त्याग तप है। त्यागके बिना न तेज है, न सत्कार है, न शान्ति है, न प्रसन्नता है, न आनन्द है और न मुक्ति ही है। त्याग करो - घरका नहीं, स्त्री-पुत्रोंका या धनका नहीं, त्याग करो क्रोधका, कड़वी वाणीका, विषयभोगका, मनकी विविध कामनाओंका, दूसरेको दुःख देनेवाले स्वभावका, आलस्यका, अभिमानका, आसक्तिका, ममताका और अहंकारका।
सब बातोंको छोड़कर अपने एकमात्र परममित्र परमात्मामें लीन होना ही योगकी ऊँची अवस्था है।
विपत्ति आनेपर यदि तुम उसके सहन करनेकी शक्ति रखते हो तो घबराओ मत, अपना बल लगाकर उसे निकाल दो और यदि तुम्हारी ताकत उसे नाश नहीं कर सकती तब भी रोओ मत। जरूर एक बार विपत्ति तुम्हें परेशान करना चाहेगी, परंतु फिर आप ही नष्ट हो जायगी।
- चार चीजोंपर भरोसा मत करो - बिना जीता हुआ मन, शत्रुकी प्रीति, स्वार्थीकी खुशामद और बाजारू ज्योतिषियोंकी भविष्य वाणी।
भगवन्नाममहिमाको अर्थवाद माननेवालेको तो पाप लगता ही है, सुननेवालेको भी पाप होता है।
साधुताके तीन लक्षण हैं—(1) संसारका ऊँच नीच तुम्हारे हृदयमें प्रवेश न करने पावे-मिट्टीकी भाँति सोने चाँदीको भी त्याग देनेकी क्षमता तुममें होनी चाहिये। (2) लोकापवादपर दृष्टि मत दो, न लोक-प्रशंसासे फुलो और न लोकनिन्दासे अप्रसन्न हो। (3) तुम्हारे हृदयमें लौकिक विषयकी कामना निःशेष हो जाय। दूसरोंको विषयभोग और स्वादिष्ट खान पानमें जैसा आनन्द मिलता है वैसा ही आनन्द तुम्ह उन भोगोंके त्यागमें मिले।
सदाचारमें ढीला रहकर भगवद्भक्तोंके मेलेमें कोई केवल भजन करे तो वह भजन कुछ भी काम नहीं देगा। वैसे ही कोई सदाचारमें पक्का है, पर भजन नहीं करता तो भी अधूरा ही है।
बिना चित्तके एकाग्र हुए और बिना इन्द्रियोंके संयत हुए- ध्यान लग ही नहीं सकता।
जिसके हृदयमें सच्ची श्रीकृष्णभक्ति है, उससे बढ़कर श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता । श्रेष्ठपनेकी यही पराकाष्ठा है।
सत्य और प्रिय वाणी, ब्रह्मचर्य, मौन और रसत्याग - इन चारका सेवन करनेवालेमें सदा सिद्धियाँ बसती हैं।
जो आत्माका मुक्ति और परमात्माकी प्राप्तिके अतिरिक्त अन्य किसी वस्तुकी अपेक्षा करता है, उसे कष्ट उदासीके अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।
जिनको दूसरोंकी निन्दा करनेमें रस आता है, वे मित्र बनानेकी मीठी कला नहीं जानते। वे फूटका बीज बोकर अपने पुराने मित्रोंको दूर हटा देते हैं।
भगवान्के वचन हैं-मेरे भक्त जहाँ प्रेमसे मेरा नामसंकीर्तन करते हैं, वहाँ तो मैं रहता ही हूँ-मैं और कहीं न मिलूँ तो मुझे वहीं ढूँढ़ो।
यदि तुम छोटी और आसान चीजोंको नहीं जीत सके तो कठिन चीजोंको कैसे जीत सकोगे ?।
हृदयमें अभिमान आते ही सभी साधन नष्ट हो जाते हैं।
हे मनुष्य ! मौतसे डर, अभिमान त्याग।
दूसरोंकी स्वच्छन्दता हमें असन्तुष्ट कर देती है, लेकिन हम अपनी इच्छाओंका अवरोध करना नहीं चाहते।
हरिशरणागति ही सब शुभाशुभ कर्मबन्धनोंसे मुक्त होनेका एकमात्र मार्ग है। जो शरणागत हुए वे हो तर गये। भगवान्ने उन्हें तारा, उन्हें तारते हुए भगवान्ने उनके अपराध नहीं देखे, उनकी जाति या कुलका विचार नहीं किया। भगवान् केवल भावकी अनन्यता देखते हैं।
किस्मतको देखो कि जिसने मनुष्यको कितना कमजोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकोंके लिये गये । उसे इस लोक और परलोककी फिक्र लगा दी।
