जैसे एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काठोंमें प्रवेश करके अनेक प्रकारके रूपवाला हो जाता है, इसी प्रकार एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न भूतोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारका हो जाता है।
जब तुम दिलके मकर छोड़कर सीधे हो जाओगे तब तुम्हारे सारे काम अपने आप ही सीधे हो जायँगे।
ओह! यदि तुम केवल सोचते कि अपने सद्व्यवहारसे तुम्हें कितनी आन्तरिक शान्ति मिलती और दूसरोंको कितना आनन्द दे सकते तो मैं मानता हूँ कि तुम अपनी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर विशेष सचेष्ट रहते।
मनुष्य ! उस दिनको याद रख जिस दिन तेरी देह छूट जायगी और गंगातटपर जाकर जला दी जायगी, यहाँका न कुछ संग जायगा और न कोई सहायक होगा।
कामातुर मनुष्य ही कंगाल है। जो सदा संतुष्ट है, वह यथार्थ धनी है। इन्द्रियाँ ही मनुष्यत्वकी शत्रु हैं। विषयोंका अनुराग ही बन्धन है। संसार ही मनुष्यका चिररोग है । संसारसे निर्लिप्त होकर रहना ही इसकी एकमात्र दवा है।
रागके समान आग नहीं, द्वेषके समान भूत-पिशाच नहीं, मोहके समान भयंकर जल नहीं और तृष्णाके समान भीषण नदी नहीं।
चंचल मनसे सिद्धि दूर भागती है।
पोथियोंके पण्डित धर्मका उपदेश दूसरोंको सुनानेमें ही लगे रहते हैं; किंतु सच्चे साधु अपने-आपको सुनाते हैं और स्वयं उसपर आचरण करते हैं।
मेरे स्वामी! जगत्के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर अबतक आपको पूर्णतः तृप्त नहीं कर सके ! परंतु आपने व्रजकी गायों और ग्वालिनोंके बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनोंका अमृत-सा दूध बड़े उमंगसे पान किया है। कितनी बड़भागिनी हैं वे।
अधर्मके द्वारा इकट्ठी की हुई सम्पत्तिकी अपेक्षा सदाचारी पुरुषकी दरिद्रता कहीं अच्छी है।
जो मनुष्य सम्पत्तिका सदुपयोग नहीं कर सकता, उसकी सम्पत्ति इतनी जल्दी नष्ट होगी कि पता ही नहीं लगेगा।
जिस प्रकार पारसके स्पर्श होते ही लोहा सोना हो जाता है, समुद्रमें बूँद गिरते ही उसमें मिल जाती है और गंगामें कोई नदी मिलते ही वह गंगा हो जाती है, उसी प्रकार सावधान, उद्योगी और दक्ष पुरुष संतोंकी संगति करते ही मोक्षको पा जाता है।
मेरा चित्त, वित्त, पुण्य, पुरुषार्थ सब कुछ श्रीहरि हैं।
वैराग्य परमार्थकी नींव है।
दारा, सुत, गृह, प्राण सब भगवान्को अर्पण कर देना चाहिये। यह पूर्ण भागवत धर्म है। मुख्यतः इसीका नाम भजन है।
स्वामीपनमें नम्रता, गुणोंमें प्रेम, हर्षमें सावधानता, मन्त्रमें गुप्तता, शास्त्रोंमें सुबुद्धि, धन होनेपर उदारता, साधुओंका सम्मान, दुष्टोंसे विमुखता, पापोंसे भय, दुःखमें कष्टसहिष्णुता ये सब कल्याण चाहनेवाले महात्माओंके गुण हैं।
अहा ! जिसे वास्तविक दयाका एक कण भी प्राप्त है वह निश्चय ही समझ जायगा कि सभी सांसारिक पदार्थ अनित्यतासे ओतप्रोत हैं।
भगवन् ! मेरा मन अपने अधीन करके बिना दान दिये स्वामित्व क्यों नहीं भोगते।
आत्मजयसे बढ़कर और कोई विजय नहीं है। वहीं है समस्त स्थायी सुखोंका आधार।
जहाँ उपदेश अधिक होता है, वहाँ गम्भीरता कम होती है, जहाँ गम्भीरता अधिक होती है, वहाँ उपदेश कम होता है।
जो मनुष्य सुनकर, स्पर्शकर, देखकर, खाकर,सुँघकर न तो प्रसन्न होता है और न उदास होता है, उसे और जितेन्द्रिय जानना चाहिये।
