ऊँची जातिका अहंकार कोई मत करो। साहेबके दरबारमें केवल भक्ति ही प्यारी है।
जिसकी जीभ सत्य और हितकर वाणी बोलती है, वही वास्तविक वक्ता है।
दुष्ट मनुष्यमें भी ईश्वरका निवास है, परंतु उसका संग करना उचित नहीं।
आकाशमें उड़ना आदि तो इन्द्रजालके तमाशे हैं। इनसे परलोकमें कोई सहारा नहीं मिलता। महात्माओंकी सच्ची सिद्धि तो वह है कि उनके संग और उपदेशसे पापी मनुष्य सदाचारी हो जाता है और परमार्थके मार्गपर लगकर संत बन जाता है।
हृदयकी सरलता और निर्मलता ईश्वरीय ज्योति है। इनसे ईश्वरका मार्ग दीखता है। क्षमा भगवान्की और आकर्षित करती है। प्रभुका भय पापसे निवृत्त करता है और प्रभु-महिमाका ध्यान इस सत्यके मार्गको काटता चला जाता है।
जिसको भगवान्का प्रेम प्राप्त है वह मनुष्य भयानक-से-भयानक रोगमें, बड़ी से बड़ी विपत्तिमें और दारुण अन्न-कष्टमें भी धीरज और कृतज्ञताको अटल रखता है।
जो श्रीहरिकी कथा-सुधाका पान करते हैं, साधु पुरुषोंके सखा श्रीहरि उनके हृदयस्थ होकर कामादि वासनारूप बाह्य और आन्तरिक सभी अमंगलोंको दूर कर देते हैं।
उस परमात्माके आशीर्वादपर विश्वास करो जो विनम्र पुरुषकी सहायता करता है और अभिमानी पुरुषको नम्र बना देता है।
अहंकारकी आड़ होनेसे ईश्वर नहीं दीख पड़ते अहंबुद्धिके जाते ही सब जंजाल दूर हो जाते हैं।
भगवन्! हम विष्णुदास हैं। हमारा सब बल-भरोसा तुम हो। पर इस कालको देखता हूँ हमारे ही ऊपर हुकूमत चला रहा है।
जिस तरह खरादे बिना सुन्दर मूर्ति नहीं बनती, उसी तरह विपत्तिसे गढ़े बिना मनुष्यका हृदय सुन्दर नहीं बनता।
अष्ट महासिद्धियाँ भक्तके चरणोंमें लोटा करतीं हैं, वह उनकी ओर देखतातक नहीं।
मालिकपर भरोसा रखो, परंतु ऊँटके पैर बाँधकर मत रखो। यानी उद्योग मत छोड़ो।
बुद्धिमान् कौन है ? जो संसारसे प्रेम हटाकर भगवान्में प्रेम करे। धनवान् कौन है ? प्रभु जो दे, उसीमें संतोष करे । चतुर कौन है ? जिसको संसारके भोग न फँसा सकें। त्यागी कौन है ? जिसके मनमें संसारकी कोई कामना नहीं । कृपण कौन है ? जो ईश्वरके दिये हुए धनका उचित दान करनेमें संकोच करे।
चारका परिचय चार अवस्थाओं में मिलता है दरिद्रतामें मित्रका, निर्धनतामें स्त्रीका, रणमें शूरवीरका और बदनामीमें बन्धु-बान्धवोंका।
नाशवान् सम्पदाकी खोजमें जीवन खपाना कोरी मूर्खता नहीं तो और क्या है? प्रतिष्ठाके पीछे परेशान रहना पागलपन है। ऊँचे-ऊँचे पदकी लालसा नरकोंमें ढकेलनेवाली है। भौतिक इच्छाओंपर फिदा हो जाना मृत्युका द्वार खोलना है।
जो ईश्वरपर निर्भर करते हैं, उन्हें ईश्वर जैसे चलाते हैं, वैसे ही चलते हैं, उनकी अपनी कोई चेष्टा नहीं होती।
जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषयभोग तथा आयु चंचल और क्षणस्थायी हैं, उसी तरह यौवन भी क्षणस्थायी है। जवानी आते तो दीखती है पर जाते नहीं मालूम होती। हवाकी अपेक्षा भी तेज चालसे दिन-रात होते हैं और उसी तेजीसे जवानी झट खतम हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है। फिर गाफिल क्यों होता है।
एकान्तमें या लोकान्तमें प्राणोंपर बीत आवे तो भी विषय-वासना और उसके उद्दीपनोंसे दूर रहे।
हार्दिक पश्चात्तापमें लगनेपर ही भक्ति प्राप्त होती है। पश्चात्तापसे कल्याणका पथ खुल जाता है जिसे अनिश्चित बुद्धि शीघ्र ही नष्ट कर देती है।
