अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



सर्वदा सत्य बोलना चाहिये। कलिकालमें सत्यका आश्रय लेनेके बाद और किसी साधनका काम नहीं। सत्य ही कलिकालकी तपस्या है।


जो चेतनको जड़ और जड़को चैतन्य कर सकते हैं ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे ही धन्य हैं।


समस्त अनैक्यमें ऐक्यको उपलब्ध करना और सारी विभिन्नताओंमें एक अभिन्न सद्वस्तुको हृदयमें धारण करना ही भारतीय साधनाका अन्तिम लक्ष्य है।


कोई भी सम्प्रदाय इतना पवित्र नहीं, कोई भी स्थान इतना एकान्त नहीं जहाँ प्रलोभन और आपदाएँ न हों।


सभीके सामने अपनेको छोटा समझना स्वतः अन्याय संगत नहीं है; परंतु किसी एक भी आदमीके सम्मुख अपनेको बड़ा मानना अन्यायप्रियता है।


मनुष्यको चाहिये कि वह अपना काम देखे दूसरेके काममें नुक्ताचीनी न करे।


वासनाएँ संतको अपने झकोरेमें नहीं खींच सकतीं, वरं वह सच्चे विवेकके अनुकूल उन्हें अनुशासित करता है।


धन्य हैं सद्गुरु जिन्होंने गोविन्द दिखा दिया।


- जितनी समुद्रकी लहरें हैं उतनी ही मनकी दौड़ है। यदि मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्रकी-सी तरंगें न उठें, तो सहजमें हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जायँ।


जगत्में दो ही परमानन्दमें रहते हैं- (1) अबोध शिशु और (2) भगवत्-प्राप्त गुणातीत मुक्त पुरुष।


हौएसे डरना बचपनमें होता है। पर जो बच्चे नहीं हैं, उनके लिये हौआ क्या? वैसे ही मृत्युको भी कौन माने।


जवानी बुढ़ापेसे, आरोग्यता व्याधियोंसे और जीवन मृत्युसे ग्रसित हैं, पर तृष्णाको किसी उपद्रवका डर नहीं।


स्वामीके दरबारमें किसी चीजकी कमी नहीं है। उनके दरबारमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पदार्थ मौजूद हैं। उनके भक्त जो चाहते हैं उन्हें वही मिल जाता है।


- धनकी तीन गतियाँ हैं—दान, भोग और नाश। जो मनुष्य न तो दान देता है और न भोगता है, उसके धनका नाश हो जाता है।


जब- जब मनमें अशान्ति हो, तब-तब समझना चाहिये कि मैं भगवान्‌को भूल गया हूँ और इसलिये उस समय भगवान्का स्मरण करना चाहिये।


सब संत सद्गुरुस्वरूप ही हैं तथापि जैसे सब स्त्रियाँ माताके समान होनेपर भी स्तन-पान करानेवाली माता एक ही होती है, वैसे ही सब संत सद्गुरु-समान होनेपर भी स्वानुभवामृतपान करानेवाली ईश्वर-नियुक्त सद्गुरु-माता भी एक ही होती है और मुमुक्षु शिशु जब भूखसे व्याकुल होकर रोने लगता है, तब सद्गुरु-मातासे एक क्षण रहा नहीं जाता और वह दौड़ी चली आती और शिशुको अमृतपान कराती है।


यदि तुम दूसरोंको खुली तौरपर पाप करते देखते हो या बहुत भयंकर अपराध करते पाते हो, तो भी तुम्हें अपनेको उनसे अच्छा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि तुम नहीं जानते कबतक तुम इस अच्छी स्थितिमें रह सकोगे।


दिवसका पहला और आखिरी प्रहर प्रभुके गुणगान, पठन और गुण-श्रवणहीमें बिताना।


जो यह जानते हैं कि ईश्वर हमारा हर एक काम देखता है, वे ही बुरा काम करनेसे डर सकते हैं।


श्रीरामका स्मरण करते ही जो हृदय प्रेमसे पिघल नहीं उठता, वह फट जाय; जिन नेत्रोंमें आँसू नहीं आते, वे फूट जायँ और जो शरीर पुलकित नहीं होता, वह जल जाय।


चौपड़के खेलोंमें गोटीका मारना और जीना जैसा है, ज्ञानीकी दृष्टिमें जीवोंका बन्ध-मोक्ष भी वैसा ही है।


