किताबोंके पढ़ने-सुननेसे अथवा लिखने-लिखानेसे भगवान् नहीं मिलते। भगवान्की प्राप्तिमें तो आत्मनिग्रहसे भरा हुआ भगवान्का प्रेम ही महान् कारण है।
भगवन्! मुझे ऐसी प्रेमभक्ति दे कि मुँहसे तेरा ही नाम अखण्डरूपसे लेता रहूँ।
जितना ऊँचा ज्ञान उतना ही उत्तम जीवन । यदि ऐसा हो सके तो ठीक, नहीं तो सारा प्रयास भूसी कूटनेके समान व्यर्थ और निस्सार है।
ईश्वरपरायण साधुजनोंसे प्रीति करना और ईश्वरसे प्रीति करना एक समान है।
जिसके संगसे तुम्हारे अन्दर अहंकार पैदा होता हो, उसका संग छोड़ दो और जो मनुष्य तुम्हारे दोषोंको दिखलावे उसकी खुशामद करो।
ईश्वरको पाना चाहते हो तो मनको पवित्र करो, भक्तिसे भगवान्के नामका गान करो, नम्र बनो, साधुओंकी चरणरज सिर चढ़ाओ, कुतर्क न करो, परनिन्दामें शामिल मत हो और यथाशक्ति परोपकार करो।
भक्त भगवान्की आत्मा है, वह भगवान्का जीवन है। प्राण है।
जो प्रज्वलित क्रोधरूपी मार्गच्युत रथको रोक सकता है, वही कुशल सारथी है। केवल हाथसे लगाम पकड़े रहने में कोई चतुराई नहीं।
भलाई-बुराईसे मन हटाकर जो शान्तशील पुरुष उदासीनभावसे यात्रा कर संसारको पार कर जाते हैं, वे ही सच्चे पण्डित हैं।
जबतक तुम्हारे मनमें संसार बसा हुआ है तभीतक भगवान् तुमसे दूर हैं। संसारकी तरफसे तुम्हारी विरक्ति होते ही तुम जाओगे ईश्वरकी ओर, जिससे तुम्हारे अन्तःकरणमें अवश्य प्रकाश होगा। उस प्रकाशमें तुम्हें ईश्वरके सिवा और कोई न दिखायी देगा और न स्मृति अथवा वाणीमें ही आयेगा। यही योगकी वास्तविक अवस्था है।
निवृत्ति किसे कहते हैं? भगवान्के सिवा सम्पूर्ण विषयोंसे वृत्तियाँ हटा लेनेको।
ईश्वरके पानेका उपाय केवल विश्वास है। जिसे विश्वास हो गया, उसका काम बन गया।
भक्तोंमें सच्चाई होती है! वैराग्यके अंजनसे जब आँखें खुल जाती हैं, तब नश्वर संसारके भेद-भावोंमें बैठे हुए प्रेमको एक जगह बटोरकर वे एक परमात्माको ही अर्पण कर देते हैं। फिर प्रेमामृतकी धारा भगवान्के सम्मुख ही प्रवाहित होने लगती है।
जब काल सुमेरु-जैसे पर्वतको भी जला देता है, बड़े-बड़े सागरोंको सुखा देता है, पृथ्वीका नाश कर देता है, तब हाथीके कानकी कोरके समान चंचल मनुष्य तो किस गिनतीमें है।
सृष्टि और स्रष्टा तथा विधान और विधाताको एक समझने में ही पूर्णता है।
इस कहावतको सदैव याद रखो-'आँख देखकर ही संतुष्ट नहीं होती और कान सुनकर ही नहीं अघात ।' अतएव देख-सुन पड़नेवाली चीजोंसे हृदयको हटानेका प्रयत्न करो। क्योंकि जो वासनाओंके संकेतपर चलते हैं वे आत्म-चैतन्यपर कालिमा पोत लेते हैं और परमात्माकी कृपाको खो बैठते हैं।
जहाँ स्त्री है वहाँ सभी विषय हैं! यही संतोंका अनुभव है।
यदि तुम अपनेको अपनी इच्छाके अनुकूल नहीं बना सकते तो तुम दूसरोंसे कैसे आशा कर सकते हो कि वे तुम्हारी इच्छाके अनुकूल हों।
- अपनी दुनियावी स्थिति और शक्तिपरसे विश्वास उठ जाना भी प्रभुकी महत्त्वपूर्ण सेवा है, क्योंकि ऐसा होनेपर ही मनुष्य ईश्वरसेवाकी योग्यता प्राप्त करता है।
प्रेम-प्रेम तो सब कहते हैं, परंतु प्रेमको कोई नहीं पहचानता, जिसमें आठों पहर भीगा रहे वही प्रेम है।
हमें आँखें हैं; परंतु हम देखते नहीं।
