अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



कामनाओंका दास भी बना रहे और सुख भी प्राप्त कर ले-यह असम्भव है।


उठो, आलस्य मत करो, सच्चे धर्मका आचरण करो, धर्मका आचरण करनेवाला ही लोक-परलोकमें सुखी रहता है। बुरे मार्गमें भूलकर भी मत जाओ।


हरिनाम सुनते ही जिसकी आँखोंसे सच्चे प्रेमाश्रु बह निकलते हैं वही नाम-प्रेमी है।


छोटे-बड़े सबका शरीर नारायणका ही शरीर है।


जो दुःखियोंपर दया करता है, धर्ममें मन रखता है, घरसे वैराग्यवान् होता है और दूसरोंका दुःख अपना-सा जानता है, उसीको अविनाशी भगवान् मिलते हैं।


भोजन अपवित्र होता है तो एकान्तमें भी उत्तम साधना नहीं हो सकती और ईश्वरके अर्पण किये बिना कोई भी वस्तु पवित्र हो नहीं सकती।


उदारताके समान सद्गुण नहीं है और कृपणताके समान कोई अवगुण नहीं है।


जिस ओर हम दौड़े वह सब दिशाएँ तेरी ही देखीं- सब ओर तू ही था। जिस स्थानपर हम पहुँचे वह सब तेरी ही गलीका सिरा देखा - सर्वत्र तुझे ही पाया।


मैं अपना दोष और अपराध कहाँतक कहूँ? मेरी दयामयी मैया! मुझे अपने चरणोंमें ले ले। यह संसार अब बस हुआ। अब मेरा चिन्ता - जाल काट डालो और हे हृदयधन ! मेरे हृदयमें आकर अपना आसन जमाओ।


पतिंगे बिना ही समझे आगमें कूदकर जल मरते हैं। मछली भी अज्ञानसे वंसीका मांस खाकर फँस जाती है, परंतु हमलोग तो समझ-बूझकर भी विपत्तियोंसे भरे हुए विषयोंको नहीं छोड़ते। मोहकी यही महिमा है।


लोगोंके आगे रोनेकी अपेक्षा प्रभुके आगे रोओगे तो सच्चा लाभ होगा।


कार्यके सब सांसारिक सम्बन्धोंको हटा दो। इच्छारूपी प्रेतोंको उतार दो। अपने सब कामोंको पवित्र बना दो। आसक्तिके रोगसे अपनेको छुड़ा लो।


समुद्रमें गंगाजल जैसे मिलकर भी मिलता रहता है, वैसे ही संत पुरुष भगवत्स्वरूप होकर भी भगवान्‌को सर्वस्व देकर भजता रहता है।


भावके नेत्र जहाँ खुले वहीं सारा विश्व कुछ निराला - ही दिखायी देने लगता है।


जिस प्रभु-प्रेमीको दुनियाके लोग नाचीज, पागल और बेसमझसमझते हैं, वह सबसे ऊँचा है। दुनियावी तराजूसे यह तराजू न्यारा है।


प्रभुकी शरणमें जानेसे प्रभुका सारा बल प्राप्त हो जाता सारा भवभय भाग जाता है। कलिकाल काँपने लगता है।


इस मनके कारण, हे भगवन्! मैं बहुत ही दुःखी हूँ। क्या मनके इन विकारोंको तुम रोक नहीं सकते।


मनकी एक बात बड़ी अच्छी है। जिस चीजका उसे चसका लगता है, उसमें वह लग ही जाता है, इसलिये इसे आत्मानुभवका सुख बराबर देते रहना चाहिये।


चारों मुक्ति मिलकर भक्तके घर पानी भरती हैं और श्री के साथ श्रीहरि भी उसकी सेवामें रहते हैं-औरोंकी बात ही क्या है।


मांसाहारी मनुष्य प्रत्यक्ष ही राक्षस है, उसका संग नहीं करना चाहिये, उससे भजनमें भंग पड़ता है।


मनके श्रीकृष्णार्पण होनेसे भक्ति उल्लसित होती है।


उन्नतिके सात साधन हैं- श्रद्धालु होना, पापकर्मसे लजाना, लोकापवादसे डरना, विद्वान् होना, सत्कर्म करनेमें उत्साह रखना, स्मृति जाग्रत् रखना और प्रज्ञावान् बनना।