सहनशीलताके तीन लक्षण हैं- (1) निन्दाका त्याग, (2) निर्मल संतोष और (3) आनन्दपूर्वक ईश्वरकी आज्ञाओंका पालन।


ईश्वरका प्रकाश सबके हृदयमें समान होनेपर भी वह साधुओंके हृदयमें अधिक प्रकाशित होता है।


प्रेम सदा ही सहनशील और मधुर है, प्रेम ईर्ष्या नहीं करता, आत्मश्लाघा नहीं करता, गर्व नहीं करता, दुष्ट आचरण नहीं करता, स्वार्थकी चेष्टा नहीं करता, शीघ्र क्रोध नहीं करता, बुरा नहीं मानता अधर्ममें सुखी नहीं होता और सदा सत्यके साथ आनन्द करता है।


राम हृदयमें हैं; पर भ्रान्त जीव बाह्य विषयोंपर लुब्ध होते हैं।


कुल-कर्मको मिटाना हो, अपने साथ सबको मिट्टी में मिलाना हो, जीवतकका अन्त करना हो तो कोई कृष्णको वरण करे।


भूतदया ही संतोंकी पूँजी है।


मुझे अब यह नैहरका रहना अच्छा नहीं लगता। मेरे साईंकी नगरी कितनी सुन्दर है, जहाँ जाकर कोई लौटता नहीं।


धन्य है वह काल जो गोविन्दके संकल्प-वहन करता हुआ आनन्दरूप होकर बहा जा रहा है।


विपत्तिके समय ही हमें यह पता चलता है कि कितना अधिक धर्म या शक्ति हममें है।


देहको चाहे जितना सुख-दुःख हो भक्त उसका खयाल नहीं करते, उनकी वृत्ति एकमात्र भगवद्भक्तिमें लगी रहती है, वे नित्य भक्तिके ऐश्वर्यमें सराबोर रहते हैं।


विपत्ति असलमें उन्हींको विशेष दुःख देती है, जो उससे डरते हैं। जिसका मन दृढ़ हो संसारकी अनित्यताका अनुभव करता हो और हरेक बातमें भगवान्‌की दया देखकर निडर रहता हो; उसके लिये विपत्ति फूलोंके सेजके समान है।


रे मनुष्य! तू दीन होकर घर-घर क्यों भटकता है। तेरा पेट तो सेरभर आटेसे ही भर जाता है। भगवान् तो उस समुद्रको भी भोजन पहुँचाते हैं जिसका शरीर चार सौ को स लम्बा-चौड़ा है। संसारमें कोई भूखा नही रहता। चीटीं और हाथी सभीका पेट भगवान् भरते हैं। अरे मूर्ख! तू विश्वास क्यों नहीं करता।


अपने मुखको ज्ञान दर्पण में देखो, यदि सुन्दर है तो ऐसा काम मत करो जिससे उसपर धब्बा लगे और यदि कुरूप है तो सत्य, सेवा और परोपकार करके सुन्दर बनाओ।


कौड़ी-कौड़ी जोड़कर करोड़ रुपये इकट्ठे करो, पर साथ तो एक लँगोटी भी न जायगी।


सुखी वही है, जो भगवान्‌को प्यार करता है, क्योंकि भगवान् सर्वदा उसके साथ रहते हैं।


हृदयकी सरलता और निर्मलता ही ईश्वरीय ज्योति है, यह ज्योति ही ईश्वरके मार्गको दिखलाती है।


चित्तसे जबतक प्रपंच बिलकुल उतर नहीं जाता, तबतक परमार्थ नहीं सूझता, नहीं भाता, नहीं ठहरता। मनोभूमि जब वैराग्यसे शुद्ध हो जाती है, तब उसमें बोया हुआ ज्ञानबीज अंकुरित होता है।


भागवत्संकल्पके अनुसार ही सृष्टिके सब व्यापार हुआ करते हैं। सामान्य जीव सांसारिक दुःखोंकी चक्की में पीस दिये जाते हैं; पर वे ही दुःख भाग्यवान् पुरुषोंके उद्धारका कारण बनते हैं।


सगुण और निर्गुण दोनों ही जिसके अंग हैं, वही हमारे संग खेला करता है।


मुझसे आकर मिलोगे, दो-एक बातें करोगे तो इसमें तुम्हारा क्या खर्च हो जायगा।


जिसने अपना सारा हृदय प्रभुको अर्पण कर दिया है। और अपने शरीरको लोक-सेवामें लगा रखा है, वही सच्चा त्यागी, दाता और ज्ञानी है।


