अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



ईर्ष्या, लोभ, क्रोध और अप्रिय किंवा कटुवचन इनसे सदा अलग रहो, धर्मप्राप्तिका यही मार्ग है।


वे माता-पिता धन्य हैं और वही पुत्र धन्य है जो किसी प्रकारसे रामका भजन करता है। जिसके मुखसे धोखे से भी रामका नाम निकलता है उसके पैरोंकी जूती मेरे तनके चमड़ेसे बने तो भी कम ही है। वह चाण्डाल भक्त अच्छा रात-दिन रामको भजता है। जिसमें हरिका नाम नहीं वह ऊँचा जो कुल किस कामका ।


भगवान्‌के नाममें रुचि, जीवोंपर दया और भक्तोंका सेवन- इन तीन साधनोंके समान और कोई साधन नहीं।


जो ईश्वरको अपना सर्वस्व मानता है वही असली धनवान् है। दुनियाकी चीजोंको अपनी सम्पत्ति माननेवाला तो सदा गरीब ही रहेगा।


चित्तकी उलटी चालमें मैं फँस गया था, मृगजलने मुझे भी धोखा दिया था, पर भगवान्ने बड़ी कृपा की जो मेरी आँखें खोल दीं। तुमने मेरी गुहार सुनी, इससे मैं निर्भय हो गया हूँ।


जिसने अपनेको अच्छी तरह पहचान लिया वह अपनेको बहुत नगण्य समझने लगता है और लोगोंद्वारा की गयी प्रशंसामें फूल नहीं उठता।


जो पुरुष मनरूपी तीर्थके ज्ञानरूपी सरोवरमें ईश्वरके ध्यानरूपी जलसे स्नान करके राग-द्वेषरूपी मलको धो डालता है, वह संसारसागरको बिना प्रयास तर जाता है।


असली सत्त्वगुणी भक्त लोग रातको मशहरीमें पड़े पड़े ध्यान किया करते हैं। लोग समझते हैं कि वे सोते हैं; परंतु जिस समय सब लोग सोते हैं, उस समय वे परलोकका काम बनाया करते हैं। वे बाहरका दिखावा बिलकुल ही पसन्द नहीं करते।


जो दुराचारियोंके अत्याचारोंसे कभी जरा भी व्यथित नहीं होते, वे ही महापुरुष हैं।


विषयोंको हमने नहीं भोगा, किंतु विषयोंने हमारा ही भुगतान कर दिया, हमने तपको नहीं तपा, किंतु तपने हमें ही तपा डाला, कालका खात्मा न हुआ, किंतु हमारा ही खात्मा हो चला, तृष्णाका बुढ़ापा न आया, किंतु हमारा ही बुढ़ापा आ गया।


जो मनुष्य दूसरोंकी आजीविकाका नाश करते हैं, दूसरोंके घर उजाड़ते हैं, दूसरोंकी स्त्रीका उसके पतिसे बिछोह कराते हैं, मित्रोंमें भेद उत्पन्न करते हैं, वे अवश्य ही नरकमें जाते हैं।


ईश्वरोपासनाको परम कर्तव्य मानकर उसीमें लगे रहना।


ईश्वर साकार - निराकार और क्या-क्या है, यह हमलोग नहीं जानते । तुम्हें जो अच्छा लगे उसीमें विश्वास कर उसे पुकारो, तुम उसीके द्वारा उसे पाओगे। मिसरीकी डली चाहे जिस ओरसे, चाहे जिस ढंगसे तोड़कर खाओ मीठी लगेगी ही।


लोककल्याणको अपने कल्याणसे भी अधिक मानना ही सच्ची साधुता, महत्ता और उदारता है।


चार चीजें अपने-आप आती हैं- सुख, दुःख, जीविका और मृत्यु।


सांसारिक विषयोंमें उपरामता, ईश्वरकी आज्ञाका पालन और ईश्वरको इच्छासे जो कुछ हो रहा है, उसमें प्रसन रहना यही सच्ची भक्तिके लक्षण हैं।


भगवत्प्राप्तिके लाभके सामने समग्र संसार एक मच्छरकी पाँख-जितना भी नहीं है, अतः ऐसी तुच्छ वस्तुसे वैराग्य होना कौन-सी बड़ी बात है।


जन-मान साधकको धरतीपर पटककर उसके परमार्थका सत्यानाश करनेवाला है।


जो भगवान् केवल नाम लेते ही समस्त पापके समूहको नाश करनेवाले हैं, उनको जो हृदयमें सदा धारण किये रहता है और एक क्षणको भी नहीं त्यागता, जिसने भगवान् वासुदेवके चरणोंको निज हार्दिक प्रेमसे बाँध रखा है, वही वैष्णवोंमें उत्तम है।


जो ईश्वरके नजदीक आ गया, उसे किस बातकी कमी ? सभी पदार्थ और सारी सम्पत्ति उसकी ही है; क्योंकि उसका परमप्रिय सखा सर्वव्यापी और सारी सम्पत्तिका स्वामी है।


