अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



हे प्रभो ! तुमने मुझे अपने लिये ही रचा है और तुम्हारे लिये ही मैं जनमा हूँ। कृपाकर अपनी रची हुई किसी भी वस्तुके प्रति मेरे मनमें मोह न उत्पन्न होने देना।


यह मत पूछो कि इस बातको कहा किसने ? जो कुछ कहा गया है उसीपर ध्यान दो। मनुष्य जन्मते और मर जाते हैं; परंतु भगवान्की सत्य वाणी अमर है। व्यक्तित्वकी अपेक्षा किये बिना परमात्मा हमसे अनेक प्रकारसे बोलता है।


यदि आनन्द चाहो तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क, वितर्क, मोह और चिन्ता आदिको एकदम छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ और भगवान्के भजन- ध्यानमें तन्मय रहा करो।


भगवान्के नामका उच्चारण करनेसे सभी पाप जल जाते हैं, इसमें मनुष्यकी अचल श्रद्धा होनी चाहिये।


गाफिलके लिये साईंका घर दूर है; परंतु जो बंदा उनकी हाजिरीमें सदा मौजूद है, उसके लिये तो साईं हाजराहजूर हैं।


यदि तुमने ईश्वरको पहचान लिया है तो तुम्हारे लिये एक वही दोस्त काफी है। यदि तुमने उसको नहीं पहचाना है तो उसे पहचाननेवालोंसे दोस्ती करो।


कलियुगमें कीर्तन करो, इसीसे नारायण दर्शन देंगे।


विषय-सुखांक त्यागद्वारा जिन्होंने भय और राग द्वेषको छोड़ दिया है ऐसे त्यागी पुरुष ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।


धनवान् होते हुए भी जिसकी धनेच्छा दूर नहीं हो गयी है, उसे मैं सबसे अधिक गरीब समझता हूँ।


ईश्वरकी सेवासे शरीरमें और श्रद्धासे प्राणोंमें ज्योति प्रकट होती है।


ईश्वरतक पहुँचानेकी पहली सीढ़ी है प्रभुकी सत्तापर विश्वास और अन्तिम सीढ़ी है प्रभुपर विश्वास।


यदि एक-दो बार चेतानेपर भी कोई न माने, उसके साथ मत झगड़ो, परंतु सभी कुछ परमात्माको साँप दो कि उसीकी इच्छापूर्ति हो।


अंग शिथिल हो गये हैं, बुढ़ापेसे सिर सफेद हो । गया, मुहक दाँत गिर गये, हाथमें ली लकड़ीकी तरह शरीर काँपता है, तो भी मनुष्य आशारूपी पाशको नहीं त्यागता।


मुनि- सच्चा साधक वही है जिसे ईश्वरके विचारके सिवा दूसरी बात प्रिय ही नहीं लगती।


सच्चा भक्त जगत्म रहता हुआ भी राग-द्वेष छोड़कर कर्तव्य-कर्म करता है और कर्मके फलस्वरूप जो नफा-नुकसान या सुख-दुःख मिलता है, उसे ईश्वरकी गोदमें अर्पण कर देता है। वह तो रात-दिन केवल भक्तिके लिये ही ईश्वरसे प्रार्थना करता है। निष्काम कर्म इसीको कहते हैं।


जैसे हम द्वेषसे जगत्को नरक-सदृश बना देते हैं । ऐसे ही प्रेमसे उसे स्वर्गके समान भी बना सकते हैं।


जो पुरुष स्त्री, पुत्र, धनादिमें आसक्त हैं, उसकी बुद्धि मोह जालमें फँसकर धर्म-पथसे डिग जाती है। अतः सबसे पहले काम और क्रोधके वेगको वशमें करे। इन्हें जीत लेनेपर सारी कठिनाइयाँ स्वयं हल हो जाती हैं।


विश्वासी भक्त आजीवन भगवान्‌का दर्शन न पाकर भी भगवान्को नहीं छोड़ता।


संसार कौन है ? जो ईश्वरसे तुम्हें परे रखता है।


साधन-पथमें कोई भी मनुष्य टिक नहीं सकता जबतक वह परमात्माके प्रेमके लिये हृदयसे विनम्र न हो जाय।


सतत सत्संग, सत्-शास्त्रका अध्ययन, गुरु कृपा और आत्मारामकी भेंट-यही वह क्रम है जिससे जीव संसारके कोलाहलसे मुक्त होता है।


