अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



श्रीहरिकी शरणमें जाओ, उन्हींके होकर रहो, उनके गुणगानमें मग्न हो जाओ, संसार जो हौआ बनकर सामने आया है. इसे भगा दो और इसी देहसे, इन्हीं आँखोंसे मुक्तिका आनन्द लूटो।


जिसे ईश्वरका साक्षात्कार हुआ है उससे बिना जाना कुछ भी नहीं रहा। जिसने परमात्माको जान लिया उसने जाननेयोग्य सब कुछ जान लिया।


भगवान्‌की पूजा छोड़कर जो लोग दूसरेकी पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं।


हरि आदिमें हैं, हरि अन्तमें हैं, हरि सब भूतोंमें व्यापक हैं। हरिको जानो, हरिको बखानो, वही मेरे माँ-बाप हैं।


- त्याग - वैराग्यका गर्व धनवानोंके धन-मदकी अपेक्षा बहुत अधिक खराब है।


इन चार बातोंसे जीवका कल्याण होता है ईश्वरके प्रति दीनता, ईश्वरेतर सब पदार्थोंमें निःस्पृहता, ईश्वरका ध्यान और विनय।


भगवान्ने तुम्हारे लिये जो रच रखा है, उसका विरोध करना तुम्हारे ओछे स्वभावका परिचयमात्र है।


शुक्लपक्षके पीछे कृष्णपक्ष और कृष्णपक्षके पीछे शुक्लपक्ष। इसी प्रकार सुख-दुःखका चक्र चला करता है। इनकी ओरसे दृष्टि हटाकर प्रभुके मार्गमें लगो, इस चक्रसे छूटनेका बस एक यही उपाय है।


प्रेमियोंका संग करो। धन-लोभादि मायाके मोहपाश हैं। इस फंदेसे अपना गला छुड़ाओ।


जगत्की किसी भी वस्तुका विश्लेषण करनेपर उसमें सत्ता, प्रकाश, आनन्द, नाम और रूप ये पाँच चीजें मिलती हैं। इनमें पहली तीन चीजें ब्रह्मकी अपनी हैं और शेष दो जगत्की हैं। अतएव नाम - रूपसे मन हटाकर सच्चिदानन्दमें अनुराग कर।


अपने अन्तस्में लौटनेके लिये एक सुन्दर समय चुन लो और बहुधा भगवान्की प्रेमपरायणता और दयाशीलतापर मनन करो।


मनको अच्छे मार्गपर चढ़ानेके लिये चार सीढ़ियाँ हैं—(1) सत्यका स्वीकार, (2) संसारमें उपरामता, (3) आचरणकी पवित्रता तथा उच्चता और (4) पापोंके लिये भगवान् से क्षमा-प्रार्थना।


ईश्वरने जिसे परमार्थज्ञानमें श्रेष्ठ बनाया है वह पापमें पड़कर अपना पतन न होने दे यह उसका पहला कर्तव्य है।


जितना प्रेम जगत्के रूपोंमें है उतना उस जगदीशमें हो तो फिर क्या कहना।


प्रभुका स्नेह माताके स्नेहसे भी बढ़कर है; फिर सोच-विचार क्यों करूँ ? जिसके सिर जो भार है वही जाने।


जब कभी मनुष्य किसी भी वस्तुकी अत्यधिक लिप्सा करता है, इसके साथ-ही-साथ उसका अन्तःकरण विक्षुब्ध हो उठता है।


सांसारिक कामनाओंको छोड़ देनेपर ही तुम शोक और दुःखसे छूट सकोगे तथा तुम्हें तभी सच्चा सुख और शान्ति मिलेगी।


वैष्णवोंको जो एक जाति मानता है, शालग्रामको जो एक पाषाण समझता है, सद्गुरुको जो एक मनुष्य मानता है, उसने कुछ न समझा।


जो हरि-जैसे हीरेको छोड़कर दूसरेकी आशा करते हैं, वे मनुष्य यमलोकमें ही जायँगे।


विषयोंमें काकविष्ठाके सदृश असह्य बुद्धि होनी चाहिये।


सूईके छेदमें तागा पहनाना चाहते हो तो उसे पतला करो। मनको ईश्वरमें पिरोना चाहते हो तो दीन-हीन अकिंचन बनो।


यदि हम साहसी पुरुषोंकी भाँति युद्धके संघर्ष में डटे रहनेका प्रयत्न करें, तो निश्चय ही हमें परमात्माकी स्वर्गीय सहायताका अनुभव होगा।


