नर-जन्मकी सार्थकता भगवान्के मिलनमें ही है।
घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधनकी चिन्तामें बड़े-बड़े मतिमानोंकी उम्र पूरी हो जाती है। इसीसे मनुष्यको ईश्वर-भजनका समय नहीं मिलता।
दुर्गुण एवं दुराचारका त्याग और सद्गुण एवं सदाचारका सेवन शुद्ध सात्त्विक जीवनका स्वरूप है।
भोगोंमें रोगका भय है, कुलमें च्युत होनेका भय है, धनमें राजाका भय है, मौनमें दीनताका भय है, बलमें बैरीका भय है, रूपमें बुढ़ापेका भय है, शास्त्रमें विवादका भय है, गुणोंमें दुष्टोंका भय है, शरीरमें मृत्युका भय है, इसी प्रकार संसारकी सभी वस्तुओंमें मनुष्योंको कोई-न-कोई भय है। केवल एक 'वैराग्य' में कोई भय नहीं है।
सचमुच ही परमात्मन्! तुमसे ही तो मैं निकला हूँ। तब तुमसे अलग कैसे रह सकता हूँ।
अपने-आपको बड़ा न समझो, वरं अपना विश्वास परमात्मामें रखो। अपनी शक्तिभर परिश्रम करो, परमात्मा तुम्हारे सत्कार्यमें सहायता देगा। दूसरोंसे गरीब समझे जानेमें लज्जित न होओ।
बच्चा जब बापका पल्ला पकड़ लेता है तब बाप वहीं खड़ा रह जाता है, इसलिये नहीं कि बाप इतना दुर्बल है, बल्कि इस कारणसे कि वह स्नेहमें फँसकर वहीं गड़ जाता है। प्रीतिकी यही निराली रीति है।
अच्छी हालतमें सभी बन्धु हैं, बुरी हालतके बन्धु दुर्लभ हैं। जो बिगड़ी हालतका साथी है, वही सच्चा बन्धु है। मित्र वही जो विपत्तिके समय मनुष्यका साथ दे, न कि बीती हुई बातोंके लिये उलाहना देनेमें ही सिर खपावे।
जो मनुष्य संसारको नाशवान् और भगवान्को सदाका साथी समझकर चलता है, वही उत्तम गति पाता है। जो नाशवान् चीजोंका मोह छोड़कर, संसारका भार प्रभुपर छोड़कर भाररहित हो जाता है, वह सहज ही संसार सागरसे तर जाता है।
जो सत्यपर कायम है वह परमेश्वरकी ज्योतिके समीप जाता है और जो बुराई करता है वह उस ज्योतिका शत्रु है। अतएव बुराई छोड़ो और सचपर डटे रहो।
इन चार बातोंके बारेमें आत्मपरीक्षण करते रहना (1) कोई भी शुभ कर्म करते समय तुम निष्कपट हो न ? (2) जो 'कुछ बोल रहे हो निःस्वार्थभावसे ही न ? (3) जो दान-उपकार कर रहे हो बदलेकी आशाके बिना ही न ? (4) जो धनसंचय कर रहे हो कृपणता छोड़कर ही न।
दिन-रातका पता नहीं। यहाँ तो अखण्ड ज्योति जगमगा रही है। इसका आनन्द जैसे हिलोरें मारता है; उसके सुखका वर्णन कहाँतक करूँगा।
संसारकी सारी स्थितियोंसे अन्तःकरणको मुक्त करके सच्चिदानन्द प्रभुमें ही शान्ति खोजना और प्राप्त करना मनुष्यका सच्चा धर्म यही है।
विषयी लोगोंकी बातें करनेसे चित्त विषयमय बन जाता है।
चाहे कोई कितना ही दिमाग खर्च करे, वह चीनीको फिरसे ऊख नहीं बना सकता। ठीक उसी प्रकार भगवान्को पाकर कोई जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ सकता।
बच्चेको उठाकर छातीसे लगा लेना ही माताका सबसे बड़ा सुख है। माता उसके हाथमें गुड़िया देती और उसके कौतुक देख अपने जीको ठंढा करती है। उसे आभूषण पहनाती और उसकी शोभा देख परम प्रसन्न होती है। उसे अपनी गोदमें उठा लेती और टकटकी लगाये उसका मुँह निहारती है। माता बच्चेका रोना सह नहीं सकती।