राम और कृष्ण नाम सीधे-सीधे लो और उस श्यामरूपको मनसे स्मरण करो।


मेरे माँ-बाप ! मुझे प्रत्यक्ष बनकर दिखाइये। आँखोंसे देख लूँगा तब तुमसे बातचीत भी करूँगा, चरणों में लिपट जाऊँगा। फिर चरणोंमें दृष्टि लगाकर हाथ जोड़कर | सामने खड़ा रहूंगा। यही मेरी उत्कट वासना है। नारायण! मेरी यह कामना पूरी करो।


तन, मन और वचनकी एकता रखनी चाहिये।


जो बाहरसे बहुत सुन्दर है पर जिसका मन मैला है; उससे तो कौआ अच्छा है जो बाहर-भीतर एक रंग है।


यह अच्छा है कि कभी-कभी हमारा विरोध हो और हमारे विषयमें लोगोंका बुरा या नीचा खयाल हो, यह भी जबकि हमारी नीयत और कार्य दोनों अच्छे हों।


जिनके करकमलोंमें मनोहर मुरलिका विराजमान हैं, जिनके शरीरकी आभा नूतन मेघके समान श्याम है, जो पुनीत पीताम्बरको धारण किये हैं, जिनका मुख शरद्के पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर है, नेत्र कमलके समान कमनीय हैं तथा अधर बिम्बाफलके समान लाल हैं, ऐसे श्रीकृष्णको छोड़कर मैं कोई दूसरा परतत्त्व नहीं जानता। मेरे सर्वस्व तो ये ही वृन्दावनविहारी श्री मुरलीमनोहर हैं।


जो परायी स्त्रियोंको माताके समान नहीं मानता वह महामूर्ख है। उसके पापका प्रायश्चित्त नहीं।


निरंतर भगवत्-तत्त्वका चिन्तन करो, नश्वर धनका चिन्तन छोड़ो। देखो, सारा संसार व्याधिरूप सर्पसे डसा जा रहा है और सब लोग शोकसे पीड़ित हो रहे हैं।


साधुसंगको धर्मका सर्वप्रधान अंग समझना चाहिये।


जो श्रद्धा और भक्तिसे भगवान्‌का पल्ला पकड़ता है, भगवान् उसका सारा भार अपने कंधेपर उठा लेते हैं और उसे तनिक भी कष्ट नहीं होने देते।


सत्यवादी मनुष्य यद्यपि आर्थिक दृष्टिसे दरिद्र है, किंतु वह वास्तविक राजा है।


सकुचकर ऐसे छोटे क्यों बन गये हो । ब्रह्माण्डका आचमन कर लो। पारण करके संसारसे हाथ धो लो । बहुत देर हुई, अब देर मत करो।


दिन-रात प्रपंचके लिये इतना कष्ट करते हो, भगवान्‌को क्यों नहीं भजते।


गुरु लाखों मिलते हैं, पर चेला एक भी नहीं मिलता। उपदेश करनेवाले अनेकों मिलते हैं, पर उपदेश पालन करनेवाले विरले ही।


सारी दुनिया तुझे अपना ऐश्वर्य और स्वामित्व भी सौंप दे तो तू फूल न जाना और सारी दुनियाकी गरीबी भी तेरे हिस्सेमें आ जाय तो उससे नाराज न होना। चाहे जैसी हालत हो, एक उस प्रभुका काम बजानेका ध्यान रखना।


ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष, प्राणिमात्रके साथ मैत्री और भगवान्‌की उपासना—ये सबके पालन करनेयोग्य धर्म हैं।


महात्मा सिद्धपुरुष ईश्वरके रूप होते हैं। वे केवल स्पर्शसे, एक कृपाकटाक्षसे, केवल संकल्पमात्रसे भी श्रद्धासम्पन्न साधकको कृतार्थ करते हैं। पर्वतप्राय पापोंका बोझ ढोनेवाले भ्रष्ट जीवको भी अपनी दयासे वे क्षणार्धमें पुण्यात्मा बना देते हैं।


हमें अपने ध्येयको नित्य स्मरण कर लेना चाहिये। और विशेष उत्साहसे अध्यात्ममें प्रवृत्त होना चाहिये। मानो हमारे संसारका यह प्रथम दिवस हो।


सब धर्मोंका आदर करो, पर अपने मनको अपनी ही धर्म-निष्ठासे तृप्त करो।


मेरा बस चले तो अपने निन्दकोंको खूब इनाम दूँ। कारण, उनके निन्दा और द्वेषसे तो मेरा हितसाधन ही होता है।