स्त्रियकि साथ बात करनेसे विकार बढ़ता है और स्पर्श करनेपर तो मानो वह पूरा बढ़ जाता है।


जो दिन आज है, वह कल नहीं रहेगा, चेतना है तो जल्दी चेत जा, देख मौत तेरी घातमें घूम रही है।


जो धर्मके नामपर छल या पाप करता है अथवा झूठे मतका प्रचार करके लोगोंको ठगता है, उसके समान दूसरा कोई पापी नहीं।


यदि कोई पिता या पुत्र मर जाता है तो मूढ़ लोग ही उसके लिये छाती पीटकर रोया करते हैं । ज्ञानियोंके लिये तो इस असार संसारमें किसीका वियोग होना वैराग्यका कारण होता है और वह सुख-शान्तिका विस्तार करता है।


जहाँ विषयोंकी चर्चा होती है, वहीं नरक है।


धीरे-धीरे धैर्य और दीर्घकष्टसे तुम सहज ही प्रलोभनोंको जीत लोगे।


ईश्वरकी सत्ता माने बिना धर्मकी जड़ ही सूख जाती है। ऐसा धर्म, जिसमें ईश्वरको स्थान नहीं है, घोर अधर्म है।


पवित्र धर्मग्रन्थोंमें कुतूहलकी अपेक्षा सत्यकी खोज होनी चाहिये। धर्मग्रन्थोंके प्रत्येक भागको उसी भावसे पढ़ना चाहिये जिस भावसे वह प्रारम्भ हुआ है । वाक्पटुताकी अपेक्षा धर्मशास्त्रोंमें हमें अपने आध्यात्मिक लाभकी बात खोजनी चाहिये।


सकाम नामस्मरण करनेसे वह नाम जो इच्छा हो वह पूरी कर देता है। निष्काम नामस्मरण करनेसे वह नाम पापको भस्म कर देता है।


जो बनानेवाला है, पालक है, हम उसे ही क्यों न प्रसन्न करें? ऐसी क्या वस्तु है जो उसकी प्रसन्नतासे नहीं मिल सकती? संसारमें हम किस किसको प्रसन्न करते फिरें।


भक्तोंके मेलेका जो आनन्द है, उसका कुछ भी आस्वाद अविश्वासीको नहीं मिलता। वह सिद्धान्नमें कंकड़ीकी तरह अलग ही रहता है।


जगदीश उन्हींको मिलते हैं जो गर्वसे दूर भागते और विवेकभ्रष्ट नहीं होते।


चन्दनके पेड़ जब उगते हैं, तभी वे अपने आसपास सुगन्ध नहीं फैला देते, जब उनकी कलम की जाती है, तभी वे चारों ओर अपनी सुगन्ध फैलाते हैं। इसी प्रकार संकटमें मनुष्यके गुणोंका विकास होता है।


सदा विनय और प्रेमपूर्वक ईश्वरका भजन करो। धर्मका अनुसरण और पूज्यभावसे सिद्ध पुरुषोंका समागम करो। सेवा और सम्मानपूर्वक साधुजनोंका संग करो। प्रफुल्ल बदनसे निर्दोष भ्रातृमण्डलके साथ रहो। अज्ञानी लोगोंके साथ दयालु हृदय और नम्र वाणीसे तथा नौकरों और घरके लोगोंके साथ सज्जनता तथा सुशीलतापूर्वक बर्ताव करो।


काल-देवता अपनी पत्नी कालीके साथ, संसाररूपी चौपड़में दिन-रातरूपी पासोंको लुढ़का- लुढ़काकर और इस जगत्के प्राणियोंकी गोटी बना-बनाकर खेल रहा है।


सच्चा पंडित वही है जो नित्य हरिको भजता है और यह देखता है कि सब चराचर जगत्में श्रीहरि ही रम रहे हैं।


जो धर्मके निगूढ़, आन्तरिक और आध्यात्मिक तत्त्वोंको प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि जन-रव और विश्वके कोलाहलसे दूर संतोंकी संगतिमें रहें।


नीतिको जाननेवाले, प्रारब्धको जाननेवाले, वेदके ज्ञाता और शास्त्रके ज्ञाता बहुत हैं, ब्रह्मको जाननेवाले भी मिल सकते हैं, परंतु अपने अज्ञानको जाननेवाले तो बिरले ही होते हैं।