सिद्धियोंके मनोरथ केवल मनोरंजन हैं, उनमें परमार्थ नहीं, प्रायः बने हुए लोग ही सिद्धियोंका बाजार लगाते हैं और गरीबोंको ठगते हैं।
प्रभु जिसके लिये जो मार्ग ठीक है वह दिखा देता है। वह बड़ा दयालु है।
नाम-स्मरण यह है कि चित्तमें रूपका ध्यान हो और मुखमें नामका जप हो । अन्तःकरणमें ध्यान जमता जाय, ध्यानमें चित्त रँगता जाय, चित्तकी तन्मयता होती जाय, यही वाणीमें नामके बैठ जानेका लक्षण है।
फकीरीकी शोभा तीन बातोंमें है- (1) हृदयकी विशालता, (2) अन्तःकरणकी शान्ति और (3) निष्पापबुद्धि।
'मैं 'की भाषा ही भक्त नहीं जानता, 'मेरा' कुछ भी नहीं कहता और सुख - दुःख क्या होता है, यह भी वह नहीं जानता।
जो धनपर भरोसा करते हैं, उनके लिये परमेश्वरके राज्यमें प्रवेश करना ऊँटका सूईके छेदसे निकल जानेसे भी अधिक कठिन है।
- एक ईश्वरको पकड़े रहनेसे इहलौकिक, पारलौकिक अनेकों लाभ होते हैं, पर ईश्वरको त्यागते ही जीवका सब कुछ व्यर्थ हो जाता है।
अपने बन्धु-बान्धव और पड़ोसियोंका उनकी सच्ची प्रशंसा करनेके अवसरको छोड़कर जहाँतक बने कभी जिकर ही न करो।
मनकी तरंगोंको रोकनेमें बड़ा आनन्द है। इस आनन्दका अनुभव नहीं हुआ, इसीलिये मनुष्य विषयोंके आनन्दके पीछे भटकता है।
जिसका (साधन) यहाँ ठीक है उसका वहाँ भी ठीक है और जिसका यहाँ नहीं है उसका वहाँ भी नहीं है।
मुझ अनाथके लिये हे नाथ! अब तुम एक बार चले ही आओ।
जो गये हुएका स्मरण नहीं करता, मिले हुएकी इच्छा नहीं रखता, अन्तःकरणमें मेरुके समान अचल रहता है, जिसका अन्तःकरण मैं-मेरा भूला रहता है वही निरन्तर संन्यासी है।
तन-मन तेरे ही चरणोंमें शरणालंकृत किये हैं। रुक्मिणीदेवी - वर मेरे बाप हैं। मैं और कुछ नहीं जानता।
प्रभुकी प्राप्तिके लिये दीनता और हीनताके समान सहज मार्ग नहीं है।
सबसे प्रेम बढ़ाइये, 'मेरे द्वारा दूसरेका कैसे हित हो'- निरन्तर यही बात सोचते रहिये और यथाशक्ति सबकी सेवा सहायता कीजिये।
प्रभो ! सभी वैद्य चुप, शान्त हो जायँ, तुम्हारे सभी जीव चुप रहें, तुम केवल हमसे बोलो।
चारों वेद जिसकी कीर्ति बखानते हैं, योगियोंके ध्यानमें जो एक क्षणभरके लिये भी नहीं आता, वह ग्वालिनोंके हाथ बँध जाता है, भावुक ग्वालिनें उसे पकड़ रखती हैं । इन भक्तिनोंके पास वह गिड़गिड़ाता हुआ आता है और सयाने कहते हैं कि वह तो मिलता ही नहीं।
ईश्वरका कहना है जब मैं अपने दासपर प्रेम करता हूँ तब मैं खुद उसकी आँख, कान और हाथ आदि बन जाता हूँ। मेरा दास मेरे द्वारा ही देखता है, सुनता है, बोलता है और मेरे द्वारा ही सारा लेन-देन करता है।
अपना हृदय श्रीहरिको दे डाले। चित्त हरिको देनेसे वह नवनीतके समान मृदु होता है।
मानसिक पूजा ही सर्वश्रेष्ठ पूजा है।
हरि-प्रेमका चसका बढ़नेसे रसना रसीली हो जाती है। इन्द्रियोंकी दौड़ थम जाती है, अनुपम सुख स्वयं घर ढूँढता हुआ चला आता है।
सत्संगके बिना जो साधन है, वह साधकोंको बाँधनेवाला कठिन बन्धन है। सत्संगके बिना जो त्याग है, वह केवल पाखण्ड है।