अहा ! संसारका यश कितनी द्रुतगतिसे नष्ट होता जा रहा है। यदि विद्वत्ताके अनुरूप जीवन भी होता तब हमारा पढ़ना-लिखना सार्थक होता।
सज्जनोंका संग, नामका उच्चारण और कीर्तनका घोष अहर्निश किया करे। इस प्रकार हरि भजनमें रमे।
व्यर्थकी बकवादको त्याग दो, निष्प्रयोजन बातोंसे अपनेको हटा लो। नूतनता और अफवाहोंके पीछे परेशान मत हो; फिर तुम्हें उत्तम उत्तम विषयोंपर मनन करनेके लिये पूरा समय मिलेगा। बड़े-बड़े संत लोकालयके कोलाहलसे विलग रहते हैं और विशेषतः परमात्माके चिन्तनमें ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
जो पुरुष ईश्वर-तत्त्वसे अनभिज्ञ लोगोंको अमृतरूप ज्ञानका प्रकाश दिखलाकर सन्मार्गपर ले आता है उस दयालु दीनबन्धु पुरुषपर सभी देवगण कृपा करते हैं।
नाम और मानके पीछे दुनिया तबाह है।
साधुओंकी सेवासे तीन गुण मिलते हैं-विनय, प्रभुभक्ति और उदारता।
जो प्रलोभनमें उलझा हुआ है उससे रुखाईसे व्यवहार न करो, परंतु उसे धैर्य दो।
'चलो चलो' की पुकार तो सभी मचाते हैं, परंतु पहुँचता कोई विरला ही है; क्योंकि इस मार्गमें 'कनक' और 'कामिनी 'की दो बड़ी घाटियाँ हैं।
दुनिया एक युवती स्त्रीके समान है। जो मनुष्य उसकी कामना करता है उसे अपना जीवन उसके लिये बढ़िया-बढ़िया गहने-कपड़े जुटानेमें ही बिताना पड़ता है और जो उसकी ओरसे विरक्त रहता है वह पैर पसारकर एकान्तमें सुखसे सोता है।
बुद्धिमान् वह है जो जीवनमें सबसे जरूरी कामको सबसे पहले करता है। मनुष्यके जीवनमें सबसे जरूरी काम है मालिकका चिन्तन।
सच्चा मित्र वह है जो दर्पणके समान तुम्हारे दोषोंको यथार्थरूपसे तुम्हें दिखा देता है। जो तुम्हारे अवगुणोंको गुण बतलाता है वह तो खुशामदी है, मित्र नहीं।
कीर्तनका विक्रय महान् मूर्खता है।
सच्चे विश्वासी भक्तका विश्वास तथा भक्ति किसी प्रकार नष्ट नहीं होती। भगवच्चर्चा होते ही वह उन्मत्त हो उठता है।
विपत्तिके रूपमें जो कुछ तुम्हें प्राप्त होता है, यह ऐसा ही होनेको था, नयी चीज कुछ भी नहीं बन रही है, भगवान्का पहलेसे रचकर रखा हुआ दृश्य सामने आता है।
श्रवण, कीर्तन ही प्रभु-प्रेम-प्राप्तिका मुख्य उपाय है। और सब उपाय तथा आश्रयोंका परित्याग करके श्रीहरिकी ही शरण लेनी चाहिये।
जिस साहित्यसे मनमें कामनाएँ जाग्रत हों, मन विषयोंमें जाय, उसे मलिन साहित्य मानकर उसका त्याग करना चाहिये और जिससे कामनाएँ घटें, मनमें भगवान्के प्रति प्रीति उत्पन्न हो, मन निर्मल हो - उसे शुद्ध साहित्य मानकर उसका अध्ययन करना चाहिये।
यदि तुम भगवान्को चाहते हो तो भावसे उनके गीत गाओ। दूसरेके गुण-दोष न सुनो, मनमें भी न लाओ। संतके चरणोंकी सेवा करो। सबके साथ विनम्र रहो और थोड़ा-बहुत जो कुछ बन पड़े उपकार करो। यह सुलभ उपाय है।
दूसरोंके गुण सुनकर सुखी होओ और उन गुणोंको अपनेमें लानेकी चेष्टा करो।
यदि भगवान् मेरे हृदयसे चले जायँ तो मैं रोगसे छूटना नहीं चाहता, भगवान् रहें तो मैं सदा-सर्वदा ही रोगी रहना पसंद करता हूँ। मुझे शरीर नहीं, पर भगवान् प्यारे हैं।
