँचा हो गया है, समझ लो वह बहुत ही हलका मनुष्य है।


सुन रे सजन! अपने स्वहितके लक्षण सुन। मनसे गोविन्दका सुमिरन कर, नारायणका गुणगान कर, फिर बन्धन कैसा।


कोटि-कोटि जन्मोंके अनुभवके बाद निरपेक्षता आती है। निरपेक्षतासे बढ़कर और कोई साधन है नहीं।


भजन मन, वचन और तन तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान्का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे हुई जीव-सेवा तनका भजन है।


भगवन्! अब मेरा तिरस्कार करते हो? ऐसा ही करना था तो पहले अपने चरणोंका स्नेह क्यों दिया ? हमारे प्राण ही लेने थे तो दृष्टिमें ही क्यों आये।


चारों वेद, छहों शास्त्र, अठारहों पुराण हरिके ही गीत गाते हैं।


ज्ञान पुरुष है, भक्ति स्त्री है। पुरुष मायानारीसे तभी छूट सकता है जब वह परम वैरागी हो। किंतु भक्तिसे तो माया सहज ही छूटी हुई है।


भगवान् यदि भक्तपर दुःखके पहाड़ ढाह दें, उनकी घर-गृहस्थीका सत्यानाश कर डालें तो भक्त और भी उत्सुकता, उमंग और भक्तिपूर्वक उनका भजन करेंगे।


प्रभु-विरहकी अग्निमें जलनेवालेके आँसू इस प्रकार निकलते हैं, जैसे जलती हुई गीली लकड़ीके दूसरी ओर फेन निकलता है।


भक्तिमार्ग ही ऐसा मार्ग है कि जीव अनन्यभावसे भगवान्की शरण में जब जाता है, तब भगवान् उसे गोदमें उठा लेते हैं।


जो दयालु हैं, उन्हींपर भगवान्‌की दया होगी; जिसका मन शुद्ध है, उन्हींको भगवान्‌के दर्शन होंगे; जो धर्मके लिये सताये जाते हैं, स्वर्गका राज्य उन्हींका होगा और जो धर्मके पिपासु हैं, उन्हींकी तृप्ति होगी।


बंदगी जो सम्पूर्ण हृदयके साथ न हो, निष्फल है।


नवयुवकों और अपरिचितोंसे अधिक बातें न करो।


नेत्रोंसे साँवरे प्यारेको देख देख उन्हें जिनमें छहों शास्त्र, चारों वेद और अठारहों पुराण एकीभूत हैं। एक क्षण भी दुःसंग न कर। विष्णुसहस्त्रनाम जपा कर।


अगर कोई बोलना जाने तो बोली बड़ी ही अनमोल चीज है। पहले हृदयके तराजूपर तौलकर ही बोलनेके लिये मुँह खोलना चाहिये।


सभी संत अनेक प्रलोभनों और कष्टोंसे गुजरे हैं, उनसे लाभ उठाया है और उनपर विजय प्राप्त की है।


गोविन्द के गुण नहीं गानेसे जीवन व्यर्थ जा रहा है. रे मन ! श्रीहरिको वैसे ही भज जैसे मछली जलको भजती है।


एकान्तमें प्रभुके साथ बैठनेवालेका लक्षण है संसारकी सब वस्तुओं और दूसरे सब मनुष्योंकी अपेक्षा प्रभुहीको अधिक प्यार करना।


पृथ्वीकी ओर देखकर पैर रखना, जलको कपड़ेसे छानकर पीना, वाणीको सत्यसे पवित्र करके बोलना और मनमें विचार करनेपर जो उत्तम प्रतीत हो, वही करना।


वे इस पृथ्वीपर अपरिचित रहते हैं; परंतु भगवान्‌के अति निकट और परिचित मित्र । वे स्वयं अपनेको नगण्य समझते हैं; किंतु भगवान्की आँखोंमें अति प्रिय हैं।


जिस तरह कच्चे घड़ेको फूटते देर नहीं, उसी तरह इस शरीरको नाश होते देर नहीं।


भगवान्से मिलनेकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुके नेत्र श्रीगुरु ही खोलते हैं।


व्याकुल होकर उसके लिये रोनेसे ही ‘वह’ मिलता है। लोग लड़के-बच्चेके लिये, रुपये-पैसेके लिये कितना रोते हैं, किंतु भगवान् के लिये क्या कोई एक बूँद भी आँसू टपकाता है; उसके लिये रोओ, आँसू बहाओ तब उसको पाओगे।


मनुष्योंसे मैत्री और पशुओंके प्रति दया रखो। यदि उनमें विष भी हो तो उनकी उत्पत्ति तो एक ही दयालुताके अमृतभण्डारसे किसी प्रयोजनको लेकर ही हुई है। अतएव उन्हें सुख पहुँचानेका यत्न करो।


