जो मनुष्य अशुद्ध दर्शनसे नेत्रों और भोगोंसे इन्द्रियोंको बचाता है, नित्य ध्यानयोगसे अन्तःकरणको निर्मल रख अपने चरित्रको शुद्ध करता है और धर्मपूर्वक अर्जित अन्नसे अपना पालन करता है उसके ज्ञानमें कोई कमी नहीं।
जिसका चित्त अखिल सौन्दर्यके भण्डार भगवान् नारायणके चरणकमलोंका चंचरीक बन चुका है, वह क्या एक नारीके रूपपर आसक्त हो सकता है ? जबतक जगत्क किसी भी पदार्थमें आसक्ति है तबतक प्रभुचरणोंमें प्रीति कहाँ।
इस मनको बहुत रोको, बंद कर रखो तो यह खीज उठता है, फिर चाहे जिधर भागता है। इसे भजन प्रिय नहीं, श्रवण प्रिय नहीं, विषय देखकर उसी ओर भागता है। सोते-जागते इसे कब कहाँतक रोका जाय ! हे हरि ! अब तुम्हीं मेरी रक्षा करो।
जैसे संसारकी बात सोचते-सोचते मनुष्य बड़ा भारी संसारी बन गया है, वैसे ही ईश्वरकी बात सोचते-सोचते ठीक वैसा ही बन सकता है।
काम-वासनाके अधीन जिसका जीवन होता है, उस अधमको देखनेसे भी असगुन होता है।
भक्ति-प्रेम-सुख औरोंसे नहीं जाना जाता; चाहे वे पण्डित, बहुपाठी या ज्ञानी हों। आत्मनिष्ठ जीवन्मुक्त भी हों तो भी उनके लिये भक्ति-सुख-दुर्लभ है। नारायण यदि कृपा करें तो ही यह रहस्य जाना जा सकता है।
बिना पश्चात्तापके सच्ची साधनाका आरम्भ नहीं होता। इसीलिये ईश्वरसाधनाका पूर्व अंग है पश्चात्ताप । ईश्वर-स्मरणके समय तो पाश्चात्तापके विचारोंको भी दूर कर देना चाहिये, जिससे सब इष्ट वस्तुओंका स्थान एक ईश्वर ग्रहण कर ले।
दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर जो व्यक्ति ईश्वरकी प्राप्तिके लिये यत्न नहीं करता उसका जन्म वृथा ही है।
यहाँके सभी सम्बन्ध आरोपित हैं। अपना-अपना कर्मफल भोगनेके लिये जीव विविध योनियोंमें आते हैं और कर्मफल भोगकर चले जाते हैं। इसमें शोककी वास्तवमें कोई बात नहीं है।
रामकी शरण हो जाओ, यही भवसागरसे पार उतरनेके लिये जहाज है, इसीको छोड़कर संसारसे उद्धार पानेका और कोई उपाय नहीं है।
गोविन्द - विरहमें मेरा निमेषकाल भी युगके समान बीतता है। मेरी आँखोंने वर्षा ऋतुका रूप धारण किया है और समस्त जगत् मुझे शून्य-सा प्रतीत होता है।
पहनने-ओढ़नेमें सादगीका खयाल रखना। शौकीनीकी पोशाक और आडंबरसे परे ही रहना।
जो बड़ा भारी विरक्त बनता है, पर हृदयमें अधर्मकामरत रहता है, कामवश द्वेष करता है वह भी निश्चित दुःसंग है।
विचारशील और ब्रह्मज्ञानीको संसार नहीं लुभा सकता, मछलीके उछलनेसे समुद्र नहीं उमड़ा करता।
जबतक मनुष्य पश्चात्तापके लिये तैयार न हो, तबतक क्षमाकी याचना न करे और जबतक तन-मनसे उपासना न हो तबतक न तो पाप दूर होते हैं और न मन ही असली राहपर आता है।
किन-किन बातोंसे ईश्वरकी प्राप्ति होती है ? गूँगे, बहरे और अन्धेपनसे। प्रभुके सिवा न कुछ बोलो, न सुनो और न देखो।
जैसे अग्निके समीप रहनेवाले पुरुषका अन्धकार और शीत अग्निकी स्वाभाविक शक्तिसे ही दूर हो जाता है, वैसे ही पापी पुण्यात्मा जो कोई भी भगवान्को भजता है, वही उनकी महिमाको जानता है और वही शान्ति प्राप्त करता है।
न तो ईश्वरसे स्वर्गकी कामना करो और न नरकसे बचानेकी याचना करो। शरणागतिका यही आदर्श है।
मुखमें अखण्ड नारायण-नाम ही मुक्तिके ऊपरकी भक्ति जानो।