बहुत प्रश्न करना बुद्धिमानी नहीं है। महात्मासे एक ही बात पूछ लो और जी-जानसे उसका पालन करो।
नम्र और सरल व्यक्तियोंकी संगतिमें रहो, दृढ़ और धर्मात्माके साथ रहो, उनके साथ ऐसी बातोंके सम्बन्धमें सम्भाषण करो जो तुम्हें उन्नत बना सकें। किसी स्त्रीके साथ परिचित मत होओ।
इस तनके अंदर ही तो वह सिंहासन है जिसपर हमारा शाहोंका शाह आसीन है। जहानमें जितने भी जीव हैं वहींसे वह सबका मुजरा लिया करता है।
यों तो संसारमें जरा भी सुख नहीं-सर्वत्र भय ही भय है, पर दुष्ट और नीचोंका भय सबसे भारी है।
कामिनी और कंचन ही माया हैं। इनके आकर्षणमें पड़ने पर जीवकी सब स्वाधीनता चली जाती है। इनके मोहके कारण ही जीव भव - बन्धनमें पड़ जाता है।
जिसकी कहीं गति नहीं, उसके लिये एकमात्र अवलम्बन राम-नाम है।
संसारका बोझ सिरपर लादे हुए दौड़नेमें बड़े खुश हैं। अरे निर्लज्ज अपने संसारीपनपर - बैलकी तरह इस बोझके ढोनेपर इतना क्यों इतराता है।
संतोष बड़ी-से-बड़ी दौलतसे भी अच्छा है।
ईश्वरसे डरना भाग्यशाली बननेका लक्षण है। पाप करते रहकर भी ईश्वरकी दयाकी आशा रखना दुर्भाग्यकी निशानी है।
प्रभुके मार्गमें प्राणतक देनेकी तैयारी न हो तो उसके प्रति प्रेम है, ऐसा मानना ही नहीं चाहिये।
स्वामीके जीते रहते ही जो स्त्री ब्रह्मचर्य धारण करती है, वह नारी नहीं है, वह तो साक्षात् भगवती है।
तुम परमेश्वर और भोग दोनोंकी सेवा नहीं कर सकते। विषय न बटोरो। कलके लिये चिन्ता न करो। कल अपनी चिन्ता आप करेगा।
संसार कुत्तोंकी चाट जैसा है। बहुत-से कुत्ते एक जगह इकट्ठे होकर पत्तल चाटा करते हैं, परंतु जो मनुष्य निरन्तर भोग-विलासमें रचा-पचा रहता है, वह तो कुत्तोंसे भी अधम है, क्योंकि कुत्ते तो खा लेनेके बाद चाटसे दूर हट जाते हैं, पर यह मनुष्य तो वहाँ का वहाँ ही खड़ा रहता है।
उसे कोई राम कहे या रहमान कहे, कृष्ण कहे या महादेव कहे- हैं ये सब एक ब्रह्महीके नाम।
जिसके मनमें कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदयमें रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान्के समान ही है।
वैराग्य ईश्वर-प्राप्तिका गूढ़ उपाय है। उसे तो गुप्त रखने में ही कल्याण है। जो अपने वैराग्यको प्रकट करते हैं उनका वैराग्य उनसे दूर भागता है।
स्वानुभूति ज्ञानकी परम सीमा है। वह स्वानुभूति ग्रन्थोंसे नहीं प्राप्त हो सकती, पृथ्वी पर्यटन करनेसे नहीं मिलती। स्वानुभवका यथार्थ रहस्य श्रीगुरुकी कृपाके बिना त्रिकालमें भी नहीं ज्ञात होगा।
शत्रुपर भी प्रेम रखो; भगवान्को प्रसन्न करनेका यह बड़ा अच्छा साधन है।
मैं प्रभुका दास हूँ, मैं उसकी संतान हूँ, मैं उसका अंश हूँ-ये सतत अहंकार अच्छे हैं। ऐसे अभिमानसे भगवान् मिलते हैं।
ईश्वरके प्रेमियोंके लिये है उसका स्नेह और पापियोंके लिये है उसकी दया।
ईश्वरका भय मनका दीपक है। इस दीपक के प्रकाशसे मनुष्य अपने गुण-दोष भलीभाँति देख सकता है।
बड़ा आदमी वह है कि जिसके गुणोंके कारण दूसरे लोग उसको बड़ा मानते हों। आप ही अपनेको बड़ा मानना तो मूर्खता है।