संसार दुःखरूप है, यही तो शास्त्रका सिद्धान्त है। और यही जीवमात्रका अन्तिम अनुभव है।


पापके कटनेके लक्षण ये हैं-1- पाखण्डियोंसे अलग रहना, 2-असत्यका त्याग करना, 3- अहंकारी मनुष्योंसे दूर रहना, 4 - भगवान्‌की तरफ आगे बढ़ना, 5 - केवल कल्याणके ही मार्गपर चलना, 6-अधर्म अनीति और पापकर्मोंको छोड़नेकी दृढ़ प्रतिज्ञा करना, 7-किये हुए पापोंको नष्ट करनेके लिये योग्य प्रायश्चित्त करना और 8- नालायकके साथ नालायकी न करना।


कर! जाग ! तेरा यह बालूका मकान पलक मारते गिर जायगा।


वैराग्य और ज्ञान पर्यायवाची शब्द है। किसी भी परिस्थितिमें सर्वदा और सर्वत्र ही वैराग्यका आचरण किया जा सकता है। विवाहित स्त्री-पुरुष भी वैराग्यका सम्पादन कर सकते हैं।


जबतक परमात्माके यथार्थ स्वरूपकी पहचान नहीं होती तभीतक अविद्यारूप संसार और संसारी जीव भासते हैं, वास्तव-स्वरूपकी पहचान होते ही जीव-भाव और दृश्यभाव निवृत्त होकर एक परब्रह्मरूप ही दृष्टिगोचर होने लगता है।


भौंरा चाहे जैसे कठिन काठको मौजके साथ भेदकर उसे खोखला कर देता है, परन्तु कोमल कलीमें आकर फँस ही जाता है। वह प्राणोंका उत्सर्ग कर देगा, पर कमलदलको नहीं चीरेगा। स्नेह कोमल होनेसे ऐसा कठिन है।


नम्रताके तीन लक्षण हैं- (1) कड़वी बातका मीठा जवाब देना, (2) क्रोधके अवसरपर भी चुप साधना और (3) किसीको दण्ड देना ही पड़े तो उस समय चित्तको कोमल रखना।


जिन मकानोंमें तरह-तरहके बाजे बजते और गाने गाये जाते थे वे आज खाली पड़े हैं। अब उनपर कौवे बैठते हैं।


मनुष्य चाहे कल्पवृक्षके नीचे क्यों न चला जाय, जबतक सीतापतिकी कृपा न होगी तबतक उसके दुःखोंका नाश नहीं हो सकता; इसलिये शत्रुता मित्रता छोड़, संसारसे उदासीन हो भगवान् से प्रीति करो।


दूसरेकी उन्नति करनेमें स्वाभाविक ही तुम्हारी भी उन्नति हुआ करती है। दूसरोंकी भलाई करनेमें तुम अपने अहंकार और लौकिक हितको जितना ही भूलोगे, उतना ही उसका परिणाम अधिक शुभ होगा।


किसी भी लौकिक अथवा पारलौकिक पदार्थको प्रभुसे न जाँचो । वह तुम्हारी आवश्यकताको तुम्हारी अपेक्षा अधिक जानता है और तुम्हें जब जिस वस्तुकी आवश्यकता होगी, वह दयालु प्रभु पहुँचा देगा। तुम्हारा बस, एक काम है, चारों ओरसे चित्तको समेटकर प्रभुके चरणोंमें बसा दो।


इस संसारमें आये हो तो अब उठो, जल्दी करो और उन उदार प्रभुकी शरणमें जाओ। यह देह तो देवताओंकी है, धन सारा कुबेरका है, इसमें मनुष्यका क्या है ? देने दिलानेवाला, ले जाने लिवा ले जानेवाला तो कोई और ही है। इसका यहाँ क्या धरा है; रे मूरख! क्यों नाशवान्‌के पीछे भगवान् की ओर पीठ फेरता है।


जैसे एक पतवाररहित नौका लहरोंके इशारेपर इधर-उधर नाचा करती है, इसी प्रकार वह मनुष्य, जो पथभ्रष्ट होकर ध्येय-रहित हो जाता है, कई प्रकारसे प्रलुब्ध होता है।


जितनी आवश्यकताएँ कम होंगी, उतना ही सुख बढ़ेगा, इसलिये महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षकि नीचे उम्र काट देते हैं।


सदा-सर्वदा नाम-संकीर्तन और हरिकथा-गान होने से चित्तमें अखण्ड आनन्द बना रहता है। सम्पूर्ण सुख और श्रृंगार इसीमें मैंने पा लिया और अब आनन्दमें झूम रहा हूँ। अब कहीं कोई कमी ही नहीं रही। इसी देहमें विदेहका आनन्द ले रहा हूँ।