गुण गाते हुए, नेत्रोंसे रूप देखते हुए तृप्ति नहीं होती। प्रभु मेरे कितने सुन्दर हैं, जलभरे मेघ-जैसी श्याम कान्ति कैसी शोभा देती है। सब मंगलोंका यह सार है, सुख-सिद्धियोंका भंडार है, यहाँ सुखका क्या वारपार है।
भजनकी ओर चित्त ज्यों-ज्यों झुकता है, त्यों-त्यों भगवत्सान्निध्यका पता लगता है। पर यह अनुभव उसीको मिल सकता है, जो इसे करके देखे।
कर्माकर्मके फेरमें मत पड़ो। मैं भीतरी बात बतलाता हूँ, सुनो। श्रीरामका नाम अट्टहासके साथ उचारो।
मनके विलीन होनेपर जिस सुखरूप आत्मा या द्रष्टाका प्रकाश होता है, वही ब्रह्म है, वही अमृत है; वही शुभ्र और निर्मल है, वही सबकी गति और चरम लक्ष्य है।
नाथ! मुझे रोनेका वरदान दो! रोता रहूँ, पागलकी भाँति सदा रोऊँ, उठते-बैठते, सोते-जागते सदा इन आँखोंमें आँसू ही भरे रहें, रोना ही मेरे जीवनका व्यापार हो, खूब रोऊँ, हर समय रोऊँ, हर जगह रोऊँ और जोर-जोरसे रोते-रोते तुम्हें केवल तुम्हे पुकारता रहूँ।
- मनुष्योंसे तो जितनी कम हो सके, बात करो, ज्यादा बात करो ईश्वरसे।
जिन्हें संसारी जंजालोंसे छूटना हो, जन्म-मरणके कष्ट न भोगने हों, वे अपने मनको अपने वशमें करें, उसे इधर उधर जानेसे रोकें और करतारके ध्यानमें लगावें।
दुलत्ती झाड़नेवाली गौ जैसे अपना दूध चुराती है, वेश्या जैसे अपनी वयस् चुराती है, कुलवधू जैसे अपने अंग छिपाती है वैसे ही अपना सत्कर्म छिपाओ।
जाग्रत् मन उसीको कहते हैं, जिसमें ईश्वरको छोड़कर दूसरे किसी विषयकी इच्छा या दूसरा कोई उद्देश्य न हो. जिसका मन परम प्रभु परमात्माकी सेवामें डूबा रह सकता है, उसके लिये दूसरे मित्रकी जरूरत ही क्या है।
जो किसी भी बहानेसे, हँसीमें, दुःखमें अथवा वैसे ही भगवान् के नामोंका उच्चारण कर लेता है उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवान्की मायाके दोष-गुण बिना हरिभजनके नहीं जाते, अतएव सब कामनाओंको छोड़कर श्रीरामको भजो।
धर्मका निवास कहीं दूर नहीं है, धर्म सदा अपने ढूँढ़नेवालेके बगलमें ही बसता है। जिसने एक बार भी धर्मके लिये चेष्टा की, उसीको धर्म मिल जाता है। सज्जनोंको दूसरोंके दोषोंमें भी धर्मके दर्शन होते हैं।
ईश्वरपर विश्वास रखकर जो भी काम किया जाता है, वही मंगलमय हो जाता है। विश्वास मुख्य वस्तु है।
जैसे स्त्री नैहरमें रहती है, परंतु उसकी सुरति पतिमें लगी रहती है। इसी प्रकार भक्त जगत्में रहता है, परंतु वह हरिको कभी नहीं भूलता।
उनके पदचिह्न इस बातको प्रमाणित करते हैं कि.. वस्तुतः पूर्ण और पवित्र मनुष्य हैं और वे वीरताके साथ लड़ते हुए संसारको अपने पैरोंतले कुचल देते हैं।
अपने तो हारना भला है, जगत्को जीतने दो। जो हारता है वह हरिसे मिलता है और जो जीतता है वह यमके द्वारपर जाता है।
रे मन ! अब भगवान्के चरणोंमें लीन हो जा, इन्द्रियोंके पीछे मत दौड़। वहाँ सब सुख एक साथ हैं और वे कभी कल्पान्तमें भी नष्ट होनेवाले नहीं।
आध्यात्मिक शास्त्रोंके श्रवण, भगवान्के नाम कीर्तन, मनकी सरलता, सत्पुरुषोंका समागम, देहाभिमानके त्यागका अभ्यास इन भागवतधर्मोके आचरणसे मनुष्यका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, फिर वह अनायास ही भगवान्में आसक्त हो जाता है।
अपने नेत्रोंसे श्रीकृष्णको जीभर कब देखूँगा, श्रीकृष्ण अपनी बाँहोंसे मुझे कब अपनी छातीसे लगावेंगे, प्रतिक्षण मेरे चित्तमें यही लालसा लगी रहती है।