बिना माँगे ही माँ बच्चेको खिलाती है और बच्चा जितना भी खाय खिलानेसे माता कभी नहीं अघाती। खेल खेलनेमें बच्चा भूला रहे तो भी माता उसे नहीं भुलाती, बरबस पकड़कर उसे छातीसे चिपटा लेती और स्तनपान कराती है। बच्चेको कोई पीड़ा हो तो माता भाड़की लाईके समान विकल हो उठती है।
भगवान् श्रीराम जिसकी ओर कृपाकी नजरसे देखते हैं उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र हो जाते हैं, समुद्र गौके खुर-बराबर हो जाता है; अग्नि शीतल हो जाती है और भारी सुमेरु पहाड़ रजके समान हो जाता है।
सावधान! परस्त्रीकी ओर कभी दृष्टिपात भी न करना।
सभी प्राणियोंका आहार भगवान्के भण्डारसे आता है।
कर्म-ज्ञान-योगमें जो-जो कमी हो उसकी पूर्ति हरिप्रेमसे हो जाती है, इसलिये भक्तियोग ही सबसे श्रेष्ठ योग है। नारायण भक्तिके वश होते हैं।
आपके चरणोंमें क्या जोर अजमाऊँ? मेरा तो यही अधिकार है कि दास होकर करुणाकी भिक्षा माँगूँ।
बुरी बातों से बचनेके ये ग्यारह उपाय हैं- भगवान्से प्रार्थना करना, सत्संग करना, कुसंगसे सर्वथा दूर रहना, आलस्य और प्रमाद न करना, नाच, तमाशा, नाटकादि न देखना, बुरी किताबें न पढ़ना, मन और इन्द्रियोंको बुरे विषयोंकी ओर जानेसे रोकते रहना, एकान्तमें मन और इन्द्रियोंकी विशेष रखवाली करना, महात्माओंके वचनों और शास्त्रोंकी शिक्षाओंको याद रखना, अपनी स्थितिको सर्वथा देखते रहना तथा मृत्यु, नरकोंकी यन्त्रणा और बुरी योनियोंके कष्टकी बातोंको याद करते रहना।
यदि कोई कमजोर मनुष्य प्रभुके कार्यमें लग जाता है तो उसको भी अन्तमें प्रभुका बल मिल जाता है। इसी प्रकार यदि कोई बलवान् पुरुष लौकिक स्वार्थोंमें ही लगा रहता है तो अन्तमें उसे बलहीन तथा लांछित होना पड़ता है।
उपवास, अल्प भोजन, आजीविकाका नियम, रसत्याग, सर्दी-गर्मीका समभावसे सहन करना और स्थिर आसनसे रहना-यह छ: प्रकारका बाह्य तप है और प्रायश्चित्त, ध्यान, सेवा, विनय, शरीरोत्सर्ग और स्वाध्याय - यह छः प्रकारका आभ्यन्तर तप है।
- तुम्हारा यह श्रीमुख हे हरि ! ऐसा दीखता है जैसे सुखका ही ढला हुआ हो, इसे देख मेरी भूख-प्यास हर जाती है। तुम्हारे गीतगाते-गाते रसना मीठी हो गयी। चित्त तृप्त हो गया।
पर उपकारसे उन्हीं हरिकी ही सेवा बनती है। भूतोंका उपकार ही भूतात्माका पूजन-अर्चन है।
जहाँ भी जाओगे तुम्हें तबतक शान्ति नहीं मिल सकती जबतक अपनेसे बड़ेकी आज्ञामें न रहोगे। स्थानोंकी कल्पना तथा परिवर्तनने बहुतोंको धोखा दिया है।
जबतक एक गाँवको नहीं छोड़ा जा सकता, तबतक दूसरे गाँवमें नहीं पहुँचा जा सकता, इसी प्रकार जबतक मनुष्य संसारका सम्बन्ध नहीं छोड़ सकता, तबतक वह प्रभुके स्थानमें नहीं पहुँच सकता।
कामना भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती, घी डालनेपर अग्निके समान वह अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है।
अबोध शिशुकी तरह यदि अपनेको भूलने की चेष्टा करो तो देखोगे जगत् जननीकी गोदमें आश्रय पानेमें तनिक भी देर न लगेगी। यदि अपने बलका भरोसा तुम्हें है तो तुम्हारी बात तुम्हीं जानो।
सावधान! लोगोंको दिखानेके लिये धर्मका आचरण न करो। यदि ऐसा करोगे तो भगवान्से तुम कुछ भी फल नहीं पाओगे।
जो दूसरेको बदनाम करके नाम कमाना चाहते हैं, उनके मुँहपर ऐसी कालिख लगेगी जो मरनेपर भी नहीं धुलेगी।
संत किसी भी सत्कार्यको पूर्णतः परमात्मामें निवेदन करता है।
जिस सुखके लिये मनुष्य इतनी आफतें उठाता है, उस सुखका सच्चा स्रोत तो स्वयं उसके दिलमें मौजूद है।