धार्मिक वेष धारण करने या सिर मुड़ानेसे क्या लाभ? आचरणमें परिवर्तन और वासनाओंका सम्पूर्ण क्षय हो तुम्हें सच्चा धार्मिक व्यक्ति बना देगा।
जिनका जीवन-आधार ईश्वर नहीं, वे मरे हैं और जिनका जीवनाधार ईश्वर है, वे अमर हैं।
'मैं' और 'मेरा' इन दो शब्दोंमें ही सारे जगत्के दुःख भरे हैं। जहाँ 'मैं', 'मेरा' नहीं है वहाँ दुःखोंका अत्यन्त अभाव है।
हमारा प्रयत्न अपनेको जीतना और प्रतिदिन शक्तिमान् होते जाना तथा पवित्रतामें उत्तरोत्तर उन्नति करते जाना होना चाहिये।
ईश्वरको अपना समझकर किसी एक भावसे उसकी सेवा-पूजा करनेका नाम भक्तियोग है।
मनुष्य अपने पापको कितना ही छिपावे, पर एक न एक दिन वे प्रकट हो जाते हैं।
मैंने संसारके सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा जरा और रोग देख लिये हैं, उन्हींके चंगुलसे बचनेके लिये मैंने संन्यास लिया है। क्या फिर भी मैं मूर्खोकी तरह उनका स्वाद चखनेके लिये लौट सकता हूँ।
सत्यके समान कोई तप नहीं है, सत्यके समान कोई जप नहीं है। सत्यसे सद्रूप प्राप्त होता है। सत्यसे साधक निष्पाप होते हैं।
किसीने कहा है, 'जब कभी मैं आदमियोंमें जाता हूँ, मैं जो कुछ था, उससे कम ही होकर लौटा हूँ।
यह समस्त विश्व भगवान्का हो विस्तृत रूप है। अतएव बुद्धिमानोंको चाहिये कि सबको अभेद-दृष्टिसे अपने ही समान देखें।
सच्चा खोज करनेवाला वही है जो जबतक आप न खो जाय मालिकको खोजता रहे।
जीवनके कार्य जबतक पवित्रतासे न हों तबतक लोगोंका विश्वास नहीं जमता । सच्ची निवृत्ति तो प्रभुके विशुद्ध प्रेमसे ही उपजती है और विशुद्ध प्रेमकी पूर्णता तभी होती है जब प्रभुके दर्शन होते हैं।
शरीर, वाणी, मन तीनों मेरे नहीं। उन्हें तो मैं ईश्वरको सौंप चुका हूँ। मेरा न लोक है, न परलोक। दोनोंकी जगह हैं परमेश्वर।
तिनकेके समान हलका बननेसे, वृक्षके समान सहिष्णु बननेसे, मान छोड़कर दूसरोंको मान देनेसे, इष्टकी महिमा समझनेसे तथा अभिमान त्याग करनेसे साधना शीघ्र सफल होती है। इस प्रकारकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये सत्संग, धर्मग्रन्थ और भक्त चरित्रका अभ्यास, गुरु-आज्ञाका पालन तथा माता-पिता आदि गुरुजनोंकी तथा भक्तोंकी सेवा-पूजा करना बहुत आवश्यक है।
मायामरीचिकाके समान भासनेवाले इस जगत् में केवल भगवान्का भजन ही सार हैं।
जब देहमेंसे श्वास निकल जायगा तब पछतायेगा । इसलिये जबतक शरीरमें श्वास है, तभीतक रामका स्मरण करके उनका गुण गा ले।
गर्दनपर बिखरे हुए बालोंवाला करालमुखी सिंह, अत्यन्त मतवाला हाथी और बुद्धिमान् समरशूर पुरुष भी स्त्रियोंके आगे परम कायर हो जाते हैं।
प्राणी जबसे जन्म लेता है तभीसे उसकी उम्र घटने लगती है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा यों देखते-देखते जिस तरह तेल घट जानेसे दीपक बुझ जाता है, उसी तरह उसका जीवन बुझ जाता है।
कलियुगमें प्रेमपूर्ण ईश्वरभक्ति ही सर्वश्रेष्ठ तथा सार वस्तु है।
भगवान्ने जो इन्द्रियाँ दी हैं उन्हें भगवान्के काम में क्यों नहीं लगा देते? मुखसे हरिका कीर्तन करो, कानोंसे उनकी कीर्ति सुनो, नेत्रोंसे उन्हींका रूप देखो। इसीके लिये तो ये इन्द्रियाँ हैं।
जिसका मन ईश्वरपरायण है, वहीं सत्पुरुष है। जिसने कामिनी-कांचनका त्याग कर दिया है, वही सत्पुरुष है।