जिसने अपनी वासनाओंको पूरी तरह जीत नहीं लिया है वह शीघ्र ही फिसल जाता है और छोटी तथा नगण्य चीजोंसे भी पराजित हो जाता है।
भगवान्की आचारसहित भक्ति सब योगोंका योगगह्वर, वेदान्तका निजभाण्डार, सकल सिद्धियोंका परम सार है।
कटिमें सुवर्णाम्बर सुशोभित हो रहा है और गलेमें पैरोंतक वनमाला लटक रही है, उन सुन्दर मधुर घनश्यामको देखते हुए नेत्रोंसे मानों प्राण निकल पड़ते हैं।
भगवान् दुःख नहीं देते, दुःख निवारणका उपाय करते हैं, परंतु हम अपनी नासमझीके कारण उसको दुःख मानने लगते हैं।
खोल, खोल, आँखें खोल। बोल अभीतक क्या आँख नहीं खुली ? अरे, अपनी माताकी कोखसे क्या तू पत्थर पैदा हुआ ? तैंने जो यह नर-तनु पाया है, यह बड़ी भारी निधि है, जिस विधिसे कर सके इसे सार्थक कर। संत तुझे जगाकर पार उतर जायँगे, तू भी पार उतरना चाहे तो कुछ कर।
अरे मूर्ख ! तू इस बालूके घरमें रहकर भी बरसों जीनेकी-इस घरमें रहनेकी- आशा करता है। अरे नादान! होश।
वर्णोंमें चाहे कोई सबसे श्रेष्ठ क्यों न हो, वह यदि हरिचरणोंसे विमुख है तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है जो प्रेमसे भगवद्धजन करता है।
नियम, धर्म, आचार, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं; किंतु बिना राम-कृपाके भवरोग नष्ट नहीं होता।
यमुनाजीका सुन्दर पुलिन हो, वृन्दावनके सुन्दर वनोंमें वंशी बजाते हुए हलधर और सुदामा आदि प्यारे गोपोंके सहित आप विचरण कर रहे हों। हे मेरे प्राणनाथ! हे मेरे मदन मोहन! ओ मेरे चितचोर ! मेरे ऐसे दिन कब आवेंगे, जब मैं तुम्हारी इस प्रकारकी छबिको हृदयमें धारण किये पागलोंकी भाँति कृष्ण-कृष्ण चिल्लाता हुआ अपने जीवनका सम्पूर्ण समय निमिषकी नाईं बिता दूँगा।
विषय-भोग, आयु और यौवनको अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मनको एकाग्र करके हर क्षण परमात्माका भजन करो जिससे जन्म-मरणसे छुटकारा मिल जाय और परमात्माकी प्राप्ति हो जाय।
पिताके कर्जको चुकानेवाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परंतु भव-बन्धनको छुड़ानेवाला तो अपने सिवा और कोई नहीं है।
जो इस नाशवान् संसारमें आसक्त नहीं है, वही अनुभवसिद्ध ज्ञानी ऋषि है। तल्लीन होकर ईश्वरका गुण गाना, मत्त होकर संगीत सुनना और प्रभुकी अधीनता मानकर काम करना ही संतका धर्म है।
अरी बुद्धि चकवी! तू भगवान्के चरण- सरोवरमें तू जा बस, जहाँ न तो कभी प्रेम-वियोग होगा और न रोग, दुःख या शोक ही है तथा रात-दिन 'राम राम' की वर्षा हो रही है।
बस, यही करना है कि हम केवल भगवान्पर निर्भर करना सीख लें; अपना सब कुछ उन्हें सौंपकर उनके हाथकी कठपुतली बन जायँ। वे जब, जो, जैसे करें— उसीमें हमें आनन्दका अनुभव हो।
सब धर्मोंका मूल दया है, परंतु दयाके पूर्ण विकासके लिये क्षमा, नम्रता, शीतलता, पवित्रता, संयम, संतोष, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन दस धर्मोका सेवन करना चाहिये।
जन्मके पहले तू ईश्वरका जितना प्यारा था, उतना ही मृत्युपर्यन्त बना रहे ऐसा आचरण कर।
एकान्तवास, गंगास्नान, देवपूजन, तुलसी परिक्रमा नियमपूर्वक करते हुए हरिचिन्तनमें समय व्यतीत करे।
(1) मुक्ति कब होती है? जब तमाम जंजाल छूट जाते हैं। (2) निर्भरता किसे कहते हैं? जब सब कुछ ईश्वरपर छोड़ दिया जाय (3) अधीनता किसे कहते हैं? जब प्रत्येक कार्य ईश्वरके अर्पण हो।