जो मनुष्य अपने सुखके लिये किसी भी प्राणीको मारता है, वह जीते हुए और मरनेपर कहीं भी सुख नहीं पाता।
कृष्ण ही मेरी माता हैं, कृष्ण ही मेरे पिता हैं, जीके जीवन एक कृष्ण ही हैं।
ईश्वरने तुमको जो कुछ देना कबूल कर रखा है, उसमें जरा भी संदेह न रखना, इसीका नाम निर्भरता है।
मन ही मनका बोधक, मन ही मनका साधक, ही मनका बाधक और मन ही मनका घातक है।
भजन होता है गरजसे। इसमें प्रारब्ध माननेवाला मूर्ख है।
मनुष्यके विचार उसके इतने अधिक समीप हैं कि जितने समीप उसके हाथ, पैर और आँख, कान आदि अंग भी नहीं हैं। मनके विचारोंका आत्माके साथ साक्षात् सम्बन्ध है, जबकि हाथ-पैर तथा आँख कान आदि तो मनके सेवकमात्र हैं।
भगवान् विष्णुकी भक्ति ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चारों पुरुषार्थोंकी जड़ है। भक्ति ही भगवान्को वशमें करनेका उपाय है।
जो सुखी होना चाहे वह तृष्णाको त्यागे और परमात्मा जो दे उसीमें संतोष करे।
मन, वचन और शरीरसे पूर्णरूपसे संयमी रहना ही ब्रह्मचर्य है।
जो धनके लोभमें फँसा हुआ है, उसे कल्पान्तमें भी मुक्ति नहीं मिल सकती। जो सर्वदा स्त्री-कामी है, उसे परमार्थ या आत्मबोध नहीं मिल सकता।
वह वास्तवमें बड़ा है जो अपनेको छोटा समझता है और अपनी प्रतिष्ठाकी ऊँचाईका कोई मूल्य नहीं आँकता।
सोये हुए गाँवको जैसे बाढ़ बहा ले जाती है। वैसे ही और पशुओंमें लिप्त मनुष्योंको मौत ले जाती है। जब पुत्र मृत्यु पकड़ती है उस समय पिता, पुत्र, बन्धु या जातिवाले कोई भी रक्षा नहीं कर सकते। इस बातको जानकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह शीलवान् बने और निर्माणकी ओर ले जानेवाले मार्गको जल्द पकड़ ले।
शाश्वत शान्तिके केन्द्र हैं- 'भगवान्'। वे सदा सबके हृदय-मन्दिरमें विराजमान हैं। शान्ति उनके चरण चूमती है और उसी शाश्वती शान्तिके स्पर्शसे ही मनुष्यके मनमें शान्ति आती है।
प्रीतिकी लता तो अकेले ही चढ़ती है। किसी दूसरी बेलिको अपने पास फैलने नहीं देती।
अचेत आदमीके लिये संसार भोग-विलासका स्थल है, परंतु विचारवान् के लिये युद्धक्षेत्र है, जहाँ जीवनपर्यन्त मन और इन्द्रियोंसे संग्राम करना पड़ता है।
जिसको भगवान्की याद आते ही रोमांच हो जाय आनन्दके आँसू बहने लगें, शरीरका रंग बदल जाय और 'हे श्रीकृष्ण हे गोविन्द !! हे हरे !!!' मधुर स्वरसे इस प्रकार नामगान करता जो रात-दिन भगवान्में चित्त लगाये रखे, वही श्रेष्ठ भक्त है।
याद रखो, मनुष्य जीवनकी सच्ची सफलता भगवान् के प्रेमको प्राप्त करनेमें ही है।
जो मनुष्य समस्त भोगोंको पा जाता है और जो सब भोगोंको त्याग देता है, इनमें सब भोगोंको पानेवालेकी अपेक्षा सबका त्याग करनेवाला श्रेष्ठ है।
ईश्वरपर निर्भर रहकर ही दुनियाकी गुलामीसे छूटा जा सकता हैं।
तृष्णाको शीघ्र छोड़ो! पुरानी होनेसे वह और भी बलवती हो जायगी, फिर उसे त्यागना आपकी शक्तिके बाहर हो जायगा।
गुरुकृपाके बिना कोई साधक कभी कृतकार्य नहीं हुआ। श्रीगुरुके चरण-धूलिमें लोटे बिना कोई भी कृतकृत्य नहीं हुआ। श्रीगुरु बोलते-चालते ब्रह्म हैं।
धन चुराया गया, रोता क्यों हैं? क्या चोर ले गये ? रो अपनी इस समझपर प्यारे लेने-ले जानेवाला दूसरा कोई नहीं है, वह एक ही है जो नये-नये बहानोंसे तेरा दिल लिया चाहता है। गोपियोंके इससे बढ़कर और क्या भाग्य होंगे कि श्रीकृष्ण उनका मक्खन चुरावें। धन्य हैं वह, जिसका सब कुछ चुरा लिया जाय। मन और चित्ततक भी बाकी न रहे।