ईश्वरभक्तोंकी उत्तम पोशाक तीन तरहकी होती है- पवित्रता, विनय और प्रभुपर दृढ़ विश्वास।


प्रकृति और पुरुषका नियन्ता, सकल प्राणियोंका अन्तर्यामी और षड्गुण ऐश्वर्ययुक्त परमात्माके चरणोंको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी संसार भय दूर नहीं होता।


बछड़ेपर गौका जो भाव होता है, उसी भावसे हरि मुझे सँभाले हुए हैं।


विश्वास, प्रेम और नियमसे रामनामका जप करो, फिर आदि, मध्य और अन्त तीनों ही कालमें कल्याण है।


प्रेमसे हरिनाम गाओ। प्रेमसे कीर्तन - रंगमें मस्त होकर नाचो। इससे तरोगे, तारोगे। संसारसे तर जाओगे।


मनुष्य किसी भी वर्ण या जातिमें पैदा हुआ हो वह यदि सदाचारी और भगवद्भक्त है तो वही सबके लिये वन्दनीय और श्रेष्ठ है। कसौटी जाति नहीं है, कसौटी है साधुता और भगवद्भक्ति।


जिनके काम, क्रोध, मद, लोभ आदि छः विकार नहीं होते, जो कुमार्गको जानते ही नहीं और जो सदा ब्रह्ममें लीन हैं वे ही साधु हैं।


हरि-कथा माताका अमृतक्षीर जिनके सत्संगसे सेवन कर पाता हूँ, उन दयालु हरि-भक्तोंके दासका मैं दास हूँ।


हे प्रभो ! तेरे सामने हाथ जोड़कर सच्चे हृदयसे इतनी ही प्रार्थना करता हूँ कि मैं माँगूँ या न माँगूँ, मुझे ऐसी कोई चीज कभी न देना जो मुझे अच्छी लगनेपर भी मेरा बुरा करनेवाली हो और मेरी बुद्धिको कुमार्गपर ले जानेवाली हो।


ध्यान करना चाहते हो तो तीन जगह कर सकते हो मनमें, घरके कोनेमें और वनमें।


सांसारिक दृष्टिसे तो वे बहुत दरिद्र होते हैं; किंतु सद्गुण और सदाचारमें बहुत धनी बाह्यतः उनका जीवन अभावमय होता है; परंतु उनका आन्तरिक जीवन सदाचरण और दैवी आश्वासनके कारण नित्य प्रसन्न होता है।


बिना पूछे न उपदेश करो और न सलाह देने जाओ।


ऐसे लोगोंकी ही संगति करना जो ज्ञानाग्निसे शुद्ध होकर प्रभुके ममतारूपी अमृतसागरमें डूबे हैं।


धन-दौलत कमानेके पीछे क्यों पड़े हुए हो ? तुम्हारी जरूरियातोंको पूरा करने और तुम्हारी देखभाल रखनेका सारा भार तो ईश्वरने ही ले रखा है। यदि उसका भरोसा करोगे तो सब तरहसे शान्ति और सुख पाओगे।


परमार्थके साधकको चाहिये कि लोगोंके फेरमें कभी न पड़े। लोग दोमुँहे होते हैं-ऐसा भी कहते हैं, वैसा भी कहते हैं। वमनकी तरह जन-संगको त्याग दे। जो अपना हित चाहता हो, वह जनको त्यागकर हरिभजनका सरल मार्ग आदर और प्रेमसे स्वीकार करे।


संयोगका वियोग एक दिन अवश्य होना है । संचितका क्षय अनिवार्य है। जो इस प्रकार समझ लेते हैं, वे विज्ञ पुरुष यहाँकी लाभ-हानिमें हर्ष और शोकके वश नहीं होते।


कोई कैसा भी हो, यदि हरिनाम लेनेवाला है तो वह धन्य है।


तारे तभीतक जगमगाते हैं, जबतक कि सूर्य नहीं उगता। इसी प्रकार जबतक ज्ञानका उदय नहीं होता, तभीतक मनुष्य विषयोंमें लगा रहता है।


गायका तुरंत जन्मा हुआ बच्चा जैसे बीसों बार गिरने साधक उठनेपर कहीं खड़ा हो सकता है, इसी प्रकार साधना करते समय अनेक बार गिर पड़नेपर कहीं अन्तमें सिद्धि-लाभ करता है।


श्रद्धालु मनुष्यका हृदय ईश्वरका गुणानुवाद गाने और सुननेसे अत्यन्त पवित्र हो जाता है, भगवच्चर्चा ही अन्न है, प्रभू-प्रेम उसकी शान्ति है, हरिका स्थान ही उसकी दूकान है, भजनकीर्तन उसका व्यापार है, धर्मग्रन्थ उसकी सम्पत्ति है, भूलोक उसका खेत है, परलोक उसका खलिहान है और प्रभु-प्राप्ति ही उसके परिश्रमका फल है।


