जिसके उच्च कुलमें जन्म होनेका, कठोर तपका, ऊँचे वर्णका, सत्कर्मोंका, आश्रय और जातिका कोई भी अहंकार नहीं है, ऐसा पुरुष भगवान्को प्रिय होता है।
जो मनुष्य हर हालतमें अपनेको और तमाम वस्तुस्थितियोंको भगवान्में ही देखता है, वही तमाम वस्तुओंकी इच्छाका त्याग कर सकता है।
फलके बड़े होनेपर फूल अपने-आप गिर जाता है; इसी प्रकार देवत्वके बढ़नेसे नरत्व नहीं रहता।
दुःख - दारिद्र्य, रोग-शोक, ताप-संताप सभी आवे खूब आवें। किसी तरह भी डरो मत। यह सारी सौगात उस प्रियतमके घरसे ही तो आती है।
संतोंके उपकार माता-पिताके उपकारसे भी अधिक हैं। सब छोटी-बड़ी नदियाँ जिस प्रकार अपने नाम-रूपोंके साथ जाकर समुद्रमें ऐसी मिल जाती हैं जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो, उसी प्रकार त्रिभुवनके सब सुख-दुःख संतोंके बोधमहार्णवमें विलीन हो जाते हैं।
भाव-शुद्धि होनेपर हृदयमें जो श्रीहरि हैं उनकी मूर्ति प्रकट हो जाती है।
मनको प्रसन्न करना उसे विषय-प्रवाहसे खींचकर हरिभजनके लंगरमें बाँधना है। मनकी बड़ी रखवाली करनी पड़ती है, यह जहाँ-जहाँ जाय वहाँ-वहाँसे इसे बड़ी सावधानीके साथ खींच लेना पड़ता है।
उठो! श्रीकृष्णके चरणोंका वन्दन करो। लज्जा और अभिमान छोड़ दो, मनको निर्विकल्प कर लो और वृत्तिको सावधान करके हरिचरणोंका वन्दन करो।
सुगम मार्गसे चलो और सुखसे राम-कृष्ण-हरिनाम लेते चलो। वैकुण्ठका यही अच्छा और समीपका रास्ता है।
संसारमें बने रहो, पर हरिको न भूलो। हरिनाम जपते हुए न्याय नीतिसे सब काम करते चलो। इससे संसार भी सुखद होता है।
साधन-भजनके द्वारा मनुष्य ईश्वरको पाकर फिर अपने धामको लौट जाता है।
आशाएँ भी बहुत प्रकारकी हैं, परंतु जो आशा तुम्हें प्रभुकी राहपर चलावे, उसे तो मित्र ही मानना।
छायाको छोड़कर असली आनन्दको खोजो, तुम्हें शान्ति मिलेगी।
- श्रीहरि सब भूतोंमें रम रहे हैं, जल, थल, काठ, पत्थर सबमें विराज रहे हैं; पृथ्वी, जल, अग्नि, समीर, गगन इन पंच महाभूतोंको और स्थावर-जंगम सब पदार्थोंको व्यापे हैं। उनके ब्रह्माण्डमें दूसरी कोई वस्तु ही नहीं, यही शास्त्र सिद्धान्त है और यही संतोंका अनुभव है।
परद्रव्य और परनारीका अभिलाष जहाँ हुआ वहींसे भाग्यका हास आरम्भ हुआ।
मानव-प्रेमके पीछे बराबर ही एक तीखा स्वाद लगा रहता है। एकमात्र भगवत्प्रेम ही ऐसी चीज है जो कभी निराश नहीं करती।
जिस नन्दनन्दनने यमुनाके तटपर सब गोपोंको बचानेके लिये कालियका मथन किया, वह क्या शरण चाहनेवालोंको शरण नहीं देगा।
गीताका जिन्होंने उपदेश किया वही मेरे कन्हैया यहाँ खड़े हैं।
- पूरी लगनसे काम करके उसे ईश्वरको समर्पित कर देनेवाला ही सच्चा साधु है।
दोनों हाथ उठाकर भगवान् पुकारकर कहते हैं कि मेरे जो भक्त हैं, उनका मैं ही सहायक हूँ- 'न मे भक्तः प्रणश्यति'।
जो भक्तिसे रहित है, वह यदि सुवर्ण आदिसे भगवान्की पूजा करे, तो भी वे उसकी पूजा ग्रहण नहीं करते। सभी वर्णोंके लिये भक्ति ही सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है।
सर्वव्यापी ब्रह्ममें ही सुख है, अल्पपरिच्छिन्नमें सुख नहीं है। ब्रह्म स्वरूप ही है अतएव उसीकी जिज्ञासा करनी चाहिये।