सारे सद्गुण विनयके अधीन हैं, विनय नम्रतासे आती है। अतएव जो पुरुष नम्र है वही सद्गुण सम्पन्न होता है।
अगर तुम दुःखसे सर्वथा रहित दशाको प्राप्त करना चाहते हो तो संसारको प्रणाम करके चल निकलो और स्वर्गसे भी नौ गज दूरसे ही प्रणाम करके हटे रहो। इस लोक और परलोकके छोड़े बिना परमधाम नहीं मिलता।
जो आत्मनिष्ठ हैं तथा जो आत्माके सिवा कुछ भी नहीं चाहते, वे विषयी मनुष्योंकी भाँति रमणीय वस्तुकी प्राप्ति हर्षित नहीं होते और दुःखरूप वस्तुकी प्राप्तिमें उद्विग्न नहीं होते।
ईश्वरका स्मरण करो तो ऐसा कि फिर दूसरी बार उसे याद ही न करना पड़े।
नि:सार है यह संसार । यहाँ सार केवल भगवान् हैं।
प्रत्येक कामको करते समय याद रखना कि मैं जो काम कर रहा हूँ उसे ईश्वर देख रहा है, मैं जो कुछ बोल रहा हूँ उसे ईश्वर सुन रहा है। मौन धारण करते समय भी उसका कारण ध्यानमें रखना, क्योंकि ईश्वर उसे भी जानता है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और दम्भसे रहित दयालु, सत्यवादी और सबका हित करनेवाले ही वैष्णव हैं।
अपने कर्तव्यको पूरी तरह सचाईके साथ कर चुकनेपर, यदि तुम्हें समय मिले तो अपनेको अपने भीतर ले जाओ अपनी साधना और अपनी उपासनाके अनुसार।
विद्वत्ताकी गहरी खोजकी अपेक्षा अपने निजका विनम्र ज्ञान परमात्माके पथमें अधिक निश्चयपूर्वक ले जानेवाला है।
जो त्रिलोकीके सम्पूर्ण वैभवके लिये भी आधे क्षणके लिये देवदुर्लभ भगवान्के चरणकमलोंके ध्यानको नहीं छोड़ता, वही सच्चा भक्त है।
प्रभु प्रेमीके लक्षण क्या हैं? (1) प्रभु-प्रेमीको इस लोक और परलोकके कोई भी पदार्थ अच्छे नहीं लगते, (2) उसका अन्तःकरण प्रभुकी महिमा और चिन्तनमें डूबा रहता है, (3) उसके मनमें प्रभुकी सेवाको छोड़कर कोई वासना नहीं रहती, (4) अपने परिवारमें रहकर खाता-पीता, बोलता चालता और उठता बैठता हुआ भी वह अपनेको विदेशी मेहमान ही मानता है, क्योंकि उसका जिस परम सखा प्रभुके साथ प्रेम है, वह उसे वहाँसे हटने ही नहीं देता, इस भेदको कोई अनुभवी ही जानते हैं।
मुँहमें राम बगलमें छुरी मत रखो।
एक ईश्वर ही सबका गुरु है।
अंदरके रोगकी पाँच दवाइयाँ- (1) सत्संग, (2) धर्मशास्त्रका अध्ययन, (3) अल्प आहार-विहार, (4) सुबह शामकी उपासना और (5) जो कुछ करना हो सो एकाग्रताके साथ सारी शक्ति लगाकर करनेकी पद्धति।
सद्गुरुका सहारा जिसे मिल गया, कलिकाल उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
किसीके बन जाओ, स्वामी बना लो। स्वामी समर्थको बनाओ। सबसे समर्थ हैं- भगवान्। भगवान्के बन जाओ। भगवान्से विवाह कर लो। हाथ पकड़ लो। वे पकड़ा हुआ हाथ नहीं छोड़ते। दयालु हैं, समर्थ हैं, देखो, अगर तुम छोड़ भी दोगे तो याद रखो, भगवान्के बन जानेपर भगवान् कभी भूलते नहीं । छोड़ते नहीं।
सूर्य और चन्द्रको रात-दिन चक्कर लगाने हैं। एक दिन क्या एक क्षण भी स्वेच्छानुसार ये आराम नहीं कर सकते, तब हम और आप तो किस गिनतीमें हैं।
जो विपत्तिसे डरते हैं, वह उन्हींपर ज्यादा आती है, जो मनको दृढ़ रखते हैं और आनेवाले हरेक सुख-दुःखको भगवान्का दान समझकर प्रसन्नतासे रहते हैं, उनके लिये विपत्ति कोई चीज नहीं।
हे मनुष्य ! जोशमें आकर इतना जोश-खरोश न दिखा; इस दुनियामें बहुत-से दरिया चढ़-चढ़कर उतर गये कितने ही बाग लगे और सूख गये।
हम यदि अपने आसुरी गुणोंसे ही दूसरेके साथ बर्ताव करेंगे, तो उसके अंदरसे भी वे आसुरी गुण निकलकर बर्ताव करने लगेंगे।