प्रसन्नतापूर्वक बाहर जानेवाला प्रायः उदासीसे घर लौटता है। जो बाहर-बाहर फूला हुआ है वह भीतरके आनन्दको क्या जाने।
भगवान्का नाम ही दर्पहारी है, वे अभिमानका ही आहार करते हैं। अभिमान करनेसे बड़े-बड़े लोग पतित हो जाते हैं।
नाम-स्मरणका चसका लगना है बड़ा कठिन । पर एक बार जहाँ चसका लगा, वहाँ फिर एक पल भी नामसे खाली नहीं जाता।
वे मनुष्य धन्य हैं जिनमें दया है; क्योंकि परम पिताकी दयाके वे ही भागी हैं।
ईश्वरके आश्रित मनुष्यमें ये बातें होती हैं, 1- -उसकी विचारधारा सदा ईश्वरकी तरफ ही बहती है, 2-ईश्वरमें ही उसकी स्थिति होती है और 3-ईश्वरकी प्रीतिके लिये ही उसके सारे कर्म होते हैं।
भगवान्का भक्तिमार्ग प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंसे विलक्षण है। इसमें सांसारिक विषयोंका त्याग नहीं है, न भोग ही है; उन्हें भगवान्की वस्तु मानकर भगवान्के सुखके लिये भगवान्के अर्पण करते रहना।
जिस व्यक्तिका अहंकार जितना ही अधिक होता है, उसके दुःख भी उतने ही अधिक होते हैं। अहंकारकी वृद्धि एक प्रकारका पागलपन है।
सुखकी इच्छासे हमारा मन दुःखसे भरपूर जगत्के भोगोंकी ओर फँसा है। उसमेंसे वापस लौटाकर इसे परमात्मामें जो आनन्दका अमित भण्डार है, लगाना है। इस कार्यमें सहायता देनेवाले पुरुषोंका ही संग और ऐसे ही ग्रन्थोंका अध्ययन करना चाहिये।
चार प्रकारके मनुष्य मालिकको विशेष प्रिय हैं (1) आसक्तिरहित विद्वान् (2) तत्त्वज्ञानी महात्मा, (3) नम्र धनी और (4) मालिककी महिमा जाननेवाला त्यागी।
जो ईश्वरमें लीन रहता है वही सच्चा संत है।
भक्तिमार्गकी ओर बढ़नेवाले साधकको कामिनी, कांचन और कीर्तिके स्वरूप पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार आदि जो यावत् प्रेमपदार्थ हैं, उनका परित्याग करके तब इस पथकी ओर अग्रसर होना चाहिये।
जो मनुष्य समझ-बूझकर अपनी इच्छासे परमात्माकी पूजा नहीं करता, उसको तो बाध्य होकर मनुष्योंकी पूजा ही तो करनी पड़ेगी।
दैवी सम्पत्तिमें प्रेम होना प्रभुप्रेमका पूर्वरूप है।
मनमें भगवान्का रूप ऐसे आकर बैठ जाय कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति कोई भी अवस्था याद न आवे।
सदा याद रक्खो कि कोई भी मनुष्य तुम्हारा भला या बुरा नहीं कर सकता, त्रिभुवनपति ईश्वर ही सब कुछ करते हैं, उन्हींपर विश्वास रखो।
अब तुझे पाकर औरोंके सामने हाथ क्या पसारूँ ? प्रभुका होकर जगत्से अब क्या याचना।
मेरा मन ऐसा चंचल है कि एक घड़ा, एक पल भी स्थिर नहीं रहता। अब हे नारायण! तुम्हीं मेरी सुधि लो, मुझ दीनके पास दौड़े आओ।
सच्चे प्रभु-प्रेमी बनकर जिस-किसी ओर देखोगे; वहीं ईश्वर ही दिखायी देगा। कारण, ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है ही।
माता-पिताकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना संतानका धर्म है। निष्काम भावसे या भगवद्बुद्धिसे हो तो इतने ही धर्मके पालनसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है।
आत्मा नित्य सिद्ध है, इसकी प्रतीतिके लिये देश काल अथवा शुद्धि आदि किसीकी भी अपेक्षा नहीं है।
जप, तप, कर्म, धर्म, हरिके बिना सब श्रम व्यर्थ हैं।