भक्त जबतक परमात्मासे प्रेम नहीं करता और मृत्युको याद नहीं रखता, तबतक उससे सर्वांगसुन्दर तप नहीं हो सकता।


हे मन! अब तू परमात्मामें लग जा; संसारी सुखोंमें अब हमारी इच्छा नहीं, इनकी पोल हमने देख ली।


जो किसीको दुःखमें देखकर उसपर दया नहीं करता, वह मालिकके कोपका पात्र होता है।


परमात्माके दर्शनमें लीन होकर उसका स्मरण करना भी भूल जाओ, यही ऊँचा-से-ऊँचा स्मरण है।


जो समय भगवान्के स्मरण-चिन्तनमें लगता है, वही सार्थक है।


शत्रुको प्यार करो; अपराधीको क्षमा करो; प्रभुके लिये दान दो और अपने लिये कुछ भी न चाहो।


प्रभुपर निर्भर करनेवालेको तीन चीजें मिलती हैं (1) प्रभुके प्रति पूर्ण श्रद्धा, (2) अध्यात्मविद्याका प्रकाश और (3) प्रभुका साक्षात्कार।


भगवत्प्राप्त पुरुष भगवद्भजनको छोड़कर दूसरेका पथप्रदर्शक नहीं बनता; क्योंकि वह अपने प्रभुके सिवा किसीको भी रक्षक, शिक्षक या मार्गदर्शक नहीं देखता।


जबतक अज्ञान है तभीतक चौरासीका चक्कर है।


तुमने 'उसे' कहाँ देखा ? - जहाँ मैं खुद खो गया ! अपने-आपको मैं नहीं देख पाया वहाँ।


जिसके घरसे अतिथि निराश लौट जाता है, उसका सैकड़ों घड़े घीका होम भी व्यर्थ है। अतिथिकी जात-पाँत, विद्या आदि न पूछकर देवता समझकर उसका सत्कार करना चाहिये; क्योंकि अतिथिमें सब देवता बसते हैं।


जो इच्छाएँ तुम्हारे आडम्बर और बनावटीपनको हटाती हैं, वे ही शुभ इच्छाएँ हैं।


सदा विनय और प्रेमपूर्वक ईश्वरका भजन करो। सेवा और सम्मानपूर्वक साधुजनोंका संग करो।


जो सदा समभावमें एकाग्र रहते हैं, प्रभुके भजनमें ही तत्पर रहते हैं, वे प्रकृतिके पार पहुँचकर प्रभुके स्वरूपको प्राप्त होते हैं।


ईश्वरका प्रेम पाकर मनुष्य सारी बाह्य वस्तुओंको भूल जाता है। जगत्‌का खयाल उसको नहीं रहता, यहाँतक कि सबसे प्रिय अपने शरीरको भी भूल जाता है। जब ऐसी अवस्था आवे तब समझना चाहिये कि प्रेम प्राप्त हुआ।


साधु-संतोंसे तुम पहले मिले हो, उनसे बोले हो; वे भाग्यवान् थे, क्या मेरा इतना भाग्य नहीं ? आजतक तुमने किसीको निराश नहीं किया; और मेरे जीकी लगन तो यही है। कि तुमसे मिलूँ, इसके बिना मेरे मनको कल नहीं पड़ती।


हृदयमें भगवान्के निराकार रूपका ध्यान नेत्रोंसे भगवत्-लीलाका दर्शन और जीभसे राम-नामका जप । इतना हो सके तो फिर और करना ही क्या रहा।


मेरे सद्गुण मेरे साथ कभी बीमार नहीं पड़ते। इसी प्रकार वे मेरी कब्रमें भी मेरे साथ नहीं गड़ सकते।


मानव-जीवन भोग भोगनेके लिये नहीं मिला है, इसके द्वारा मोक्ष अथवा भगवान्‌को पा लेनेमें ही इसकी सच्ची सार्थकता है।


जिस तरह पानीका बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है, उसी तरह आदमी पैदा होता है और क्षणभरमें नष्ट हो जाता है।