प्रभुको प्राप्त करनेका पहला साधन है- प्रभुको प्राप्त करनेका निश्चय । यह निश्चय होनेपर ही इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेकी आवश्यकता प्रतीत होती है, कुविचार क्षीण हो जाते हैं और उच्च अवस्था प्राप्त हो जाती है।
जो दूसरोंकी आँखोंमें धूल झोंकनेमें चतुर होते हैं, वे समझते हैं कि हम इसी तरहसे भगवान्को भी धोखा दे सकेंगे; परंतु सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ भगवान्के सम्बन्धमें ऐसा सोचना उनका निरा पागलपन है।
कथा-कीर्तन करके जो द्रव्य देते या लेते हैं, वे दोनों ही भूले हुए हैं।
मार्गकी प्रतीक्षा करते-करते नेत्र थक गये। इन नेत्रोंको अपने चरण-कमल कब दिखाओगे। तुम मेरी मैया हो; दयामयी छाया हो। मेरे लिये तुम्हारा ऐसा कठोर हृदय कैसे हो गया? मेरी बाँहे, हे मेरे प्राणधन हरि ! तुमसे मिलनेको फड़क रही हैं।
हमारी लगन और प्रणिधान प्रतिदिन बढ़ते ही जाने चाहिये।
भूतमात्रमें जब हरिके दर्शन होने लगते हैं, तभी निष्काम और सच्ची भूतसेवा बन पड़ती है।
जो काम तुम स्वयं नहीं चाहते, वह दूसरोंके लिये भी मत करो।
लोग दुनियाको नहीं छोड़ते, दुनिया ही भले उन्हें निकम्मा करके छोड़ दे।
एक ही सौन्दर्यराशि जो प्रत्येक रूपमें भासमान है, उसीमें अन्तरके सम्पूर्ण अनुरागको एकत्र करके विश्वके सम्पूर्ण मोहसे परित्राण प्राप्त कर लेना ही संन्यासका उद्देश्य है। विधि एवं निषेधसे परे 'अहं', 'त्वं' की सीमाको समाप्त कर जो आनन्दघन विराजित हैं, उसीमें चित्तको व्यवस्थित कीजिये।
चित्त शुद्ध करके भावसे भगवान्का गीत गाओ।
चार बातोंको याद रखो -दूसरेके द्वारा किया हुआ अपनेपर उपकार, अपने द्वारा किया हुआ दूसरोंका अपकार, मृत्यु और भगवान्।
जिसने कभी दुःख नहीं उठाया, वह सबसे बड़ा दुःखिया है और जिसने कभी पीर न सही, वह सबसे बढ़कर बेपीर है, क्योंकि ऐसा हुए बिना दूसरोंके दुःख और पीड़ाका अनुभव नहीं हो सकता और जो दूसरोंके दुःखका अनुभव नहीं करता, उसे परिणाममें दुःखी होना ही पड़ता है।
आवश्यकता चावलकी होती है, परंतु चावल बोनेसे वह उपजता नहीं। चावल पानेके लिये बोना पड़ता है धान। धानमें छिलका यद्यपि अनावश्यक है; परंतु छिलकेके बिना धान नहीं उगता। इसी प्रकार शास्त्रविहित आचारोंका पालन किये बिना कभी धर्म-लाभ नहीं होता।
जब मुझे बुद्धिमानोंकी सोहबतसे कुछ मालूम हुआ तब मैंने समझा कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता।
असंख्य उलझनोंमें फँसकर भी एक पवित्र, सच्चा और स्थायी अन्तःकरण क्षुब्ध नहीं होता; और अन्तःकरणसे शान्त और अचंचल होते हुए वह स्वयं किसी भी वस्तुमें किसी फलकी आकांक्षा नहीं करता।
विषय विष है, इसका त्याग ही सुखकी जड़ है।
मान-बड़ाईकी प्राप्तिमें, यदि मनमें हर्ष होता हो तो जान लेना चाहिये कि मान बड़ाईमें आसक्ति और कामना है। चाहे ऊपरसे न दीखती हो। लोकोपकारके नामपर मान-बड़ाईका स्वीकार करना तो और भी धोखेकी चीज है।
जबतक मनुष्य अपने आत्माको नहीं पहचानता यह नहीं जानता कि मैं वास्तवमें क्या हूँ, कौन हूँ और संसारमें किस लिये आया हूँ, तबतक उसका सारी दुनियापर विजय प्राप्त कर लेना भी व्यर्थ ही है।
यदि हम पूर्णतः अपने आपमें रम जायँ और हृदयकी वासनाओंमें उलझे न रहें तो हमें प्रभुके प्रेमका सुख मिलेगा और स्वर्गीय चिन्तनका अनुभव प्राप्त होगा।