संत किसीसे ईर्ष्या नहीं करता, क्योंकि वह व्यक्तिगत लाभकी कोई कामना ही नहीं करता, वह निरन्तर परमात्माके आनन्दमें ही प्रसन्न रहना चाहता है।
परमात्माके प्रेम और उसकी सेवाके बिना सभी कुछ व्यर्थ है, ढोंग है।
भगवान्के चरणोंमें संसारको समर्पित करके भक्त निश्चिन्त रहते हैं और तब वह सारा प्रपंच भगवान्का ही हो जाता है।
सत्कर्म करनेवालोंकी देवता भी सहायता करते हैं। और असत् मार्गपर चलनेवालेका साथ सगा भाई भी छोड़ देता है।
जो न तो दुनियाकी किसी चीजपर अपना बन्धन ही रखते और न खुद किसी बन्धनमें बँधते हैं, वे ही संत हैं।
भगवान्के पवित्र, सुन्दर और मनोहर नामोंका तथा उनके अर्थोंका ज्ञान और उनकी अलौकिक लीलाओंका लज्जा छोड़कर कीर्तन करते हुए श्रेष्ठ भक्तको आसक्तिरहित होकर पृथ्वीपर विचरण करना चाहिये।
तृष्णा विषयोंके संसर्गसे बेहद बढ़ती है।
जो भगवान्को छोड़कर दूसरे किसी पदार्थमें सुख मानता है, उसका तो मन ही दूषित है। उसके हृदयमें प्रभुविश्वास और पवित्रताकी ज्योतिका प्रकट होना कठिन है।
जैसे ठोस पहाड़ वायुसे विचलित नहीं होता, वैसे ही विद्वान् निन्दा या स्तुतिसे विचलित नहीं होते ।
अपनी तारीफ सुनकर उसका रस न लो और निन्दा सुनकर विषाद अथवा क्रोध न करो।
आहारमें जिसकी लालसा बढ़ती है वह साधनाके मार्गसे जल्दी ही दूर हो जाता है।
दीन बना रह, दुःखोंके प्रेरक भगवान् ही हैं ऐसा समझकर दुःखोंसे भेंट कर, तिरस्कारमें आनन्द मान, सुख आराम और रक्षाके लिये भगवान्पर ही निर्भर कर।
मार्गमें अंधेके आगे जैसे आँखवाला चलकर उसे रास्ता बताता है, उसी तरह संत महापुरुष भी धर्मका आचरण करके जो अज्ञानी हैं उन्हें धर्मका तत्त्व बतलाते हैं।
जो बिना जड़की अमर बेलको पालते हैं उन प्रभुको छोड़कर दूसरे किसकी खोज करनी चाहिये।
भगवान् संसारके आश्रय स्थल हैं, जगत्के बन्धु हैं, वे सभीके प्राणोंके रक्षक हैं, सर्वथा प्रेममय हैं, इसी कारण सबमें अभेद-भाव रखते और सबकी रक्षा करते हैं, उनका स्नेह सबपर समान रहता है। इस बातको ज्ञानी जानते हैं, इसीसे वे प्रेम रखते हैं, मूढ़ इस रहस्यको नहीं जानते, इसीलिये उनसे द्वेष करते हैं।
जो जितना छोटा है वह उतना ही घमण्डी और उछलकर चलनेवाला है, जो जितना ही बड़ा और पूरा है, वह उतना ही गम्भीर और निरभिमानी है, नदी-नाले थोड़े-से जलसे इतरा उठते हैं; किंतु सागर, जिसमें अनन्त जल भरा है, गम्भीर रहता है।
जो ईश्वर-प्रेमी हो गया वह संसार- प्रेमी नहीं हो सकता। संसार- प्रेमी जबतक संसारकी असारता और दुःखरूपताका अनुभव नहीं करता, तबतक वह ईश्वर-प्रेमी नहीं हो सकता।
भगवदाश्रय और भगवन्नामसे पापोंका समूल नाश हो जाता है, यह निश्चित है।
ग्राम्यकथा कभी श्रवण नहीं करनी चाहिये। ग्राम्यकथा सुननेसे चित्तमें वे ही बातें स्मरण होती हैं जिससे भजनमें चित्त नहीं लगता।
काय, वचन, मनसे मैं हरिदासोंका दास हूँ।
विषयोंको चाहे जितने दिनोंतक क्यों न भोगो, वे एक दिन तुम्हें निश्चय ही छोड़ देंगे, तो उन्हें तुम स्वयं ही क्यों न छोड़ दो? तुम्हारे छोड़नेसे तुम्हें अनन्त सुख मिलेगा और उनके छोड़नेसे तुम्हें अत्यन्त दुःख उठाना पड़ेगा।