ईश्वरमें निमग्न होना भावावेशमें अपनेपनका नाश करना है।


बादल चाहे किसानको भूल जाय, परंतु किसान तो सदा निर्निमेष दृष्टिसे बादलकी ओर ही ताकता रहता है। इसी प्रकार हे नाथ! मेरी अभिलाषाके एकमात्र विषय तुम ही हो। जो तुम्हें चाहता है, उसे त्रिभुवनकी सम्पत्तिसे कोई मतलब नहीं।


जिस मनुष्यको परमात्माका यथार्थ ज्ञान होता है, वह कर्मसे नहीं बँधता, परंतु जिसको परमात्माका यथार्थ ज्ञान नहीं होता वह संसारमें बार- बार जन्मता मरता है।


संसारके लोग चंचल लक्ष्मीके पीछे जितने पचते हैं उससे सौवाँ हिस्सा परिश्रम भी यदि परमार्थके लिये करें तो उन्हें अचल सम्पत्ति मिल सकती है।


कम-से-कम एक बार यही न कह दो कि 'क्यों तंग कर रहे हो, यहाँसे चले जाओ।' हे हरि! तुम ऐसे निठुर क्यों हो गये।


जो सर्वप्राणियोंके हितकारी हैं, किसीमें दोषारोपण नहीं करते, किसीसे डाह नहीं करते, इन्द्रियों और मनको वशमें रखते हैं, निःस्पृह हैं और शान्त हैं, वे ही उत्तम भक्त हैं।


वह अधिक दिनोंतक कैसे शान्ति पा सकता है जो दूसरोंकी चिन्तामें अपनेको डाले रहता है, जो सदा अवसरकी प्रतीक्षामें है, जो अपने-आपको अपने हृदयमें कभी स्मरण ही नहीं करता।


जिन भगवान्ने तुम्हें शक्ति, साधन, सम्पत्ति दी है, वे प्राणिमात्रके हृदयमें बसते हैं, अभिमान छोड़कर उन्हें उनकी सेवामें खर्च करके भगवान्‌की सेवा करो।


सबके आगे-पीछे वे ही श्रीहरि हैं। उनके सिवा प्राणियोंका दूसरा आश्रय हो ही नहीं सकता । प्राणिमात्रके आश्रय वे ही हैं। उनके स्मरणसे सबका कल्याण होगा।


शान्ति और मौनमें धर्मात्मा पुरुष धर्मग्रन्थोंके रहस्यको सीखता और लाभ उठाता है। धर्मात्मा पुरुषके लिये यह उत्तम है कि वह बहुत कम बाहर जाय।


अपने शरीरके आकार अथवा अपने रूपकी सुन्दरताकी प्रशंसा मत करो; क्योंकि थोड़ी-सी बीमारीमें वह कुरूप और नष्ट हो जायगा।


पहले प्रभुके दास बनो और जबतक वैसे न बन पाओ, 'अहं ब्रह्मास्मि' 'मैं वही हूँ' ऐसा मत कहो। नहीं तो, घोर नरककी यातना भोगनी होगी।


जो साधक हजारों भवनोंकी दौलतके भी लुभाये न लुभा, वही ईश्वरके बारेमें बात करने लायक है।


सब रास्ते सँकरे हो गये, कलिमें कोई साधन नहीं बनता। भक्तिका पंथ बड़ा सुलभ है। इस पंथमें सब कर्म श्रीहरिके समर्पित होते हैं, इससे पाप-पुण्यका दाग नहीं लगता और जन्म-मृत्युका बन्धन कट जाता है।


मनुष्य देखनेमें कोई रूपवान्, काइ कुरूप, कोई साधु, कोई असाधु दीख पड़ते हैं, परंतु उन सबके भीतर एक ही ईश्वर विराजते हैं।


गोपियाँ रास-रंगमें समरस हुई, उसी प्रकार हमारी चित्त वृत्तियाँ श्रीकृष्णप्रेममें सराबोर हो जायें।


बहुत ग्रन्थोंके मायाजालमें मत पड़ना भगवान् केवल विश्वाससे ही प्राप्त हो सकते हैं। सम्पूर्ण जगत्के वैभवको तृण-समान समझना और निरन्तर भगवन्नाम संकीर्तनमें लगे रहना, यही वेद-शास्त्रोंका सार है।