प्रभुकी प्राप्तिमें सबसे बड़ा बाधक है अभिमान।


जो तुम्हारी बातोंको सुनना चाहें, उन्हींको अपनी बातें सुनाओ। तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो।


जो कोई जैसा ध्यान करता है, दयालु भगवान् वैसे बन जाते हैं।


और कोई नहीं दिखायी देता जो इस मनको रोक रखे! एक घड़ी भी एक स्थानमें नहीं रहता, बन्धन तड़ातड़ तोड़कर भागता है। विषयोंके भँवरभरे भवसागरमें कूदना चाहता है। आशा तृष्णा, कल्पना- पापिनी मेरा नाश करनेपर तुली हुई है। हे नारायण ! तुम अभी देख ही रहे हो।


सत्पुरुषोंकी कार्यसिद्धि उनकी अपनी बुद्धिमत्तापर निर्भर नहीं है; परंतु भगवान्‌ के अनुग्रहपर।


शुद्ध प्रेमसे ही शुद्ध धर्मानुष्ठान सम्भव है। जिसकी जड़ शुद्ध नहीं, उसके डाल-पात और फल किस प्रकार शुद्ध हो सकते हैं।


अपने लिये इस लोक और परलोककी किसी चीजको कभी न चाहना यही सच्ची साधुता है। जिसमें यह साधुता न आ सके, वह तो साधु नामको कलंकित करता है।


सज्जनको झूठ जहर - सा लगता है और दुर्जनको सच विषके समान लगता है। वे इनसे वैसे ही दूर भागते हैं, जैसे आगसे पारा।


रे मन ! तू बड़ा ही कठोर है, मेरे अंदरसे तू निकल क्यों नहीं जाता ? उस सुन्दर, साँवरे, सलोने रूप बिना तू रात दिन कैसे जीता है।


बहुत मारा-मारा फिरा । लुट गया। तड़पते ही दिन बीत रहे हैं । हे दीनानाथ ! संसारमें अपना विरद रखो।


जबतक यह शरीर स्वस्थ है, जबतक वृद्धावस्था दूर है, जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है और जबतक आयु शेष नहीं हुई है, तभीतक परमात्माको पानेके लिये उपाय कर लो। जो मनुष्य यह सोचकर चुपचाप बैठा रहता है कि घरमें आग लग जानेपर कुआँ खोदेंगे, उसे जैसे जलना ही पड़ता है, यही दशा तुम्हारी होगी।


जो सोचता है ‘मैं जीव हूँ’ वह जीव है; और जो सोचता है ‘मैं शिव हूँ’ वह शिव है।


यदि तुम ईश्वरके प्रीतिपात्र होना चाहते हो तो ईश्वर जिस स्थितिमें रखना चाहे उसीमें संतुष्ट होना सीखो।


सत्यके पायेपर खड़े रहनेसे जो आनन्द मिलता है, उसकी तुलना अन्य किसी प्रकारके आनन्दसे नहीं की जा सकती।


ईश्वरसे डरकर जो काम किया जाता है वह सुधरता है और जो काम बिना उसके डरके किया जाता है वह बिगड़ता है।


भगवान्‌को चाहते हो तो चित्तको मलिन क्यों रखते हो ? अभिमान, अकड़, आलस्य, लोकलज्जा, चंचलता, असद्व्यवहार, मनोमालिन्य इत्यादि कूड़ा-करकट किस लिये जमा किये हुए हो ? केवल बाहरी भेष बना लेनेसे थोड़े ही कोई भक्त होता है।


चार बातोंमें मनुष्यका कल्याण है- (1) वाणीके संयममें, (2) अल्प-निद्रामें, (3) अल्प आहारमें, (4) एकान्तके भगवत्स्मरणमें।


मनुष्य जो उपवास करता है या व्रत नियम लेकर भोग-त्याग करता है वह उत्तम है, पर वह होता है थोड़े कालके लिये । अन्तःकरणमें मनके भीतर भोगके सुखका रसास्वादन बना ही रहता है, जो अवसर मिलनेपर विशेष बलपूर्वक भभक उठता है।