बुढ़ापा हमारे शरीरको निर्बल और रूपको कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बलका नाश करता है तथा मृत्यु सिरपर मँडराती है ऐसी दशामें मित्रवर! कहीं सुख नहीं है। अगर सुख सच्चा सुख चाहते हो तो भगवान्का भजन करो।
जिन्हें ईश्वरकी स्तुति और ईश्वरका स्मरण करनेके बदले लोगोंको शास्त्रवचन सुनाना ही अच्छा लगता है, प्रायः उन सबका ज्ञान बाहरी-नकली है, उनका जीवन सारहीन है।
भगवान्का निग्रह और अनुग्रह दोनों ही बड़े विचित्र हैं। उनके निग्रहमें भी अनुग्रह है। उनकी लीला कौन जान सकता है।
सारे छल-कपट छोड़कर श्रीरामसे प्रेम करो। अरे, जो स्वामी सारा शरीर देख चुका है, उससे छिपाना क्या है।
जो पासमें धन रहनेपर भी अपने भाइयोंकी दीन अवस्थापर तरस नहीं खाता और सहायता नहीं करता, उसके हृदयमें प्रभुका प्रेम कैसे हो सकता है।
जो श्रीकृष्ण नामके उच्चारणरूपी पथ्यका कलियुगमें कभी त्याग नहीं करता, उसके चित्तमें पापरूपी रोग पैदा नहीं होते श्रीकृष्णका नाम-कीर्तन करते हुए मनुष्यकी आवाज सुनकर दक्षिण दिशाके अधिपति यमराज उसके सौ जन्मोंके पापोंका परिमार्जन कर देते हैं।
दो चीजें मनुष्यका विनाश करनेवाली हैं- (1) मान-बड़ाईके लिये दौड़ना है और (2) निर्धनतासे डरना।
जिसके हृदयमें भगवत्प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे फिर अन्य संसारी बातें भली ही किस प्रकार लग सकती हैं? जिसकी जिह्वाने मिश्रीका रसास्वाद कर लिया है, फिर वह गुड़के मैलको आनन्द और उल्लासके साथ स्वेच्छासे कब पसंद कर सकता है।
प्रलोभनों और विपत्तियोंमें ही मनुष्यकी सच्ची परीक्षा होती है और इसके कारण परमात्माका आशीष भी अधिक मिलता है तथा उसके सद्गुण और अधिक विशेषतासे चमक उठते हैं।
सच्चा अनुताप और शुद्ध सात्त्विक वैराग्य यदि न हो तो श्रीकृष्णपद प्राप्त करनेकी आशा करना केवल अज्ञान है।
तुम अपनी प्रत्येक वासनाको जीत सकते हो, क्योंकि तुम उसी अनन्त परमात्माके ही अंश हो जिसकी शक्तिका सामना कोई नहीं कर सकता।
श्रीहरिके चरणोंकी सेवा मनुष्योंको स्वर्ग, मोक्ष, इस लोककी महान् सम्पत्ति और सब प्रकारकी सिद्धियोंको देनेवाली है।
पहले ईश्वरको प्राप्त करनेकी चेष्टा करो। गुरुवाक्यमें विश्वास करके कुछ कर्म करो। गुरु न हो तो भगवान्के पास व्याकुल प्राणसे प्रार्थना करो। वह कैसे हैं यह उन्हींकी कृपासे मालूम हो जायगा।
अपनी जीभको निन्दा - स्तुतिसे सदा दूर रखो। हे युवको! जबतक तुम बूढ़े और कमजोर नहीं हो जाते तभीतक अपने जीवनके मुख्य कामको पूरा कर लो। बुढ़ापेमें यह काम नहीं होगा।
जिसकी दृष्टिमें जन्म और मरण समान हैं वही सच्चा साधु है।
हमलोग प्रायः नहीं जानते कि हम क्या करनेयोग्य हैं, परंतु प्रलोभन हमें दिखा देते हैं कि हम वस्तुतः क्या हैं।
जैसे रास्तेमें दूरसे पहाड़ियोंको देखकर मुसाफिर घबरा उठता है कि मैं इन्हें कैसे पार करूँगा, लेकिन पास पहुँचनेपर वे उतनी कठिन नहीं मालूम होतीं, यही हाल विपत्तियोंका है। मनुष्य दूरसे उन्हें देखकर घबरा उठता है और दुःखी होता है, लेकिन जब वे ही सिरपर आ पड़ती हैं तो धीरज रखनेसे थोड़ी-सी पीड़ा पहुँचाकर ही नष्ट हो जाती हैं।