सावधान रहना! जो आदमी तुम्हारे आगे दूसरोंकी निन्दा करता है, वह दूसरोंके आगे तुम्हारी निन्दा अवश्य करता होगा। ऐसे आदमीकी बातोंमें मत फँसना, नहीं तो बड़ी भारी विपत्तिका सामना करना होगा।


जो मनुष्य श्रोताओंको मौखिक ज्ञानसे ही ईश्वरप्राप्तिका मार्ग दिखलाता है, वह तो उन्हें दुर्दशामें ही डालता है जो मनुष्य अपने उत्तम आचरणद्वारा भगवान्का मार्ग दिखलाता है वही सच्चा पथप्रदर्शक है।


विषय-सुखोंके त्यागद्वारा जो भय और राग-द्वेषसे छूट गया है वही त्यागी पुरुष संयमी कहलाता है।


जबतक ममत्व है तभीतक दुःख है। जहाँ ममत्व हुआ कि सब अपना-ही-अपना है। आसक्तिको छोड़कर व्यवहार करो, धन, स्त्री तथा कुटुम्बियोंमें अपनेपनके भावको भुलाकर दूर व्यवहार करो।


जब तुम्हारी ईश्वरकी ओर अनन्य दृष्टि हो जायगी तब तुरंत ही प्रभुके साथ तुम्हारा मिलन होगा और जब तुम अपने तुच्छ स्वार्थों तथा सांसारिक पदार्थोंकी ओर देखोगे तब तुरन्त ही भगवान्‌से तुम्हारा वियोग हो जायगा।


काम, क्रोध, लोभ, मोह आदिको छोड़कर यह देखो कि ‘मैं कौन हूँ!' आत्मज्ञानसे रहति मूर्खोको घोर नरकोंमें गिरना पड़ता है।


हम क्या चाहते हैं? ईश्वरका साक्षात्कार क्यों ? आत्मिक शान्तिके लिये। आत्मिक शान्ति क्यों चाहते हैं? दुःखोंसे छूटनेके लिये।


जो कर्म निष्काम होकर यज्ञभावनासे किया जाय, जिस कर्मसे जीव-जीवमें अभेदकी बुद्धि हो वही धर्म है।


अभी सोकर क्या करते हो। उठो, जागो और परमात्माको याद करो। एक दिन तो लंबे पैर पसारकर सभीको सोना है।


जो जी-जानसे भगवान्‌को चाहते हैं, वे अपने प्रेमको सावधानीसे बचाये रहें, प्रतिष्ठाको शूकरीविष्ठा समझ लें, वृथा वादमें न उलझें, अहंकारी तार्किकोंके संगसे दूर रहें और कोई ढोंग - पाखण्ड न रचें।


जो यहाँ बोओगे वही वहाँ काटोगे। यहाँ अच्छा करोगे, तो वहाँ अच्छा पाओगे।


संसार कालग्रस्त, नश्वर और दुःखरूप है। इसका सारा घटाटोप व्यर्थ है। भगवान् मिलें तो ही जन्म सफल है।


प्राणघात, चोरी और व्यभिचार-ये तीन शारीरिक पाप हैं; असत्य, निन्दा, कुटुभाषण और व्यर्थभाषण- ये चार वाणीके पाप हैं और परधनकी इच्छा, दूसरेके अनिष्टकी इच्छा तथा सत्य, अहिंसा, दया, दान आदिमें अश्रद्धा-ये तीन मानसिक पाप हैं।


भगवान्‌का आवाहन किया, पर इस आवाहनमें विसर्जनका कुछ काम नहीं। जब चित्त उसीमें लीन होता है तो गाते भी नहीं बनता।


पूर्व-दिशामें जितना ही चलोगे पश्चिम दिशा उतनी ही दूर होती जायगी। इसी प्रकार धर्मपथपर जितना ही अग्रसर होओगे, संसार उतनी ही दूर पीछे छूटता जायगा।


जैसे मरे हुए मनुष्यसे कोई ईर्ष्या नहीं करता, ऐसे ही जीते हुएसे भी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उस मनुष्यको और ईर्ष्या करनेवालेको एक-सा ही मरना है।


हरिकीर्तनमें भगवान्, भक्त और नामका त्रिवेणी संगम होता है।


वह प्रभु जो हमें संघर्षका अवसर देता है, सदा उसकी सहायता करनेके लिये तैयार है जो बहादुरीके साथ लड़ता है और उसके आशीर्वादमें विश्वास करता है।


बार-बार दुःख पानेपर भी मनुष्य विषयोंसे सुख पानेकी आशाको छोड़ता नहीं और बार-बार उन्हींको पकड़ता है। यही तो मोहकी महिमा है।