ज्ञानी, तपस्वी, शूर, कवि, पण्डित, गुणी-कौन है इस संसारमें जिसे मोहने भरमाया नहीं, कामने नचाया नहीं। यह जगत् तो काजलकी कोठरी है, कलंकसे बचनेका बस, एक ही उपाय है भगवान्का सतत स्मरण।


पैसोंको बुरे उपयोगसे रोकनेकी अपेक्षा जीभको बुरे उपयोगसे रोकना बहुत कठिन है।


गौ अपने गलेमें पड़ी हुई मालाके रहने या गिरनेकी तरफ जिस प्रकार कुछ भी ध्यान नहीं देती, इसी प्रकार प्रारब्धकी डोरीमें पिरोया हुआ यह शरीर रहे या जाय, जिसके चित्तकी वृत्ति आनन्दरूप ब्रह्ममें लीन हो गयी है, वह पुरुष फिर उसकी ओर देखता ही नहीं।


पिता-माता ईश्वरके प्रतिनिधिस्वरूप हैं, साक्षात् प्रत्यक्ष देवता हैं। पिता-मातामें परमात्मसत्ताकी स्फूर्तिके दर्शन कर गाढ़ भक्तिभावसे इनकी सेवा करते रहनेसे भी निश्चय ही मनुष्यको सिद्धि मिल जाती है।


तुम सेवा करनेके लिये आये, हुकूमत चलानेके लिये नहीं। जान लो, कष्ट उठाने और परिश्रम करनेके लिये तुम इस जगत् में आये हो, आलसी होकर वार्तालापमें समय नष्ट करनेके लिये नहीं।


जिसके मनमें कामवासना प्रबल हो उसके लिये विवाह कर लेना ही उचित है। ऐसा करनेसे वह दूसरे पापों और संकटोंसे बच जाता है। मेरी भी नजरमें अगर दीवार और औरत एक-सी न लगती होती तो मैंने भी विवाह कर लिया होता ।


जो ईश्वरका चरण-कमल पकड़ लेता है, वह संसार से नहीं डरता।


भगवान् सबको देखते हैं; किंतु जबतक वे किसीको अपनी इच्छासे दिखायी नहीं देते तबतक कोई उनको देख या पहचान नहीं सकता।


अपनी मुक्तिके साधनोंको छोड़कर जो अन्यान्य चीजोंपर, जिनकी जानकारीसे आत्माको कुछ भी लाभ नहीं होता, लट्टू हुआ फिरता है वह बड़ा अज्ञानी है।


जैसे नमक और कपूर एक ही रंगके होते हैं, पर स्वादमें फर्क होता है, इसी प्रकार मनुष्योंमें भी पापी और पुण्यात्मा होते हैं।


तुम्हारे सब सांसारिक बन्धन और सम्बन्ध तुम्हें चिन्ता और दुर्भाग्यके वशमें डालते हैं। उनसे ऊपर उठो । ईश्वरसे अपनी एकताका अनुभव करो, बस तुम्हारा निस्तार है। तुम स्वयं मोक्षरूप हो।


भगवान् कल्पवृक्ष हैं, चिन्तामणि हैं। चित्त जो-जो चिन्तन करे उसे पूरा करनेवाले हैं।


विश्वासी भक्त ईश्वरके सिवा सांसारिक धन-मान कुछ भी लेना नहीं चाहता।


जो मुँहसे बोलना जानता है; वह ठग है, परंतु जो बोलता है, वैसे ही चलता है, वही पण्डित है।


जिस मनुष्यकी भलाई की हो उसे सुखी देखने में प्रसन्नताका होना ही भलाई करनेवालेके लिये पूरा पुरस्कार है।


श्रीकृष्णनामामृतके अतिरिक्त इन्द्रियोंको किसी प्रकारके दूसरे आहारकी आवश्यकता ही नहीं है। इसीका पान करते-करते वे सदा सुतृप्त बनीं रहेंगी।


एकान्त भक्तिका लक्षण यह है कि भगवान् और भक्तका एकान्त होता है। भक्त भगवान्‌में मिल जाता है और भगवान् भक्तमें मिल जाते हैं।


जिसे प्रेमकी प्राप्ति करनी हो, उसे सबसे पहले साधु-संग करना चाहिये।


साधनाके लिये निर्जनताका आश्रय बहुत ही उत्तम है।


पारस तो लोहेको छूकर सोना बना देता है, परंतु सद्गुरु अपने शरणागत शिष्यका तमाम अज्ञान-मोह दूर करके उसे अपने समान बना देते हैं।


किसका संग किया जाय ? जिसमें 'तू', 'मैं' का भाव नहीं।