सच्चिदानन्दघनविग्रह नित्य लीलामय, अखिल सौन्दर्य-माधुर्य-प्रियत्वादि गुणयुक्त भगवान् श्रीकृष्ण ही परम तत्त्व हैं - यह निश्चय ही प्रेमी भक्तका परम धन है और प्रिय से-प्रिय वस्तु है।
जैसे माता अपने गर्भको जतनसे रखती है, जिसमें कहीं ठेस न लग जाय, इसी प्रकार भक्तिको भी जतनसे छिपाकर रखना चाहिये।
सबसे उत्तम और सबसे लाभदायक अध्ययन, सच्चा आत्मज्ञान और आत्मविचार है।
भगवान् नारायण ही सर्वोपरि हैं और उनके चरणोंमें अपनेको सर्वतोभावेन समर्पित कर देना ही कल्याणका एकमात्र उपाय है।
भगवान्को जाननेके लिये चरित्रकी शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। विशुद्ध चरित्र हुए बिना कोई भी उनको न तो पहचान ही सकता है और न देख ही सकता है।
परमेश्वरके नामपर लोगोंको अपनी ओर घसीटने वाले धर्मध्वजी बहुत-से हैं। उनसे बचकर रहना।
ये तीन अवस्थाएँ तुम्हारी न हों तो नरक अवश्यम्भावी है (1) जो दिन बीते जा रहे हैं उनके लिये खेद करना, (2) आजका दिन सर्वश्रेष्ठ मानकर अपनी आत्माके कल्याणार्थ यथाशक्ति कार्य करना और (3) कल ही तुम्हारी मृत्यु होनेवाली है इसे सदा याद रखना।
प्रपंचमें मनुष्यका आत्मपतन हो ही जाता है।
धन, जन, यौवनका गर्व न करो, काल एक निमेषमें ही इन सबका हरण कर लेता है। इस मायामय प्रपंचको छोड़कर शीघ्र ही ब्रह्मपदका आश्रय ग्रहण करो।
यह नामस्मरण ऐसा है कि इससे श्रीहरिके चरण चित्तमें, रूप नेत्रोंमें और नाम मुखमें आता है तथा यह जीवको हरिप्रेमका आनन्दामृत पान कराकर उसका जीवत्व हर लेता है। तब हरि ही रह जाते हैं।
शक्ति कम हैं, बुद्धि मन्द है, इसके लिये तू चिन्ता न कर। तेरे पास जो कुछ है, उसीके द्वारा तू उनकी पूजा करनेको तैयार हो जा। फिर उनकी दयाका अनुभव होनेमें विलम्ब नहीं होगा।
अभिमानका सर्वथा त्याग ही त्यागका मुख्य लक्षण है।
स्त्रियोंकी मीठी बातोंमें नहीं भूलना चाहिये । इनकी बातें रसमयी हैं, किंतु वैरागीके लिये तलवारकी धारके समान हैं। उनसे अपनी रक्षा करना कठिन है।
जीव और परमात्मा दोनों एक हैं। इस बातको जान लेना ही ज्ञान है। वह ऐक्य लाभकर परमात्मसुख भोगना सम्यक् विज्ञान है।
ये वस्तुएँ प्रायः हमें नम्रताकी अभिप्राप्तिमें सहायता देती हैं और दम्भसे हमें बचाती हैं। इसलिये कि जब बाहर दुनिया हमसे घृणा करती है और हमें किसी प्रकारका यश नहीं मिलता, ऐसी अवस्थामें हम केवल परमात्माको अपना आन्तरिक पारखी समझते हैं।
हे प्रभो ! तुम जब मेरा सदा स्मरण रखते हो, तो मेरे आखिरी साँसतकके हर एक साँसके साथ तुम्हारा नाम रहे, मन भी सदा तुम्हारे स्मरणमें लगा रहे एवं तन और जीवन भी तुम्हारा अनुसरण करते रहें।
जो मन करेगा वही पाओगे। अभ्याससे क्या नहीं होता।
अधिक जनसमुदायमें बसनेकी रुचि ही बाँधनेवाली रस्सी है, पुण्यात्मा लोग इस रस्सीको तोड़कर एकान्तमें तप करते हैं, पापीलोग इसी रस्सीमें दिनोंदिन दृढ़ताके साथ बँधते जाते हैं।
जो मनुष्य परलोककी साधना न कर केवल संसारकी साधनामें ही लगा रहता है, वह इस लोक और परलोकमें दुःख और नुकसान ही प्राप्त करता है।
संतका जीवन और मरण हरिमय होता है, हरिके सिवा और है ही क्या कि हो। फिर मृत्युके समय भी हरिस्मरणके सिवा और क्या हो सकता है।