पुरुषकी छिपी कामवासनामें यदि स्त्रीका देखना, सुनना, एकान्तमें मिलना और बातचीत करना चलता रहता है तो वह वासना बढ़कर प्रत्यक्ष कामनाका रूप धारण कर लेती है. और फिर सहज ही मनुष्यका पतन हो जाता है।


जिसमें सहनशीलता नहीं वह चाहे जितना भी बड़ा विद्वान्, तपस्वी और पण्डित क्यों न हो, कभी भी भगवत्कृपाका अधिकारी नहीं बन सकता।


क्रोध, दुष्कर्म, कृपणता तथा असत्यको जीतनेके शस्त्र क्रमसे क्षमा, सुकर्म, उदारता और सत्य हैं।


जब बच्चा माताके पेटमें रहता है, तब अज्ञानवश हाथ-पैर पीटता है, परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है? इसी प्रकार भगवान् जीवोंके अपराधपर दृष्टि नहीं डालते; क्योंकि सभी तो उनकी ही प्यारी संतान हैं।


ईश्वरकी कठोर से कठोर आज्ञाका पालन करनेमें भी प्रसन्न होना सीखो। ईश्वरका आदेश सुनने-समझनेकी इच्छा हो तो पहले अभिमान छोड़कर आदेशको सुनकर उसके पालनमें जुट जाओ। भयानक विपत्तिमें भी हरेक साँसके साथ प्रभुके प्रेमको बनाये रखो।


क्या करनेसे जाग्रत् रहा जा सकता है? हर एक श्वासके साथ यही समझो कि बस, यही अन्तिम श्वास है।


भजन न करके जो विषयोंमें वैराग्य चाहता है, वह बड़े धोकेमें है। भजन करो तो विषयोंमें वैराग्य आप ही होगा।


वैष्णवके लिये परस्त्री रुक्मिणीमाताके समान है।


यदि तुम कोई बात जानकर या सीखकर लाभ उठाना चाहते हो तो छिपे रहनेका प्रयत्न करो और लोगोंस आदर पानेकी कोशिश कभी न करो।


जो मनुष्य केवल बाहर-ही-बाहर प्रलोभनोंसे बचनेकी कोशिश करता है और उन्हें समूल नष्ट नहीं करता, उसे लाभ बहुत कम होगा, उसके पास शीघ्र ही प्रलोभन लौटेंगे और वह पहलेकी अपेक्षा बुरी दशामें पड़ जायगा।


मनुष्यका सच्चा कर्तव्य क्या है? ईश्वरके सिवा किसी दूसरी चीजसे प्रीति न जोड़ना।


मुँह बंद रखो। ईश्वरके सिवा दूसरी बात ही मत करो। मनमें भी ईश्वरके सिवा और किसी बातका चिन्तन न करो। इन्द्रियों और अपने कार्योंके द्वारा वैसे ही काम करो जिनसे ईश्वर खुश हो।


जैसे प्रवाहके वेगमें एक स्थानकी बालू अलग अलग बह जाती है और दूर-दूरसे आकर एक जगह एकत्र हो जाती है, ऐसे ही कालके द्वारा सब प्राणियोंका कभी वियोग और कभी संयोग होता है।


यह संसार दो स्थानोंके बीचका स्थान है। यात्री यहाँ आकर क्षणभरके लिये आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं, ऐसे यात्रियोंका आपसमें मेल बढ़ाना, एक-दूसरेकी मुहब्बतके फंदेमें फँसना सचमुच ही दुःखोत्पादक है।


तुम हृदयको बिलकुल खाली कर दो, उसमें कुछ भी न रहने दो, तब उसमें भगवान् वास करेंगे और जो कुछ भी तुम्हारे मुँहसे निकलेगा, वही भगवान्‌की ओरसे निकलेगा। बाँसुरीकी तरह अपनेको पोला बना दो; फिर सदा भगवान्के अधरोंका रसपान करोगे और उसीका सुर तुम्हारे भीतरसे बजेगा।


देवता, अतिथि, आश्रित, पितृगण और अपने आप इन पाँचोंको जो कुछ भी नहीं देता वह जीता ही मर चुका है।


दूसरेको सिखानेके लिये व्याकुल मत हो। जिससे तुम्हें ज्ञान-भक्ति प्राप्त हो, ईश्वरके चरण-कमलमें मन लगे वही उपाय करो।


सद्गुरुके सामने वेद मौन हो गये, शास्त्र दिवाने हो गये और वाक् भी बंद हो गयी। सद्गुरुकी कृपादृष्टि जिसपर पड़ती है, उसकी दृष्टिमें सारी सृष्टि श्रीहरिमय हो जाती है।


दूधमें मधुरता उसी समयतक रहती है जबतक उसे सर्प नहीं छूता । पुरुषमें गुण भी उसी समयतक रहते हैं जबतक कि तृष्णाका स्पर्श नहीं होता। अतः बुद्धिमानो ! अनित्य नाशवान् विषयोंसे दूर रहो; क्योंकि इनमें जरा भी सुख नहीं।


जो चीज अपनी नहीं है, उसको जो अपनी मानता है, वह प्रभुकी दृष्टिमें नीचे पड़ता है।